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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ८३ *
अन्तर्भूत कर लेते हैं, तब विश्व की सभी आत्माओं को समभाव से, समान रूप से अपने तुल्य देखते हैं। विश्व की समस्त आत्माओं को अपनी आत्मा में अन्तर्भूत कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में जैन-संस्कृति की दृष्टि से तीर्थंकर की व्यक्तिगत आत्मा की आवाज विश्व की आवाज बन जाती है। उसका चिन्तन विश्वात्मा का चिन्तन हो जाता है। उसकी अनुभूति विश्वात्मा की अनुभूति हो जाती है। विश्व उसमें निहित हो जाता है और वह विश्वमय हो जाता है। यही उसकी सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और तीर्थंकरत्व की निशानी है।'
तीर्थकर की प्रत्येक प्रवृत्ति पुण्यफलस्वरूप
सहजभाव से होती है तीर्थंकर पूर्ण वीतराग-पुरुष होते हैं। उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति सहजभाव से पूर्वबद्ध अपार पुण्य के फलस्वरूप केवल करुणाभाव से, परोपकारभाव से, जन-कल्याण की भावना से, जगत् के समस्त जीवों की आत्म-रक्षारूप दया के भाव से होती रहती है। ये पवित्र पुण्यमयी मंगल भावनाएँ ही उनके प्रवृत्तिशील जीवन की आधारशिलाएँ हैं। उनके द्वारा होने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति में अपना हानि-लाभ न देखना, प्रत्युत जनता का हानि-लाभ देखना ही तीर्थंकरत्व का गौरव है। वचनातिशय-प्राप्ति : क्यों, किस कारण से और
कितने प्रकार से ? ___ यही कारण है कि भगवान महावीर को केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात तीस वर्ष तक उनके द्वारा सहजभाव से पूर्वकृत विशिष्ट पुण्यातिशयवश विभिन्न प्रकार से निष्काम जन-सेवा होती रही। तीस वर्ष के दौरान धर्म-प्रचार में, संघ-सेवा में, जन-कल्याण में, अनेक लोगों को बोधिलाभ प्राप्त होने में तटस्थ-निमित्त बने भगवान महावीर को व्यक्तिगत रूप से कुछ भी लाभ नहीं हुआ, न ही उनको इसकी अपेक्षा थी; क्योंकि उनका जीवन आध्यात्मिक विकास की पूर्णता के निकट वीतरागभाव में ओतप्रोत हो चुका था। उनके लिए कोई भी साधना शेष नहीं रही थी। फिर भी विश्व-कल्याण की भावना से सहजभाव से उनके द्वारा जीवन के अन्तिम क्षण तक धर्म के सन्मार्ग का, प्राणियों के सुख-दुःखरूप विपाक का उपदेश होता रहा। पावापुरी में निर्वाण के समय सहजभाव से उनके द्वारा दिये गए उत्तराध्ययनगत उपदेश तथा सुख-दुःख विपाक से सम्बन्धित उपदेश इस तथ्य के साक्षी हैं। सूत्रकृतांग वृत्ति' में आचार्य शीलांक ने इसी बात को ध्यान में रखकर कहा-“श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्राणियों के अनुग्रहार्थ धर्मोपदेश होता रहा,
१. 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ४५ . २. 'वही' पृ.४४
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