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* ४८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
चेतना का तादात्म्य होता जाएगा। प्राण और चेतना का सम्पर्क होने पर ध्यान उस विशुद्ध चेतना में केन्द्रित हो जाएगा, जहाँ हम आज तक नहीं पहुँच पाए ।"
"इस (ध्यान) में किसी मंत्रादि की आवश्यकता नहीं । अतः शब्द, विचार, विभाव आदि समस्त पुद्गलों से मुक्त होकर प्राणों की ऊर्जा को अपने निजस्वरूप से संयुक्त कर दीजिए। फिर भी पुद्गल का स्वभाव है - कभी शीत का, कभी उष्ण का, कभी स्पन्दन का अनुभव होता रहेगा, पर आप इसे महत्त्वपूर्ण न समझकर प्राणों में ही केन्द्रित रहने का अभ्यास कीजिए । "
“इतने पर विचारों का आवागमन अपने आप समाप्त हो जाएगा । कदाचित् मोहनीय कर्म के उदय से राग-द्वेषजनित भावधारा में कोई विकल्प उठ भी जावे तो उसे अपनी ही कमजोरी का कारण समझकर - ' मेरा निजस्वरूप राग-द्वेष से सर्वथा भिन्न है और मुझे निजस्वरूप में रमण करना है; ऐसा ध्यान में लाने पर. उन कर्मों की निर्जरा हो जाएगी और चेतना पुनः अपनी प्राणधारा में प्रवेश कर अरिहन्त से सम्पर्क स्थापित कर लेगी।" "
भक्ति और अनुभूति : अरिहन्त की आराधना के दो सिरे
अरिहन्त की आराधना, उपासना या अरिहन्त भाव की साधना का राजमार्ग प्रकार से प्रस्थान से लेकर गन्तव्य ( प्राप्तव्य ) स्थल तक जाता है - भक्ति से और अनुभूति से । भक्ति आराधना - साधना का प्रस्थान - केन्द्र है और अनुभूति है, उसकी प्राप्ति या उपलब्धि का विश्राम - केन्द्र | भक्ति की जाती है और अनुभूति हो जाती है। करने और हो जाने में अन्तर है । भक्ति में मानना (Believing) है और अनुभूति में जानना (Feeling) है। मानना कर्तव्य से जुड़ता है, जानना जीवन के अनुभव से। मानने में जीवन की नियमितता होती है, जबकि जानने में आराधक अपनी प्रकृति = स्वभाव से जुड़ता है।
वीतराग अरिहन्त परमात्मा के ध्यान से ध्याता भी तड़प बन जाता है
आराध्यदेव अरिहन्त परमात्मा का ध्यान करने से ध्याता परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। यद्यपि वीतराग अरिहन्त प्रभु को वन्दन - नमन करने, भक्ति-स्तुति करने तथा गुणोत्कीर्तन करने एवं ध्यान द्वारा एकमात्र उन्हीं के गुणों का या स्वरूप का चिन्तन करने वाले ध्याता को स्वर्ग, मोक्ष आदि कुछ देते नहीं, किन्तु जव वह
१. (क) 'अरिहन्त' (साध्वी डॉ. श्री दिव्यप्रभा जी ) से साभार उद्धृत. ६५-६६
(ख) आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. १, शीलांकवृत्ति
२. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ६२
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