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* .१३४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
___ यह संख्या सर्वत्र एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध-मुक्त होने वालों की है।' जैनधर्म ईश्वरवादी है, किन्तु ईश्वर कर्तृत्ववादी या एकेश्वरवादी नहीं है ___ बहुत-से धर्मानुयायियों की धारणा ऐसी है कि जैनधर्म ईश्वरवादी नहीं है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। जैनधर्म ईश्वरवादी अवश्य है, किन्तु वह ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं मानता। अगर जैनधर्म ईश्वरवादी न होता तो सर्वकर्ममक्त विदेहमुक्त मोक्ष-प्राप्त सिद्ध-बुद्ध सर्वदुःखरहित अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयरूप आत्मिक ऐश्वर्य से पूर्ण सम्पन्न ईश्वर का इतना तात्त्विक और युक्तिपूर्ण विवेचन न करता। जैनधर्म का यह निश्चित मत है कि ईश्वर का अस्वीकार अपने पूर्ण आध्यात्मिक विकास (चरम लक्ष्य या मोक्ष) का अस्वीकार है। पूर्ण शुद्ध आत्मा के मोक्ष का अस्वीकार अपनी आत्मा के पूर्ण विकास का अस्वीकार है। अपनी (आत्मा की) पूर्ण शुद्धतारूप (धर्म) का अस्वीकार अपने आप (आत्मा) का अस्वीकार है। आत्मा साधक है, धर्म (सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयरूप) साधन है, ईश्वरत्व, परमात्मपद या मोक्ष (सर्वकर्म मुक्तत्व) साध्य है। सबकी आत्माओं में ईश्वरत्व : किन्तु पूर्ण प्रकट, अर्ध प्रकट, यत्किंचित् प्रकट
जैनधर्म ‘अप्या सो परमप्पा' (आत्मा है, वह परमात्मा है) के सिद्धान्त को मानता है। जो गुण शुद्ध आत्मा (परमात्मा = ईश्वर) में हैं, वे ही गुण सामान्य आत्मा में निश्चयदृष्टि से विद्यमान हैं। किन्तु उस पर कर्मों का आवरण न्यूनाधिक रूप में होने से व्यवहारदृष्टि से वह अभी कर्मबद्ध होने से पूर्ण ईश्वर नहीं बन सका है इसलिए आचार्यों ने ईश्वर (आत्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न परमात्मा) को तीन भागों में वर्गीकृत कर दिया है-(१) सिद्ध ईश्वर, (२) मुक्त ईश्वर, और (३) बद्ध ईश्वर। जो आठों ही कर्मों (चार घाति और चार अघाति) का क्षय करके शरीर
और शरीर से सम्बन्धित जन्म, जरा, रोग, मृत्यु आदि सभी दु:खों से मुक्त, निरंजन निराकार विदेहमुक्त हो जाते हैं, वे सिद्ध ईश्वर कहलाते हैं। जो चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके केवलज्ञानी, केवलदर्शी वीतराग हो चुके हैं, जो अभी देहयुक्त होने के कारण चार अघातिकर्मों (भवोपग्राही कर्मों = वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र) से युक्त सदेहमुक्त अरिहंत (सामान्यकेवली या तीर्थंकर) हैं, वे
१. (क) उत्तराध्ययन. अ. ३६, गा. ५४. ५३
(ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १०३ २. 'जैनदर्शन : मनन और मीमांसा' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ४४७
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