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विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु
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विशिष्ट पुण्यातिशययुक्त महापुरुष ही तीर्थंकर होते हैं
'तीर्थंकर' शब्द जैन संस्कृति का बहुत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द है। जैनधर्म के तत्त्वों और सिद्धान्तों को जानने वाला विद्वान् ही नहीं, सामान्य गृहस्थ-जीवन यापन करने वाला, सुख-शान्तिपूर्वक रहने वाला, शारीरिकमानसिक-आध्यात्मिक स्वस्थता, बोधिलाभ और उत्तम समाधि चाहने वाला प्रत्येक जैन इस शब्द से परिचित है; परिचित ही नहीं, तीर्थंकरों के उपदेश और प्रेरणा को जीवन में आचरित करने के लिए तत्पर रहता है ।
सभी प्रकार के अरिहन्त केवली तीर्थंकर नहीं होते, कुछ विशिष्ट पुण्यातिशय वाले अरिहन्त या विशिष्ट केवली ही तीर्थंकर होते हैं; किन्तु जितने आध्यात्मिक गुण, अनन्त चतुष्टयरूप आत्मिक निजी गुण, घातिकर्म क्षय एवं अष्टादश दोषरहितता के गुण सामान्य अरिहन्तों और सामान्य केवलियों में होते हैं, वे सब-के-सब गुण तथा पूर्वोक्त अरिहन्त - गुण तो विशिष्ट अरिहन्तरूप तीर्थंकरों में होते ही हैं। उनके अतिरिक्त उनके लक्षण, विशिष्ट गुण, अतिशय तथा उत्कृष्ट पुण्य-राशि का उत्कर्ष, तीर्थंकरत्व - प्राप्ति के लिए कुछ विशिष्ट कारण इत्यादि भी होते हैं। अतः मुमुक्षु साधक के लिए तीर्थंकर और तीर्थंकरत्व का विशेष परिचय होना अत्यन्त आवश्यक है ।
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तीर्थंकर और सामान्य अरिहन्त (केवली ) में अन्तर
'तीर्थंकर' शब्द का अर्थ, फलितार्थ एवं उनकी विशेषताएँ बताने से पहले हम सामान्य अरिहन्त केवली और विशिष्ट अरिहन्त केवली तीर्थंकर दोनों में किन-किन बातों का अन्तर है ? इसे बताना चाहेंगे। यद्यपि तीर्थंकर अरिहन्त और सामान्य अरिहन्त की अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय - सम्पदा में कोई अन्तर नहीं होता; किन्तु तीर्थंकरपद अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। उसकी अपनी अलग पहचान है, अलग विशेषताएँ हैं। दोनों के बीच कतिपय बातों में अन्तर हैं। वह इस प्रकार हैं
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