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* अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ४९ *
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ध्यान में उनके स्वरूप और गुणों का चिन्तन-मनन करता है, गुण-स्मरण करता है, तब उनके गुणों की ओर आकृष्ट होता है; स्वयं वैसा बनने की इच्छा करता है। फलतः अपने आराध्य अरिहन्त देव के आदर्शों को जीवन में उतारने लगता है। मनुष्य का श्रेयस्कामी हृदय यदि परमात्मा के अभिमुख हो, उनकी भक्ति और शरण में लीन हो, उनके गुण-स्मरण से वीतरागता-सम्मुख बनता जाता हो तो एक दिन उसकी अपूर्णता पूर्णता में परिणत हो सकती है।
यह निश्चित है कि जब परम शुभ्र, राग-द्वेष-कर्ममल कलंकरहित, शुद्ध परमोज्ज्वल वीतराग अरिहन्त परमात्मा के स्वरूप और गुण समूह का ध्यान प्रबल एकाग्रता के साथ ध्याता करता है तो उसका ध्यान-बल परिपक्व होकर उसके हृदयकपाटों को खोल देता है। ध्याता के हृदय पर ऐसी प्रतिक्रिया होती है कि उसकी राग-द्वेष-मोह की ग्रन्थियाँ टूटती जाती हैं। ध्येय-तत्त्व की शुद्धता का प्रकाश ध्याता पर पड़ने लगेगा। फलतः ध्याता भी ध्येयानुसार उसी रूप में परिवर्तित हो जाएगा। यह निर्विवाद है कि ध्यान का विषय जैसा होता है, मन पर उसका वैसा ही असर पड़ने लगता है। कहा भी है-"यद् ध्यायति तद् भवति।"-जो जैसा (जिस स्वरूप का) ध्यान करता है, वह वैसा ही हो जाता है। ध्येय (आराध्य-अरिहन्त) के गुण ध्याता में प्रायः प्रकट होने लगते हैं। जैसे-किसी कामुक का ध्येय एक परोक्ष युवती होती है तो फिर वह कामातुर आत्मा अपने ध्येय के प्रभाव से उस युवती के साथ कामभोग-सेवन करने के उत्कट भावों में लीन रहने लगता है। इतना ही नहीं, किन्तु वह अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए अनेक योग्य-अयोग्य क्रियाओं में प्रवृत्त होता रहता है। इसी प्रकार जिस ध्याता का ध्येय वीतराग परमात्मा होते हैं, उस आत्मा के आत्म-प्रदेश राग-द्वेषादि विभावों से हटकर अरिहन्त परमात्मा के वीतरागता, समता आदि उच्च भावों में रमण करने लगते हैं। फिर वह ध्याता वीतरागता को प्राप्त करने का अभ्यास करने लगता है। जिस प्रकार कामुक आत्मा कामवासना की पूर्ति करने की चेष्टा में लगा रहता है, उसी प्रकार वीतराग अरिहन्त परमात्मा को ध्येय बनाकर उनकी आराधना-उपासना या तदनुसार भावना जाग्रत रखे, निष्क्रिय न बैठकर वीतरागतारूप ध्येय की प्राप्ति के लिए अहर्निश उनके स्वरूप एवं गुण-समूह का चिन्तन करे, उनके आदर्श जीवन से प्रेरणा ले तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप और संयम तथा उत्तम ध्यान और समाधि में चित्त, वृत्ति और प्रवृत्ति को लगाए, उसे भी परमात्मपद प्राप्त होते देर नहीं लगती। वीतरागता का भाव धारण करने से भी राग-द्वेषादिजनित पूर्वबद्ध कर्मवर्गणाएँ भी आत्मा से स्वतः पृथक् हो जाती हैं। इस प्रकार समता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए अरिहन्त परमात्मा का ध्यान करने से आत्म-प्रदेशों से क्रोधादि कषायों के परमाणु हट जाते हैं और उनके स्थान पर सिर्फ समत्वभाव प्रस्फुटित होने लगता है।*.
१. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १११
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