________________
* विदेह-मुक्त सिद्ध-परमात्मा : स्वरूप, प्राप्ति, उपाय * १११ *
- मुक्तात्मा लोक के अग्र भाग में ही क्यों स्थित हो जाते हैं ? सिद्ध-परमात्मा लोक के अग्र भाग में ही जाकर क्यों स्थित हो जाते हैं, आगे क्यों नहीं जाते? इसके दो कारण हैं-(१) शुद्ध निर्लिप्त आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का होने से, और (२) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही हैं, आगे (अलोकाकाश) में नहीं होने से। धर्मास्तिकाय जीव की गति में और अधर्मास्तिकाय जीव की स्थिति में सहायक होता है, अलोकाकाश में ये दोनों न होने से अलोकाकाश में सिद्धों का गमन नहीं होता, न ही स्थिति होती है। अतः उनका गमन लोकान्त तक ही होता है, आगे नहीं। 'स्थानांगसूत्र' में बताया है-चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर नहीं जा सकते-(१) आगे गति का अभाव होने से, (२) उपग्रह (धर्माधर्मास्तिकाय) का अभाव होने से, (३) लोकान्त भाग में परमाणुओं के रूक्ष होने से, और (४) अनादिकाल का स्वभाव होने से।
अतः सिद्ध-परमात्मा लोकाग्र प्रदेश में जाकर, अलोक से लगकर वहीं रुक जाते और सदा के लिए स्थित हो जाते हैं। कई लोग कहते हैं कि मुक्तात्मा अनन्त काल तक निरन्तर अविरत गति से अनन्त आकाश में ऊपर ही ऊपर गमन करता रहता है, कभी किसी काल में ठहरता नहीं; किन्तु यह कथन यथार्थ और युक्तिसंगत नहीं है।
सिद्धगति की पहचान . सिद्ध भगवान जहाँ जाकर शाश्वतरूप में अवस्थित हो जाते हैं, वह कहाँ है ? कितना लम्बा-चौड़ा है ? उसके और क्या-क्या नाम हैं ? 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसका विवरण इस प्रकार है-वह सिद्धशिला सर्वार्थसिद्ध विमान (देवलोक) से १२ योजन ऊपर ४५ लाख योजन की लम्बी-चौड़ी गोलाकार छत्राकार है। वह मध्य में ८ योजन मोटी और चारों ओर से क्रमशः घटती-घटती किनारे पर मक्खी की पाँख से भी अधिक पतली होती है। वह पृथ्वी अर्जुन (श्वेत-स्वर्ण) मयी है, स्वभावतः निर्मल है और उत्तान (उलटे रखे हुए) छाते (छत्र) के आकार की है अथवा तेल से परिपूर्ण दीपक के आकार की है। वह शंख, अंकरन और कुन्दपुष्प के समान श्वेत, निर्मल और शुभ्र है। इसकी परिधि लम्बाई-चौड़ाई से तिगुनी, अर्थात्
... १. (क) “जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ९२ - (ख) धर्मास्तिकायाभावात।
-सर्वार्थसिद्धि, अ. १0, सू. ५ (ग) चउहि ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचाएंति वहिया लोगंता गमणयाए। तं जहागति-अभावणं, निरुव्वगहयाए, लुक्खाए, लोगाणुभावेणं।
-स्थानांग., स्था. ४, उ. ३, सू. ३३७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org