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* विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १३३ *
अन्तरा पड़ता है। फलितार्थ यह है कि दो-तीन आदि समय तक निरन्तर उत्कृष्ट सिद्ध नहीं हो सकते।
विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना चौदह प्रकार की अपेक्षा से सिद्ध-'प्रज्ञापनासूत्र' में १५ प्रकार के सिद्धों में से १४ प्रकार के सिद्ध एक समय में कितने हो सकते हैं ? इसकी गणना बताई गई है वह इस प्रकार है-तीर्थ की विद्यमानता में १०८ तक, तीर्थ का विच्छेद होने पर १०, तीर्थंकर एक साथ २0, अतीर्थंकर (सामान्यकेवली) १०८ तक, स्वयंबुद्ध १०८ तक, प्रत्येकबुद्ध ६, बुद्धबोधित १०८ तक, स्वलिंगी १०८, अन्यलिंगी १0, गृहिलिंगी ४, स्त्रीलिंगी २०, पुरुषलिंगी १०८, नपुंसकलिंगी एक समय में १0 और एकसिद्ध या अनेकसिद्ध एक समय में अधिक से अधिक १०८ तक सिद्ध-मुक्त हो सकते हैं।
पूर्वभवाश्रित सिद्ध एक समय में उत्कृष्टतः कितने हो सकते हैं-पहली, दूसरी और तीसरी नरकभूमि से निकलकर आने वाले जीव एक समय में १0, चौथी नरक भूमि से निकले हुए ४, पृथ्वीकाय और अप्काय से निकले हुए ४, पंचेन्द्रिय गर्भजतिर्यञ्च और तिर्यंची की पर्याय से तथा मनुष्य की पर्याय से निकलकर मनुष्य बने हुए 90 जीव सिद्ध होते हैं। मनुष्यनी की पर्याय से निकलकर मनुष्य बने हुए २० सिद्ध होते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से आये हुए २0 मनुष्य सिद्ध होते हैं। वैमानिक देवों से आये हुए १०८ सिद्ध होते हैं।
क्षेत्राश्रित सिद्धों की एक समय में उत्कृष्टतः गणना-ऊर्ध्वलोक में ४, अधोलोक में २0 और मध्यलोक में १०८ सिद्ध होते हैं। यद्यपि समुद्र में २, नदी आदि सरोवरों में ३, प्रत्येक विजय में अलग-अलग २० सिद्ध होते हैं, तथापि एक समय में अधिक से अधिक १०८ तक सिद्ध हो सकते हैं; इससे अधिक नहीं। मेरु पर्वत के भद्रशाल वन, नन्दन वन और सोमनस वन में ४, पाण्डुक वन में २, अकर्मभूमि के क्षेत्रों में १0, कर्मभूमि के क्षेत्रों में १०८, प्रथम, द्वितीय, पंचम तथा छठे आरे में १0 और तीसरे, चौथे आरे में १०८ जीव सिद्ध होते हैं।
अवगाहनाश्रित सिद्धों की एक समय में उत्कृष्टतः गणना-जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले एक समय में ४, मध्यम अवगाहना वाले १०८ और उत्कृष्ट ५00 धनुष की अवगाहना वाले एक समय में २ जीव सिद्ध होते हैं। १. पन्नवणा, पद १, जीवप्रज्ञापना में सिद्धप्रज्ञापना वर्णन २. (क) प्रज्ञापनासूत्र, पद १. सिद्धप्रज्ञापना
(ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १०२ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३६, गा. ४९-५४
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