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* ६६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
सुविधा के लिए धर्म का घाट (तीर्थ) बना दिया है। ज्ञान-दर्शन- चारित्र-तप के विधि-विधानों की एक निश्चित योजना तैयार कर दी है; जिससे कोई भी आसानी से इस जन्म-मरणादि रूप भीषण संसार-समुद्र को पार कर सकता है। सम्यग्दर्शनादि धर्मरूपी भावतीर्थ का आचरण करने वाले साधु-साध्वी श्रावकश्राविकारूप चतुर्विध संघ को भी ( गौण दृष्टि से ) तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ का अर्ध पुल भी होता है। वस्तुतः तीर्थंकर चतुर्विध संघ को संसार सागर पार करने हेतु धर्म-साधनारूपी पुल बनाते हैं। चतुर्विध धर्म-संघ अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी भी पुल पर चढ़कर संसार सागर के उस पार जा सकता है।
तीर्थंकर के उपदेश के आधार पर उनके मुख्य शिष्य गणधर द्वादशांगी श्रुत ( द्वादश अंगशास्त्रों ) की रचना करते हैं । उक्त द्वादशांगी श्रुत को भी तीर्थ कहते हैं। उक्त द्वादशांगीरूप तीर्थ के प्ररूपक या प्रवचनकार होने से भी वे तीर्थंकर कहलाते हैं । 'भगवतीसूत्र' में तीर्थ, तीर्थंकर, प्रवचन और प्रावचनी का अन्तर बताया गया है। '
तीर्थंकर अरिहन्तों का महिमासूचक लक्षण
‘नियमसार’ में तीर्थंकर अरहंतों का महिमासूचक लक्षण बताया गया है“घनघातिकर्मरहित, केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और चौंतीस अतिशययुक्त अर्हन्त होते हैं।” इसी ग्रन्थ की 'तात्पर्य वृत्ति' में कहा गया है - " तेज (भामण्डल), केवलज्ञान, केवलदर्शन, ऋद्धि (समवसरणादि), अनन्त सौख्य ( ऐश्वर्य ) और त्रिभुवन-प्रधान-वल्लभता, ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हन्त हैं ।" 'धवला' में अर्हन्त का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है - " जिन्होंने मोह, अज्ञान एवं विघ्न समूह को नष्ट कर दिया है, जो कामदेव - विजेता हैं, त्रिनेत्र द्वारा सकल
१. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. २८-२९
(ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. २१
(ग) तीर्यतेऽनेमेति तीर्थम् ।
(घ) तीर्थकृतः संसारोत्तरणहेतुभूतत्त्वात्तीर्थमिव तीर्थम् आगमस्सत्कृतवतः ।
-समाधिशतक टीका २/२२२/२४
(ङ) तीर्यते संसार - समुद्रोऽनेनेति तीर्थम्, प्रवचनाधारश्चतुर्विधः संघः, तत्करोतीति तीर्थंकरः ।
(च) धम्मतित्थयरेजिणे ।
- आवश्यकसूत्र
(छ) तित्थं पुणचाउवण्णे समणसंघे पढमगणहरे वा ।
- आवश्यक नियुक्ति
(ज) गोयमा ! अरहा ताव नियमं तित्थगरे । तिर्थ पुण चाउवण्णाइणो समणसंघो, तं जहासमणा, समणीओ, सावगा, साविगाओ। - भगवतीसूत्र, श. २०, उ. ८, सू. १४ (झ) गोयमा ! अरहा ताव नियमं पावयणी । पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे । तं जहाआयारो जाव दिट्टिवाओ । - वही, श. २०, उ. ८, सू. १५
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