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* ५२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अरिहन्त, केवलज्ञानी हो गया। यही कारण है कि पंच-परमेष्ठि नमस्कारसूत्र में 'नमो अरिहंताणं' कहा गया है-'नमो तित्थयराणं' नहीं। तीर्थंकर भी अरिहन्त हैं, अन्य केवली भी अरिहन्त हैं। सभी अरिहन्त तीर्थंकर नहीं होते। अरिहन्तों के नमस्कार में तीर्थंकरों को भी नमस्कार आ ही जाता है। परन्तु व्यक्ति-विशेषरूप तीर्थंकरों के नमस्कार में अरिहन्तों को नमस्कार नहीं आ सकता। अतः तीर्थंकरत्व मुख्य नहीं है, अर्हद्भाव ही मुख्य है। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार तीर्थंकरत्व औदयिक प्रकृति है, कर्म का फल है, किन्तु अरिहन्त दशा क्षायिकभाव है। वह किसी कर्म का फल नहीं, अपितु कर्मों के क्षय (निर्जरा) का फल है। तीर्थंकरों को नमस्कार भी अर्हद्भावमुखेन है, स्वतंत्र नहीं। यह है जैनधर्म का विराट और उदार रूप। यहाँ व्यक्ति-पूजा को स्थान नहीं है, गुण-पूजा को ही मुख्यता दी गई है। जहाँ कहीं भी व्यक्ति-पूजा को स्थान दिया भी है, वहाँ भी उक्त व्यक्ति में निहित आदरास्पद गुणों को ध्यान में रखकर ही; स्वतंत्र नहीं। यही कारण है कि पिछले पृष्ठों में हमने बताया है कि निखिल संसार का कोई भी मनुष्य फिर भले ही वह किसी भी जाति, देश, धर्मतीर्थ (धार्मिक संघ) का हो, किसी भी वेश, लिंग या जाति का हो, अपने आध्यात्मिक गुणों के विकास के द्वारा राग-द्वेषादि विकारों पर विजय प्राप्त करके चार घातिकर्मों का क्षय करके वीतराग, केवली, अरिहन्त बन सकता है। सामान्य आत्मा से महात्मा और महात्मा से - परमात्मा बन सकता है। फलतः इस (पंच-परमेष्ठि) नमस्कारसूत्र में व्यक्ति-विशेष का नाम न लेकर अनन्त-अनन्त अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओं को उनके गुणों के अनुरूप नमस्कार किया गया है। .
अतः शुद्ध पवित्र दशारूप उच्च स्वरूप में (आध्यात्मिक विकास के उच्च स्वरूप में) वीतरागभावरूप समभाव में स्थित रहने वाले पंच-परमेष्ठियों में सर्वप्रथम 'नमो अरिहंताणं' को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। सम्यक्त्व के पाठ में भी 'अरहंतो महदेवो' (अरहन्त मेरे देव हैं) कहा गया है। जैनधर्म में वीतराग को अरिहन्त कहा गया है। अरिहन्त हुए बिना वीतरागता आ ही नहीं सकती। दोनों में कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। अरिहन्तता कारण है और वीतरागता कार्य है। अरिहन्त का विभिन्न दृष्टियों से लक्षण ___ 'अरिहन्त' शब्द 'अरि' और 'हन्त' दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। उसका अर्थ है-शत्रुओं का हनन करने वाले। ‘अरि' से यहाँ बाह्य शत्रुओं का ग्रहण नहीं किया
१. गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगः न च वयः! ___-गुणीजनों में गुण ही पूजा के स्थान = कारण हैं, लिंग और वय नहीं। २. 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ.१६२ ३. परमे (शुद्ध-पवित्रदशारूप उच्चआध्यात्मिकविकासस्वरूपे, वीतरागभावरूपे समभाव)
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