________________
* विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १३१ *
(८) स्त्रीलिंगसिद्ध-स्त्रीत्व तीन प्रकार का होता है-स्त्रीवेद, शरीराकृति और वेश। यहाँ पर शरीराकृतिरूप स्त्रीत्व लिया गया है, क्योंकि वेद के उदय में तो कोई भी जीव सिद्ध नहीं हो सकता। वेद (काय) विकार का क्षय करके ही स्त्री, पुरुष या नपुंसक सिद्ध होते हैं। यहाँ वेश अप्रमाण है। किन्तु शरीराकृतिरूप स्त्री शरीर से वीतरागता प्राप्त करके जो सिद्ध-मुक्त होते हैं, उन्हीं की स्त्रीलिंगसिद्धा में यहाँ विवक्षा है। जैसे-मरुदेवी माता ने स्त्री के आकार में, स्त्री शरीर से हाथी के हौदे पर बैठे हुए, मोहादि को निर्मूल करके वीतरागता प्राप्त की और वहीं सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गई थीं। ये एक समय में उत्कृष्ट २० सिद्ध हो सकते हैं। ___ (९) पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुषाकृति में रहते हुए पुरुषशरीर से वीतरागता प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करने वाले पुरुषलिंगसिद्ध कहलाते हैं। ये एक समय में १०८ तक मोक्ष जा सकते हैं।
(१०) नपुंसकलिंगसिद्ध-नपुंसक की आकृति में रहते हुए नपुंसक शरीर से वेदादि विकारों को निर्मूल करके वीतरागता प्राप्त कर जो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं। यहाँ कृतनपुंसक का ग्रहण किया गया है। मूलनपुंसक सिद्ध नहीं हो सकते। एक समय में ये उत्कृष्टतः १० मोक्ष जा सकते हैं।
(११) स्वालंगसिद्ध-रजोहरण मुखवस्त्रिकादि स्वलिंग (स्वधर्म-सम्प्रदाय का .. साधुवेश) धारण करके मोक्ष प्राप्त करने वाले स्वलिंगसिद्ध कहलाते हैं।
(१२) अन्यलिंगसिद्ध-परिव्राजक आदि वल्कल, गेरुए आदि अन्य धर्म-सम्प्रदाय के वेश (द्रव्यलिंग) में रहते हुए, जो वीतरागता प्राप्त करके सिद्ध-मुक्त होते हैं। 'उत्तराध्ययन की टीका' में बताया है-"ज्ञानादि ही मुक्ति के साधन हैं, लिंग (बाह्य वेश) नहीं।" इसी प्रकार 'सम्बोधसत्तरी टीका' में भी कहा
है-मोक्ष-प्राप्ति में वेश की प्रधानता नहीं है, किन्तु समभाव ही मोक्ष (निर्वाण) का • " हेतु है। एक समभावी आचार्य ने भी कहा है-“न तो दिगम्बरत्व धारण करने से,
न ही श्वेताम्बरत्व धारण करने से मुक्ति होती है, न ही तत्त्वों के विषय में वाद-विवाद करने से और न तर्क-वितर्क करने से ही मोक्ष प्राप्त होता है और न किसी एक पक्ष (सम्प्रदाय) का ममत्वपूर्वक आश्रय लेने से ही मोक्ष होता है, वस्तुतः कषायों से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है।"
१. (क) ज्ञानाद्येव मुक्तिसाधनम्, न तु लिंगम्।
-उत्तरा., अ. २३, गा. ३३, भावविजयगणि टीका (ख) मोक्षप्राप्ती न वेष-प्राधान्यं, किन्तु समभाव एव निर्वृतिहेतुः। -सम्बोधसत्तरी टीका (ग) नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्कवादे।
न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org