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* ५८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
घातिकर्मों को एक साथ जिन्होंने सर्वथा निर्मूल कर दिया है, वे लोकालोक . प्रकाशक तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन भास्कर सयोगी केवली होते हैं। जिसने केवललब्धि प्राप्त कर परमात्म-संज्ञा प्राप्त की है, वे असहाय ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली, योगों से युक्त होने के कारण सयोगी और घातिकर्मों से रहित होने के कारण 'जिन' कहलाते हैं। पूर्ण आत्म-ज्ञानी हुए बिना केवली नहीं हो सकता। इसीलिए ‘प्रवचनसार' में केवली का लक्षण दिया है-केवली भगवान आत्मा को, आत्मा में, आत्मा से अनुभव कारण केवली हैं। अर्थात् समस्त पदार्थों को जानने के अतिरिक्त वे केवल शुद्धात्मा को जानते अनुभव करते हैं, इसलिए केवली कहलाते हैं। ‘मोक्षपाहूड' में केवली की परिभाषा दी है-जो निज शुद्ध आत्मा में केवते-सेवते = ठहरते हैं, एकीभावेन, वे केवली कहलाते हैं। .
ऐसे केवली. कई प्रकार के होते हैं-सामान्य केवली, मूक केवली, अन्तकृत् केवली, उपसर्ग केवली और श्रुत केवली तथा तीर्थंकर केवली और अयोगी (सिद्ध) केवली। इनमें से तीर्थंकर केवली तक सभी सयोगी केवलज्ञानी होते हैं। केवल सिद्ध-परमात्मा ही अयोगी केवली होते हैं। श्रुत केवली को छोड़कर ये सब लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञानी होते हैं। श्रुत केवली के केवलज्ञान तो नहीं होता, किन्तु निश्चय से श्रुत ज्ञान के द्वारा इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्मा को सम्मुख होकर जानता है, वह लोक को प्रगट जानने वाला ऋषिवर श्रुत केवली है।' ___'भगवतीसूत्र' में ‘सोच्चा केवली' और 'असोच्चा केवली' ऐसे दो प्रकार के केवलियों का वर्णन आता है। परन्तु इन दोनों प्रकार के केचलियों में से कई नियम साधकों को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, कईयों को नहीं भी होता। परन्तु तीर्थंकर केवली के अतिरिक्त भी अन्य सब प्रकार के केवली केवलज्ञान प्राप्त होने पर अरिहन्त या अर्हत--अरहंत कहलाते हैं।
१. (क) मूलाचार ५६४
(ख) सर्वार्थसिद्धि ९.३८/४५३/९ (ग) पंचसंग्रह (प्रा.) १/२७-३० (घ) द्रव्यसंग्रह टीका १३/१५ (ङ) प्रवचनसार त. प्र. ३३ (च) केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्टतीति केवली।
___ -माक्षपाहुड टीका ६/३०८/११ (छ) जो हि सुएण गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुयकेवलीमिसिणो भणति लोयप्पइवयवा॥
-समयसार २. दवे-भगवतीयूत्र में ‘सोच्चा केवली' और 'असोच्चा अकेली' के विषय में विस्तृत निरूपण
क्रमशः श. ५.३.४ तथा श. ९. उ. ३१ में
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