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* ४० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अरिहन्त परमात्मा साधक को कैसे गति या प्राण-शक्ति देते हैं ?
अतः वीतरागता की सीढ़ियों पर आरूढ़ साधक को अरिहन्त भले ही हाथ पकड़कर नहीं चलाते, परन्तु उसकी जिज्ञासा, मुमुक्षा को प्राण-शक्ति, गति-प्रगति प्रदान करते हैं। प्रदान क्या करते हैं, साधक की अन्तरात्मा में ऐसी स्फुरणा, ऊर्जा, साहसिकता, पराक्रमशीलता, प्रबल श्रद्धा एवं क्षमता प्राप्त हो जाती है कि वह अपने में सोये हुए, आवृत या अनाराधित अरिहन्तत्व को जाग्रत, अनावृत या आराधित करने को उद्यत हो जाता है। अरिहन्त कुछ देते-लेते नहीं, तब उनकी आराधना से क्या लाभ ?
जैनसिद्धान्त के अनुसार अरिहन्त परमात्मा कुछ देते-लेते नहीं। वे आराधक के सांसारिक दुःख-दुर्भाग्य को मिटाने के लिए कुछ नहीं करते, जो कुछ करना है या जो कुछ प्राप्त करना है, वह स्वयं आराधक को ही अपने पुरुषार्थ से प्राप्त करना है।
प्रश्न होता है-जब अरिहन्त परमात्मा किसी को कुछ देते-लेते नहीं या उसके लिए कुछ करते नहीं, तब उनकी आराधना करने से क्या लाभ है? वस्तुतः ईश्वर को जो जगत् का कर्ता-हर्ता मानते हैं या किसी अवतार, भगवान या शक्ति की आराधना उनसे किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिए या कुछ पाने के लिए करते हैं या उनसे कुछ माँगते हैं, वे ऐसी शंका कर सकते हैं, परन्तु उनको भी इस विषय में कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं मिलता। जैनदर्शन ईश्वर या किसी अवतार को कर्ता-धर्ता न मानकर अपनी आत्मा को ही अपने सुख-दुःख का, दुःस्थिति-सुस्थिति का कर्ता-धर्ता मानता है। ऐसी स्थिति में आराधक के द्वारा स्तुति, निन्दा, प्रशंसा, बाह्य भक्ति आदि से आराध्य को न तो कोई लाभ है, न हानि। यह सोचना गलत होगा कि हम अरिहन्त के लिए कुछ करते हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, अरिहंत के लिए नहीं, अरिहंत की स्तुति, भक्ति के माध्यम से उनके गुणों का स्मरण करके अपनी आत्मा को जगाते हैं, अपनी आत्मा में जो आर्हन्त्य छिपा है, उसे प्रगट करते हैं। आराधना का जो भी फल है, वह आराधक को ही स्व-पुरुषार्थ से मिलता है, न कि अरिहन्त को।' अरिहन्त की आराधना अपनी ही, अपने स्वरूप की ही आराधना है
अरिहन्त की आराधना अपनी ही आराधना है, अपने हृदय में प्रतिष्ठित अरिहन्तत्व की आराधना है। अपने शुद्ध स्वरूप को-वीतरागता को हृदय में प्रतिष्ठित करने से आत्मोत्कर्ष की भावना जाग्रत होती है, घातिकर्मों का स्वतः क्षय
१. 'अरिहन्त' से भावांश ग्रहण, पृ. ५३-५५
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