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* अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ४१ के
होता है। केवल ज्ञाता-द्रष्टा रहने से, प्रत्येक पदार्थ, प्रवृत्ति, व्यक्ति या इन्द्रिय-मनोविषय पर राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता का भाव न करने से आत्मा के साथ नये कर्म (आम्रव) नहीं चिपकते और समभाव रखने से पुराने बद्ध कर्मों का क्षय होता जाता है, आत्मा शुद्ध निर्मल होता जाता है। इस प्रकार अरिहन्त की आराधना से आत्मा का कर्ममलरहित शुद्ध स्वरूप स्वतः व्यक्त होता जाता है। भव्य भावुक मानव अरिहन्तत्व को पाने का पूर्ण अधिकारी है।
यह तो मनुष्य के सामर्थ्य पर निर्भर है कि वह मन-वचन-काय को वीतराग देवरूपी ध्येय या आदर्श के सम्मुख करे, तदनुसार अपने जीवन को ढाले। मनुष्य अपने ही पुरुषार्थ से अपने में वीतरागत्व या परमात्मत्व जगा सकता है। दूसरी कोई ईश्वरीय शक्ति या परमात्मा उसे हाथ पकड़कर प्रत्यक्ष रूप से परमात्मा नहीं बना सकती। जैसे-सूर्य स्वयं प्रकाशित होता है, उसका प्रकाश लेना या न लेना मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। उसका प्रकाश लेने वाले को लाभ है, न लेने वाले की स्वास्थ्य हानि है। इसी प्रकार वीतराग देवरूपी सूर्य अनन्त ज्ञानादि से प्रकाशमान हैं। यह व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है कि वह वीतराग प्रभु का ज्ञानादि प्रकाश ग्रहण करे या न करे। यदि व्यक्ति वीतराग परमात्मा के सद्गुणों से प्रेरणा लेता है तो उससे उसे परमात्मपद-प्राप्ति तक का लाभ है और न लेने वाले की बहुत बड़ी आत्मिक हानि है।' जब मुमुक्षु साधक अरिहन्त के शुद्ध स्वरूप का स्मरण करता है तब उनका स्वरूप सामने आ जाता है और तभी उसे अपनी विस्मृत आत्म-निधि का स्मरण हो जाता है, जो अनन्त काल से कर्मों से आवृत है तथा कर्मों के आस्रव और बन्ध से प्रसुप्त, कुण्ठित और अनाराधित है। आराधक को आराध्य से माँगने से नहीं मिलता,
स्वतः मिलता है __ ऐसा करने में आराधक को आराध्य से कुछ भी माँगने-याचना करने की • आवश्यकता नहीं है, माँगने से कुछ भी मिलता नहीं, वे देते भी नहीं। पूर्वोक्त रीति
से स्व-पुरुषार्थ से यथेष्ट सब कुछ मिलता है, उसे माँगना नहीं पड़ता। फलवान् वृक्ष का आश्रय लेने वाले को छाया और फल स्वतः मिलते हैं, वृक्ष से कुछ भी याचना करनी नहीं पड़ती।
वीतराग अरिहन्त किसी कार्य के कर्ता या कारण नहीं होते अरिहन्त राग-द्वेष से रहित-वीतराग होते हैं. वे किसी कार्य के कर्ता या उपादान-कारण नहीं होते, इसलिए आराधक के प्रति उनकी इच्छा, बुद्धि या प्रत्यक्ष प्रेरणादि भी नहीं होती। आराधक जब अरिहन्त की उपर्युक्त प्रकार से १. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ११०
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