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* मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * २९ *
यथाख्यातचारित्र प्राप्त महापुरुष का स्वरूप और उसकी दो कोटियाँ इस भूमिका में चारित्र भी सर्वोच्च कोटि का स्वरूपरमणरूप यथाख्यात होता है। इस यथाख्यात चारित्र वाला सयोगी केवली (जीवन्मुक्त) महापुरुष किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रतिबन्ध से रहित होकर जिस प्रकार के शुभाशुभ कर्म का उदय होता है, तदनुसार स्वरूप-स्थिति में भस्म होकर विचरता है। इसीलिए कहा गया था-"द्रव्य-क्षेत्र-प्रतिबन्ध बिन, विचरे उदय प्रयोग जो।" ऐसे महापुरुष के एक ही अमृतमय दृष्टिपात से जगत् धन्य और निहाल हो जाता है, उसकी एक ही आवाज जनता में अद्भुत चेतना फूंक देती है।
इस तेरहवें गुणस्थान में स्थित परम पुरुषों की दो कोटियाँ होती हैं-विशेष और सामान्य। तीर्थंकरों को विशेष कोटि में और तीर्थंकरेतर सामान्य केवलियों की कोटि में परिगणित किया गया है। __इस तेरहवें गुणस्थान में पहुँचे हुए दोनों प्रकार के महापुरुषों (तीर्थंकरों और सामान्य केवलज्ञानियों) को अपना आयुष्य पूर्ण होने के पश्चात् पुनः जन्म धारण नहीं करना पड़ता। वे अपुनर्भवदशा प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए कहा गया है"आयुष्यपूणे मटी ए दैहिक पात्र जो।" गीता भी इस तथ्य का समर्थन करती है“ऐसी परम संसिद्धिं (मुक्ति) को प्राप्त महान् आत्माओं को परमात्मपद प्राप्त हो जाने पर पुनः विनश्वर और दुःखों के धामरूप संसार के जन्म-मरण के चक्र में फिर नहीं जुड़ना (फँसना) पड़ता। क्योंकि कर्मबन्ध होने के कारण रहने पर ही बन्ध का पथ खुला रहता है, सकल कर्मों का सर्वथा विच्छेद होने पर फिर बन्ध बिलकुल नहीं होता, भवभ्रमण का अन्त होकर मोक्ष का पथ खुल जाता है।"
शरीरादि के साथ स्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं,
___ नया देह धारण करने की योग्यता समाप्त . . ऐसे महापुरुषों का शरीर अपने आप (आयुष्य पूरा होकर) न छूटे, वहाँ तक शरीर की सभी स्वाभाविक अनिवार्य क्रियाएँ, जैसे-आहार, विहार, निहार, विराम, वाणी-उच्चारण, मौन या निराहार आदि विभिन्न क्रियाएँ भले होती रहें, वे इस भूमिका में बिलकुल बाधक या कर्मबन्धक नहीं हैं, क्योंकि क्रियाएँ करते हुए भी ऐसी आत्माओं की रस वृत्ति आत्मा में है, पुद्गल में नहीं। इसीलिए अन्त में समस्त कर्म झड़ जाते हैं और पुनः देह-पात्रता = देह धारण करने की योग्यता मिट जाती है।
१. इस प्रकार की कर्मबन्ध के अयोग्य क्रियाएँ ऐपिथिकी कहलाती हैं। ऐर्यापथिकी क्रिया से निष्पन्न कर्म पहले समय में लगता है. दूसरे समय तक टिकता है और तीसरे समय में छूट
जाता है। २. (क) 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. १३१, १३४-१३५
-सं.
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