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* ८६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
मुमुक्षुजन पुरुषार्थ करते हैं. उनके प्रति विनम्रता प्रकट करना तथा शक्ति को न छिपाकर स्वयं समर्पित . होकर इन गुणों के प्रति यथाशक्ति पुरुषार्थ करना, विनय = विनयाचार है। विनय के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन. काय और लोकोपचार यो सात भेद हैं। कर्मविज्ञान ने पूर्वोक्त सात भेदों का तथा प्रकारान्तर से. लोकोपचार विनय के तेरह तथा इन तेरह के प्रति अनाशातना, भक्ति, बहुमान और गुणगान के कारण ५२ भेदों का स्वरूप और इनका विशद निरूपण भी किया है। विनय के इन सात मुख्य भेदों के प्रति सर्वात्मना समर्पित हो जाना, इनका स्वरूप भलीभाँति समझकर सक्रिय रूप से आचरण करना ही संवर, निर्जरा और पुण्य के अर्जन करने का उपाय है। वैसे गहराई से देखें तो विनय तप समस्त गुणों का, गुणों को उपार्जित. करने का, सम्यग्ज्ञान, सम्बग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र को प्राप्त करने का, संवर-निर्जरारूप धर्मवृक्ष के मोक्षफल प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है।
इसके पश्चात् आत्मा की, आत्म-गुणों की अधिकाधिक शुद्धि, अहंत्व-ममत्व के विसर्जन, इच्छाओं-महत्त्वाकांक्षाओं का निरोध करने तथा आत्मौपम्यभाव से स्वकीय आत्महित की भावना से सम्यग्दृष्टिपूर्वक सेवा-साधना करने के लिए वैयावृत्य तप अत्यन्त उपयोगी एवं मुमुक्षुजनों के संवर-निर्जरारूप धर्मोपार्जन के लिए आवश्यक है। तदनन्तर कर्मविज्ञान ने समाज के विविध घटकों में परस्पर उपकारदृष्टि से की जाने वाली सेवाओं और वैयावृत्य का अन्तर स्पष्ट किया है। ये सब समाज-राष्ट्रादि की सेवाएँ पुण्यबन्ध की कारण हैं, जबकि वैयावृत्य तप पूर्वोक्त उद्देश्य की दृष्टि से सम्यग्दृष्टि एवं मोक्षलक्षी भावना से किये जाने के कारण निर्जरा (आत्म-शुद्धि) का कारण है; क्योंकि द्रव्य
और भाव मे अपना (अपनी आत्मा का) और दूसरों (आचार्य आदि दशविध उत्तम पात्रों) का उपकार करना, धर्मदृष्टि से उपग्रह करना, गुणानुरागवश सेवा शुश्रूषा, श्रम-अपनयन, खेद-अपनयन, शान्तिकारण और समाधिकारण; इन पाँच प्रक्रियाओं से अम्लानभाव से भक्तिभावपूर्वक आचरण करना वैयावृत्य तप है, जो मुख्यतया निर्जरा का तथा गौणरूप से पुण्य का कारण है। तत्पश्चात् वैयावृत्यकर्ता की हार्दिक भावना तथा वैयावृत्यकर्ता की पाँच विशेषताओं (पंचविध गुणरूप अर्हताओं) का विवेचन किया है। भगवती आराधना' के अनुसार वैयावृत्य से १८ गुणों की प्राप्ति तथा शास्त्रोक्त त्रिविध वैयावृत्य की आत्म-वैयावृत्य में गतार्थत
चयदृष्टि से वैयावृत्य तप तब होता है, जब मुमुक्षुसाधक लोकषणादि से विरक्त होकर शुद्धोपयोगपूर्वक शम-दम-समरूप आत्म-स्वभाव में प्रवृत्त होता है। तभी पूर्वोक्त दशविध उत्तम पात्रों की वैयावृत्य से साधक महानिर्जरा और महापर्यवसानता से युक्त होता है। जब मुमुक्षु वैयावृत्यकर्ता काया से उत्तम पात्रों की निष्काम निःस्वार्थभाव से सेवा करता है; वचन से सेव्य गुणीजनों के आत्म-गुणों की प्रशंसा-अनुमोदना करता है तथा अन्तर्मन को आत्म-गुणों के प्रति जोड़ता रहता है, इस प्रकार उसके तीनों योग एकरूप होकर आत्म-गणों को वद्धिंगत करने का वीर्योल्लास (पराक्रम) प्रगट करते हैं, तब वह वैयावृत्य आभ्यन्तर तपरूप में परिणत होता है। वैयावृत्य में पर-उपकार करने का विकल्प न होकर सहजभाव से उपकार होता रहता है। वैयावृत्य का अवसर मिलने पर वैयावृत्यकर्ता के अन्तर्मन में आल्हाद की अनुभूति, सेव्य के प्रति कृतज्ञताभाव, आत्मलक्ष्यी दृष्टि, समर्पित वृत्ति तथा इच्छाओं के निरोध से प्रसन्नता होती है और ऐसी मनःस्थिति में वैयावत्य करता है, तो वह वैयावत्य तप अतिदष्कर होने से कमों की निर्जरा, महानिर्जरा तथा सर्वकर्ममुक्ति का कारण बनता है। वास्तव में वैयावृत्य करने से तीर्थंकर पद या मुक्ति और अनन्त आत्मिक ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। अतः वह अपनी आत्मा का ही कर्तव्य-दायित्व या कार्य है। अन्त में व्यवहार में आत्म-वैयावृत्य और पर-वैयावृत्य से सम्बद्ध शास्त्रोक्त आठ शिक्षाओं का निरूपण किया गया है। कर्मों से शीघ्र मुक्ति : स्वाध्याय और ध्यान तप की साधना से
प्रायश्चित्त, विनय एवं वैयावृत्य तप से अहंत्व-ममत्व का विसर्जन करने पर आत्म-शुद्धि कितनी मात्रा में हुई है, उसका निरीक्षण-परीक्षण करने तथा अन्तःकरण का आत्म-शुद्धि में तथा शुद्ध आत्म-स्वभाव में
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