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८६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
(७) उपनीतरागत्वम् - भगवद् वाणी मालकोश आदि छह रागों तथा तीस रागिनियों में परिणत होने से श्रोतागण को मंत्रमुग्ध एवं तल्लीन कर देती है ।
उपर्युक्त सातों वचनातिशय शब्द - प्रधान ( शब्दों से सम्बद्ध) हैं। आगे २८ वचनातिशय अर्थ-प्रधान (अर्थों से सम्बद्ध) होते हैं, उनमें महान् अर्थ गर्भित होता है।
(८) महार्थत्वम्-भगवद् वाणी सूत्ररूप होने से उसमें शब्द अल्प किन्तु महान् अर्थगर्भित होते हैं।
पूर्वापर-विरोधरहित,
(१०) शिष्टत्वम्-भगवद् वचन अभिप्रेत - सिद्धान्त की शिष्टता = योग्यता का सूचक अथवा उनका भाषण अनुशासनबद्ध होता है।
(११) असंदिग्धत्वम्-उनके वाक्य असंदिग्ध अथवा संदेहनाशक होतें हैं ।
(९) अव्याहत - पौर्वापर्यत्वम्-भगवद् अनेकान्तवादयुक्त होती है।
वाणी
(१२) अपहृतान्योत्तरत्वम्-भगवद् वाणी में किसी के दूषणों का प्रकाश न होकर हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप से वस्तु तत्त्व का कथन होता है
। (१३) हृदयग्राहित्वम्-भगवद् वचन श्रोताओं के हृदय को प्रिय लगते हैं । (१४) देशकालाव्यतीतत्वम्- भगवद् वचन देशकालानुसारी एवं प्रस्ताव
होते हैं।
(१५) तत्त्वानुरूपत्वम् - जिस तत्त्व का वर्णन हो रहा है,
होते हैं - भगवद् वाक्य ।
उसी तत्त्व के
(१६) अप्रकीर्ण-प्रसृतत्वम् - अप्रस्तुत विषय वर्णन भगवद् वाणी में नहीं होता, न ही उसमें असम्बद्ध विषय का अतिविस्तार होता है।
अनुरूप
(१७) अन्योऽन्य-प्रगृहीतत्वम् - भगवद् वचन में परस्पर सापेक्ष शब्द होते हैं । (१८) अभिजातत्वम्-भगवद् वचन आबाल-वृद्ध सभी प्रकार के श्रोताओं के अनुरूप शुद्ध, स्पष्ट और सरल होते हैं।
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(१९) अतिस्निग्ध-मधुरत्वम् - भगवद् वचन घृतसम अतिस्निग्ध और मधुसम मधुर होते हैं | श्रोताजनों के लिए वे रुचिकर, सुखकर एवं हितकर होते हैं ।
(२०) अ-पर-मर्मावेधित्वम् - भगवद् वचन किसी के मर्मवेधी या गुप्त रहस्य प्रकटनकारी नहीं होते, अपितु शान्तरसवर्द्धक होते हैं ।
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