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* ९४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
चार-चार पाद, लक्षण, आलम्बन, प्रकार तथा अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख करके उन पर विश्लेषण किया गया है। अन्त में शुक्लध्यान के चार भेदों से उत्तरोत्तर योगनिरोध होते-होते अयोगसंवर प्राप्त होता है, फिर मोक्ष और निर्वाण-पद की प्राप्ति का निरूपण किया गया है। जैनदृष्टि से-मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ?
संसार भी एक प्रकार का भाव-बन्धन है. उससे छूटना मोक्ष है। भौगोलिक संसार यहाँ संसार नहीं है, .. किन्तु कामनाओं का हृदय में निवास संसार है, जिनसे कर्मबन्ध होकर जन्म-मरणादि करने पड़ते हैं। जब । तक कर्म रहेंगे. तब तक संसार है और कर्मों का सर्वथा अभाव मोक्ष है। कर्मों से आत्मा स्वयं ही बँधा है. इसलिए स्वयं ही उन बन्धनों को तोड़कर मुक्त हो सकता है। अतः बन्ध और मोक्ष स्वयं जीव (आत्मा) के . हाथ में हैं। दूसरा कोई न तो बाँधता या बाँध सकता है और न ही मुक्त करता या कर सकता है। ___ बुद्धिजीवी, अज्ञानी एवं शरीरवादी लोगों की मोक्ष के विषय में ऊटपटांग कल्पनाओं का तथा स्वर्गवादी लोगों के कुतर्कों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करके उनका अकाट्य युक्तियों और प्रमाणों से खण्डन किया है। वस्तुतः मोक्ष अशरीरी अवस्था है। शरीरादि से, कर्मों से तथा जन्म-मरणादि दुःखों से सर्वथा मुक्त व संसार में पुनः आवागमन से बिलकुल रहित दशा का नाम मोक्ष है। उसमें शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों से कोई लेना-देना नहीं है। मुक्त आत्माओं का अव्याबाध-सुख (परमानन्द) तो वास्तविक. आत्मिक. शाश्वत और स्वाधीन सख है। मोक्ष के पर्यायवाची निर्वाण शब्द के बौद्धदर्शनमान्य अर्थ का निराकरण करके जैनदर्शनमान्य निर्वाण का अर्थ और फलितार्थ किया है, आत्मा द्वारा अपने समग्र अस्तित्व को अव्याबाधरूप से प्रकट कर लेना, आत्मा को परमात्मा (परम शुद्ध आत्मा) बना लेना। फलितार्थ है-आत्मा को ही समग्र रूप से जानना-देखना और आत्मा में ही सर्वतोभावेन रमण करना-रहना। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में मोक्ष के लिए निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र. क्षेम, शिव और अनाबाध इत्यादि पर्यायवाचक शब्दों का उल्लेख किया है। सकल कर्मों के क्षय हो.जाने पर आत्मा को कभी नष्ट न होने वाली आत्यन्तिक सुख-शान्ति या शाश्वत स्वस्थता प्राप्त होना निर्वाण है। साधना की पूर्णाहुति हो जाने के कारण इसे सिद्धि कहा जाता है। लोक के अग्रभाग में है, जहाँ क्षेम कुशल..शिव और अनाबाधता है तथा वह स्थान भी दुष्प्राप्य है। भयादि बाधाओं से सर्वथा रहित है। मोक्ष के इस लक्षण पर से सांख्य, नैयायिक-वैशेषिक दर्शन-मान्य मोक्ष के लक्षण का निराकरण हो जाता है. जो नौ आत्म-गणों का तथा सख व ज्ञानादि का मोक्ष में सर्वथा उच्छेद मानते हैं। योगवाशिष्ठ कर्मबन्ध के ५ कारणों में सिर्फ वासनाओं (इच्छाओं) के नाशरूप एक कारण को ही मानता है, अद्वैत वेदान्त में कहा गया है कि आत्मा न तो कभी बन्धन में पड़ता है और न कभी मोक्ष प्राप्त करता है। ज्ञान ही स्वयं मोक्ष है। ब्रह्मवेत्ता स्वयं ब्रह्म है। अविद्या ही एकमात्र बन्ध का कारण है। वल्लभाचार्य, रामानुज तथा निम्बार्क आदि भक्तिमार्गीय आचार्य मोक्ष के लिए ईश्वर-कृपा, दास्य-भक्ति और ब्रह्म के ज्ञानमात्र को मोक्ष-प्राप्ति के कारण मानते हैं। अरविन्दयोगी व्यक्तिगत मोक्ष को मोक्ष नहीं, समष्टिगत मोक्ष को ही मोक्ष मानते हैं। कर्मविज्ञान ने जैनदृष्टि से इन सब का युक्तियों और प्रमाणों सहित निराकरण किया है। निष्कर्ष यह है कि जैनदृष्टि से आत्मा का स्वरूप में अवस्थान भावमोक्ष है और कर्मों से सर्वथा पृथक्त्व द्रव्यमोक्ष है। वह कोई स्थान-विशेष नहीं. मुक्तात्मा की परम पवित्र शुद्ध अवस्था या स्थिति के कारण उसे सिद्धालय या मोक्ष कह दिया गया है। मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप
मोक्ष के अध्यात्म-यात्री को यात्रा प्रारम्भ करने से पहले उसके मार्ग और मंजिल का भलीभाँति निर्णय करना आवश्यक है। पिछले निवन्ध में मंजिल (मोक्षरूप) का तो निर्णय हो गया, इस निबन्ध में मोक्षमार्ग के निर्णय से सम्बन्धित चिन्तन प्रस्तुत किया है। सूत्रकृतांगसूत्र में मोक्ष को प्रशस्तभावमार्ग कहकर ‘मार्ग' नामक अध्ययन में उसका सांगोपांग विश्लेषण किया गया है। जिससे आत्मा को समाधि और शान्ति प्राप्त हो. वही यथार्थ भावमार्ग है, जोकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप. इन चारों के समायोग से युक्त है, वही मोक्षमार्ग है। इस प्रशस्त भावमार्ग की पहचान के लिए नियुक्तिकार ने इसके १३ पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया है। तीर्थंकरदेव इस निर्वाणमार्ग को ही परम (श्रेष्ठ) पद, आश्वासनदायक एवं विश्रामभूत द्वीप. मोक्ष-प्राप्ति का
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