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* १२४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
सम्मान-अपमान या भारीपन - हल्कापन सिद्ध-बुद्ध शुद्ध परम आत्मा में नहीं रहे और सिद्ध भगवान अगुरुलघुत्व गुण के धारक हो गये ।
(८) अनन्त बलवीर्यत्व (अनन्त आत्म-शक्ति ) - आत्मा में अनन्त शक्ति है, किन्तु अन्तराय कर्म के कारण वह दबी हुई है । पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने से सिद्धों में उक्त प्रकार का अनन्त बलवीर्यत्व (अनन्त आत्मिक शक्ति दानादि पंचविध लब्धि) प्रकट हुआ और वे अनन्त शक्तिमान् हो गये ।
ये आठ पूर्ण आध्यात्मिक विकास के प्रतीक गुण हैं। इन आठ विशिष्ट गुणों से सिद्ध-मुक्त आत्माओं के स्वरूप की पहचान होती है । '
अष्ट कर्मों के पूर्ण क्षय से सिद्ध - परमात्मा में कौन-कौन-से आठ गुण प्रकट होते हैं ?
सिद्ध-परमात्मा अनन्त ज्ञान-दर्शन द्वारा समस्त पदार्थों को हस्तामलकवत् जानते-देखते हैं । उनको ज्ञान और दर्शन अबाध होता है। अपने स्वरूप से वे कदापि स्खलित नहीं होते। उन्हें जानने-देखने में बाहरी पदार्थ रुकावट नहीं डाल सकते। उनकी आत्म-श्रद्धा परिपूर्ण, अक्षय और अबाध होती है । उसे ही जैन परिभाषा में क्षायक सम्यक्त्व कहते हैं। उनका आत्मिक सुख (आनन्द) अव्याबांध और अखण्ड होता है। वे पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति से रहित होते हैं। जो अक्षय अव्याबाध आत्मिक-सुख सिद्ध-परमात्मा को प्राप्त होता है, उतना सुख देवों या चक्रवर्ती आदि विशिष्ट मानवों को कथमपि प्राप्त नहीं होता । उस अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख के समक्ष भौतिक, पौद्गलिक या अन्य सुख क्षुद्रतम प्रतीत होते हैं। साता-असातावेदनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से अब शरीर और शरीर से सम्बद्ध सुख-दुःख से उन्हें कोई वास्ता नहीं रहता । अनन्त अव्याबाध आत्मिक सहज सुख (आनन्द) गुण से सम्पन्न हो जाते हैं। शरीर से सम्बद्ध जन्म-मरणादि से रहित होने से अमूर्त्तत्व ( अरूपी) गुण से, नाम - गोत्रादि की शुभाशुभता, उच्च-नीचता से रहित होने से अगुरुलघुत्व और अटल अवगाहनत्व गुण से तथा नरक - तिर्यंच-मनुष्य- य-देवरूप आयुष्य से रहित होने के कारण अजर-अमर-अक्षय गुण से सम्पन्न हो चुकते हैं। निष्कर्ष यह है शरीर आदि से सम्बद्ध चार भवोपग्राही अघातिकर्मों ( वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुकर्म) का सर्वथा क्षय होने से अब शरीर और शरीर से सम्बद्ध पर्यायों
१. (क) 'जैनतत्त्वप्रकाश' (पू. आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी म. ) से भाव ग्रहण, पृ. ११७ (ख) जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ३, वोल ५६७
(ग) धवला ७ / २, १, ७, गा. ४-११, १४-१५ का भावार्थ (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा. ३ से उद्धृत)
(घ) अकषायत्वमवेदत्वमकारकदाविदेहदा चेव। अचलत्त-मलेपत्तं चं हुंति अच्वंतियाई से |
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-भगवती आराधना २१५७/१८४७
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