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* २८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
बनते हैं। यद्यपि उक्त (भासक सिद्ध) साधक का जब तक आयुष्य कर्म बाकी है, तब तक उसे जगत् में टिकाये रखता है। किन्तु पहले जो आयुकर्म देहमू कारक था, वही अब जगत् को पावन करने वाले कल्याणसूत्र बरसाने, शुद्ध धर्म का मार्गदर्शन करने की कृपा तथा लोकोपकारकता में निमित्त बनता है। इसी प्रकार नामकर्म और गोत्रकर्म, जो केवलज्ञान से पूर्व देहभान, देहाध्यास और देहाभिमान का पोषण करने में निमित्त बनते थे, वे अब आत्म-भानकारक और प्रभुतादर्शक बनते हैं। अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान होकर उच्च भूमिका में जब आत्मा स्थित हो जाती है, तब ये दोनों कर्म अपना स्थान (कार्य) बदलकर लोकोपकारकता में अपना भाग अदा करते हैं। वेदनीय कर्म में जहाँ पहले नित्य निजानन्द स्वरूप आत्मा को सुख या दःख का बार-बार भावावेशपूर्वक वेदन (Feeling) होता था। वेदन करते समय भेदविज्ञान परिपक्व न होने से कष्टों की अनुभूति, देहासक्ति के कारण अशान्ति महसूस होती थी, वहाँ अब सिर्फ समभाव का वेदन होता है, जो बन्धकारक नहीं है। इस पर से यह स्पष्ट है कि सभी कर्मों का बन्धन सापेक्ष है। कर्मबन्धन के कारण (या अपेक्षा) हट जाने के पश्चात् इन चार अघातिकर्मों के बन्धन भी एक तरह से मुक्ति के कारण (साधन) वन जाते हैं। अर्थात् ये चारों भवोपग्राही अघाति कर्मावरण बाधक के बदले साधक और सहायक बन जाते हैं। देह रहने तक ये चारों कर्म रहते हैं, अर्थात् देहरूपी अन्तिम वस्त्र फट न जाय (पूरा न हो) वहाँ तक ये चारों कर्म रहते हैं। इसीलिए पद्य में कहा गया है-“ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छ।" बाद में तो कबीर साहब की उक्ति के अनुसार 'ज्यों की त्यों धर दीनी चादरिया' वाली स्थिति हो जाती है और शरीर अपने आप छूट जाता है। इस उच्चतर भूमिका में साधक की देहातीत दशा ___ इस भूमिका के साधक की स्थिति ‘देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत' जैसी हो जाती है। ऐसी दशा होने से वहाँ जो भी कुछ क्रिया होती है वह अनासक्तभाव से होती है, जैसे सूखी धूल का पिण्ड भींत पर फेंकने से वहाँ चिपकता नहीं, अपितु वापस गिर जाता है, वैसे ही उस प्रकार का कोई भी कर्म इस निर्लिप्त भूमिका वाले साधक के चिपके बिना ही खिर जाता है। इन चार कर्म-पुद्गलों की स्थिति भी भरे हुए बादलों जैसी तुरन्त बरस (खिर) जाने जैसी होने से उनके द्वारा आत्मा पर आवरण (प्रदेशोदय होने पर) दो समय से अधिक टिका नहीं रहता।
१. (क) 'सिद्धि के सोपान के आधार पर. पृ. १३०-१३२
(ख) देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत। ते ज्ञानीना चरणमां....... (ग) अपूर्व अवसर, पृ. १३० (घ) “सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १३०-१३१
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