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* ११४ * कमेविज्ञान : भाग ९ *
युगपत् ( एक साथ) समस्त त्रिकालवर्ती पदार्थों को सूर्य की तरह प्रकाशित करता है । मुक्तात्मा के इन्द्रियाँ और अन्तःकरण न होने पर भी अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा उन्हें अव्याबाध-सुख की उपलब्धि होती है। बाह्य पदार्थ भी उनके अतीन्द्रिय ज्ञान में झलकते हैं। '
सिद्धत्व प्राप्ति से पूर्व दैहिक अर्हताएँ
सिद्ध भगवान किस संहनन और संस्थान में सिद्ध-मुक्त होते हैं ? इसका समाधान तथा उनकी अवगाहना और आयुष्य के विषय में समाधान करते हुए 'औपपातिकसूत्र' में कहा गया है - सिद्ध भगवान (छह संहननों = दैहिक अस्थिबन्धों में से) वज्रऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं । वे छह संस्थानों (दैहिक आकार) में से किसी भी संस्थान में सिद्ध हो सकते हैं तथा मुक्तात्मा की सिद्धत्व-प्राप्ति से पूर्व जघन्य (कम से कम ) सात हाथ की अवगाहना ( ऊँचाई = कद) से तथा उत्कृष्ट ( अधिक से अधिक) पाँच सौ धनुष की अवगाहना से सिद्ध होते हैं। 'औपपातिकसूत्र' के अनुसार सिद्ध होने वाले जीवों की जो अवगाहना प्ररूपित की गई हैं, वह तीर्थंकरों की अपेक्षा से समझनी चाहिए। भगवान महावीर स्वामी जघन्य सात हाथ की और भगवान ऋषभदेव उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना से सिद्ध हुए हैं ! सामान्य केवलियों की अपेक्षा से यह कथन नहीं है, क्योंकि कूर्मापुत्र दो हाथ की अवगाहना से सिद्ध हुए और मरुदेवी माता की अवगाहना सिद्धत्व-प्राप्ति से पूर्व ५०० धनुष से अधिक थी ।
देह का त्याग करते समय अन्तिम समय में जो प्रदेशघन आकार (नाक, कान, उदर आदि रिक्त या पोले अंगों की रिक्तता या पोलेपन के विलय से घनीभूत बना हुआ जो आकार ) होता है, वही आकार वहाँ (सिद्ध-स्थान में ) रहता है । अन्तिम भव में दीर्घ या ह्रस्व (लम्बा-ठिगना, बड़ा-छोटा) जैसा भी आकार होता है, उससे तिहाई (१/३) भाग कम में सिद्धों की अवगाहना ( अवस्थिति या व्याप्ति) होती है । (जिनकी देह पाँच सौ धनुष की होती है, उन ) सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष तथा तिहाई धनुष ( ३२ अंगुल ) होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। (सिद्धत्व प्राप्ति के पूर्व जिन मनुष्यों के देह की अवगाहना ७ हाथ परिमित होती है, उन) सिद्धों की मध्यम अवगाहना ४ हाथ तथा तिहाई भाग कम एक हाथ (यानी १६ अंगुल ) होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने बताया है । (सिद्धत्व प्राप्ति के पूर्व जिन मनुष्यों ( कूर्मापुत्र आदि) की २ हाथ परिमित अवगाहना होती है, उन ) सिद्धों की जघन्य
१. (क) 'जैनदर्शन में आत्म-विचार' से भाव ग्रहण, पृ. २८२
ख) प्रवचनसार गा. ९९, २३
(ग) भगवती आराधना. गा. २१४२
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