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* ५० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
वीतराग अरिहन्त के ध्यान या सान्निध्य से वीतरागता के संस्कार पैदा होते हैं
निष्कर्ष यह है कि जिन्होंने चार घातिकर्म क्षय करके वीतराग अरिहन्त पद प्राप्त कर लिया है, वे चाहे हमें चर्मचक्षुओं से दिखाई न दें, फिर भी उनके स्वरूप का अपने स्वच्छ अन्तःकरण में चिन्तन किया जाए, मानसिक रूप से उनका सान्निध्य या सन्निकटत्व प्राप्त किया जाए तो मनुष्य को आत्म-बल, दृष्टि-विशुद्धि, वीतरागता, समता आदि की प्रेरणा मिलती है। ये सब उपलब्धियाँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जिन महान् आत्माओं ने वीतरागता' प्राप्त की है, उनकी वीतरागता के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन तथा उनके आदर्शों का अनुकरण करने वाला व्यक्ति भी वीतरागता प्राप्त कर सकता है, इस प्रकार की प्रतीति एवं विश्वास उसमें पैदा हो जाता है।
आत्मा स्फटिक के समान स्वच्छ एवं पारदर्शी है। स्फटिक के पास जिस रंग का फूल रखा जाता है, वैसा ही रंग वह (स्फटिक) अपने में धारण कर लेता है। ठीक उसी प्रकार राग-द्वेष आदि के जैसे संयोग-संसर्ग आत्मा को मिलते हैं, वैसे ही संस्कार आत्मा शीघ्र ही ग्रहण कर लेती है। जिससे मनुष्य रागी या द्वेषी बनकर दुःख, अशान्ति आदि प्राप्त करता है। अतः तमाम दुःखों के उत्पादक राग-द्वेषादि को दूर करने और वीतरागता प्राप्त करने के लिए राग-द्वेष से सर्वथा रहित वीतराग अरिहन्त परमात्मा का संसर्ग-सत्संग प्राप्त करना या अवलम्बन लेना तथा वैसे वातावरण में रहना परम उपयोगी और आवश्यक है। वीतराग देवों का स्वरूप परम निर्मल, शान्तिमय एवं वीतरागतायुक्त है। राग या द्वेष का, कषायों का या अन्य विकारों का तनिक-सा भी रंग या प्रभाव उनके स्वरूप में नहीं होता। ऐसे महान् आत्मा, आध्यात्मिक साधना के बल पर मन के विकारों से लड़ते हैं, वासनाओं से संघर्ष करते हैं, राग-द्वेष से टक्कर लेते हैं और अन्त में पूर्ण रूप से सदा के लिए इनका क्षय कर डालते हैं, वे वीतरागता प्राप्त अरिहन्त कहलाते हैं। ये चार घातिकर्मों का क्षय करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त शक्तिरूप, अनन्त चतुष्टय के धारक होते हैं। अखिल विश्व के वे ज्ञाता-द्रष्टा होते हैं। संसार-सागर के अन्तिम तट पर पहुँचे हुए होते हैं। अरिहन्त की भूमिका समभाव की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। प्रिय, मनोज्ञ एवं सुन्दर पर रागभाव; तथा अप्रिय, अमनोज्ञ एवं असुन्दर पर द्वेषभाव, इनमें बिलकुल नहीं होता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, सम्मान-अपमान आदि विरोधी द्वन्द्वों पर इनकी दृष्टि एकरस (सम) रहती है। इनके तन-मन-वचन कषायभाव से अलिप्त रहते हैं।'
१. (क) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १०४-१०५
(ख) श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. १६३
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