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* अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ५९ *
ये सामान्य केवली अरिहन्त भी भिन्न-भिन्न निमित्तों को लेकर केवलज्ञानयुक्त होते हैं। जैसे-प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को तीव्र पश्चात्ताप के निमित्त से पुनः अपने शुद्ध आत्म-गुणों में रमण से, माषतुष मुनि को सम्यग्ज्ञान की तीव्र धारा में बहते हुए उत्कृष्ट भेदविज्ञान के कारण तथा कूरगडूक मुनि को उत्कृष्ट विनयभाव क्षयभाव से-समभाव से सहन करने के कारण से, मृगावती साध्वी को सरल भाव से आत्मालोचन करते-करते, बाहुबली मुनि को अहंकार से सर्वथा निवृत्त होने से केवलज्ञान हुआ। भरत चक्रवर्ती शीशमहल में शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान के निमित्त से केवली हुए। अतः सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली में केवलज्ञान तथा आध्यात्मिक परिपूर्णता की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता।
तीर्थकर केवली और सामान्य केवली दोनों में
पाये जाने वाले बारह विशिष्ट गुण अरिहन्तों के आध्यात्मिक विकास की पूर्णता एवं वीतरागता की दृष्टि से जो बारह गुण बताये गए हैं, वे गुण सामान्य केवली अरिहन्तों में भी पाये जाते हैं। वे बारह गुण इस प्रकार हैं-(१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त सुख, (४) क्षायिक सम्यक्त्व, (५) यथाख्यातचारित्र, (६) अवेदित्व, (७) अतीन्द्रियत्व, और (८) से (१२) दानादि पाँच लब्धियाँ।'
किन्तु तीर्थंकर अरिहन्तों में जो बारह गुण बताये गए हैं, वे इनसे कुछ भिन्न . हैं। उन पर अगले निबन्ध में प्रकाश डालेंगे।
अरिहन्त भगवन्तों में नहीं पाये जाने वाले अठारह दोष इसी प्रकार अरिहन्तों को जो अठारह दोषों से रहित बताया गया है, उक्त सब दोषरहितता जैसे तीर्थंकर अरिहन्तों में पाई जाती है, वैसे सामान्य अरिहन्तों में वह ..घटित होती है। सन्तरिसय ठाणा वृत्ति' तथा 'प्रवचन सारोद्धार' में ये दोष दो प्रकार से बताये गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(प्रथम प्रकार से) (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, (५) वीर्यान्तराय, (६) मिथ्यात्व, (७) अज्ञान, (८) अविरति, (९) काम (भोगेच्छा), (१०) हास्य, (११) रति, (१२) अरति, (१३) शोक, (१४) भय, (१५) जुगुप्सा, (१६) राग, • (१७) द्वेष, और (१८) निद्रा। ये अठारह दोष जिस प्रकार तीर्थंकर अरिहन्तों में नहीं पाये जाते उसी प्रकार सामान्य अरिहन्तों (केवलियों) में भी नहीं पाये जाते, क्योंकि उनके अन्तराय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय ये चारों घातिकर्म क्षय हो चुके हैं। (दूसरे प्रकार से) अठारह दोष-(१) हिंसा,
१. प्रवचनसार, गा. ८०
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