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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु *६५ *
कहा गया“है–‘“पंच-कल्याणकरूप पूजा के योग्य होता है, इस कारण अर्हन् कहलाता है।" "
तीर्थ और तीर्थंकर : स्वरूप और कार्य
में
अर्हन्त भगवान का ही एक विशिष्ट रूप है - तीर्थंकर । तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ होता है - तीर्थ का कर्त्ता - तीर्थ-निर्माता, अर्थात् जो तीर्थ को बनाता है, तीर्थ की स्थापना करता है। तीर्थ का शब्दशः अर्थ होता है - जिसके द्वारा तैरा जा सके, वह तीर्थ है। तैरने की क्रिया दो प्रकार की होती है - एक तो जलाशय में रहे हुए पानी को तैरने की और दूसरी संसाररूपी समुद्र को तैरने की । इन दो क्रियाओं में से प्रथम क्रिया जिस स्थान में, जिससे अथवा जिसके द्वारा होती है, उसे लौकिक तीर्थ कहते हैं। आजकल लोक व्यवहार में 'तीर्थ' शब्दं पवित्र स्थान, सिद्ध क्षेत्र या पवित्र भूमि, सरोवर या नदी के तटवर्ती घाट या समुद्र में ठहरने के स्थान के अर्थ प्रयुक्त होता है । परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थ का सम्बन्ध लोकोत्तर तीर्थ के साथ है । तैरने की द्वितीय प्रकार की क्रिया, जिसके आश्रय से अथवा जिससे, जिस साधन द्वारा होती है, उसे लोकोत्तर तीर्थ कहते हैं । अतः लोकोत्तर तीर्थ का आगमानुसार यहाँ अर्थ है-साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध श्रमण (श्रमण प्रधान) संघ अथवा‘समाधिशतक' के अनुसार - " संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं। उसके समान होने से आगम को भी तीर्थ कहते हैं। उस आगम के कर्त्ता को तीर्थंकर कहते हैं।" जैन परिभाषा के अनुसार भावतीर्थ हैसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म । संसार-समुद्र से आत्मा को तिराने वाला एकमात्र अहिंसा - सत्यादि धर्म है अथवा रत्नत्रयरूप धर्म ही है, अतः धर्म को तीर्थ कहना उपयुक्त है | तीर्थंकर के लिए 'चतुर्विंशतिस्तव' पाठ में कहा गया - " धम्मतित्थयरे जिणे । " - धर्मरूप तीर्थ के कर्त्ता (स्थापक ) जिन । तीर्थंकर अपने समय में संसार-सागर से पार करने वाले धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं, इसलिए वे तीर्थंकर • कहलाते हैं। यह संसाररूपी अपार समुद्र कितना भयंकर है ? इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, काम, मत्सर, ईर्ष्या आदि हजारों विकाररूपी मगरमच्छ हैं। अनेकों योनियोंरूपी गर्त्त और चार गतियोंरूपी भँवर हैं, जिनमें फँसकर अज्ञानी संसारी जीव डूब जाते हैं। परन्तु विश्ववत्सल तीर्थंकर देवों ने सर्वसाधारण की
१. (क) अरिहंति णमोक्कारं, अरिहा पूजासुरुत्तमा लोए ।। ५०५ ॥
अरिहंति वंदण-नमंसणाणि, अरिहंति पूयसक्कारं । अरिहंति सिद्धिगमणं, अरहंता तेण वुच्चति ॥५६२ ॥ (ख) अतिशय - पूजार्हत्वाद् वाऽर्हन्तः ।
(ग) पंचकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति, तेन कारणेन अर्हन् भण्यते ।
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- मूलाचार ५०५, ५६२
- धवला १, १, १/४४/६
- द्रव्यसंग्रह टीका ५०/२११/१
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