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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ७७ *
जूझकर उन्हें परास्त करने की बात है। यह युद्ध कैसे हो? कौन करे? इसका समाधान भी यहाँ दिया गया है कि आत्मा के द्वारा (आत्म-शत्रु से लड़ना) आत्मा को जीतना। तात्पर्य यह है कि आत्मा अपना आत्म-बल, संकल्प-शक्ति और वीर्योल्लास बढ़ाकर अपने ही अन्तर में स्थित विभावों और परभावों से जूझकर उन महान् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, उन पर नियंत्रण या दमन करे। यही जिनत्व प्राप्त करने का मार्ग है।
महतो महीयान् उपकारी तीर्थकर अरहंत देव ___ नवकार महामंत्र में आध्यात्मिक दृष्टि से उच्चकोटि के सिद्ध परमात्मा के होते हुए भी अर्हन्त को प्रथम स्थान और सिद्ध को दूसरा स्थान देने का कारण यह है कि तीर्थंकर होने के नाते उनके जीवन में आत्मोद्धार और विश्वोद्धार का साहचर्य है, उनका जीवन सर्वांगी, स्व-पर-हितैषीं, परम पूर्ण और विश्व-प्राणियों का निकट उपकारक है। वे स्वयं अकेले आध्यात्मिक गगन में नहीं उड़ते, अपितु अपनी पाँखों में सारे जगत् को लेकर उड़ते हैं। विश्व-मुक्ति में आत्म-मुक्ति; उनकी सर्वोत्कृष्ट पुण्यचर्या का मुद्रालेख होता है। स्थगित या विकृत (बिगड़े) हुए धर्म-प्रगति रथों को वे सच्ची और ठोस गति प्रदान करते हैं। धर्म की नींव डालकर भव्य आत्माओं को शुद्धि का मार्ग बताते हैं, अधर्म की प्रबलता को कमजोर करते हैं। विश्व के समक्ष चारित्र बल में पुरुषार्थ का चमत्कारी आदर्श प्रस्तुत करते हैं। उनके शुभ निमित्त से अनेक श्रेयार्थियों के लिए कल्याण कर प्रत्यक्ष रूप मोक्षमार्ग का उद्घाटन हो जाता है। वे जीवन-विकास के व्यवस्थित क्रम और उस मार्ग पर जाने के साधनों और उपायों तथा अपायों से बचने का मार्गदर्शन करते हैं। मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लोकोत्तर क्रान्ति करते हैं; इतना ही नहीं अपने पीछे उत्तराधिकार के रूप में चेतना (प्रगति) शील एवं प्रशिक्षित सिद्धि-संघ (मोक्षमार्ग पर चलने के लिए प्रयत्नशील श्रमण-प्रधान चतुर्विध संघ) तैयार करके दे जाते हैं। इसीलिए उनके महान् उपकारों से उपकृत हुए भव्य जीव कहते हैं-"अरहंतो मह देवो।”–अरहन्त मेरे देव हैं।
तीर्थकर देवाधिदेव क्यों कहलाते हैं ? __पुण्यातिशय विशिष्ट अर्हत-परमात्मा को 'देव' के बदले देवाधिदेव (तीर्थंकर परमात्मा) कहा जाता है। 'देवाधिदेव' का शब्दशः अर्थ होता है-देवों के भी अधिष्ठाता (आराध्य, उपाग्य या पूज्य) देव। किन्तु इसका विशेष स्वरूप जानने के लिए देखिये-'भगवतीसूत्र' का वह पाठ, जिसमें गणधर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से पूछा है-“भगवन् ! देवाधिदेव (अर्हन्त = तीर्थंकर) देवाधिदेव
१. 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण
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