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कर्मविज्ञान : भाग ९ का सारांश
सर्वकर्ममुक्त परमात्मपद : स्वरूप और प्राप्त्युपाय
मोक्ष के निकटवर्ती परमात्मपद के सोपान
दशम सोपान : उच्चकोटि की विशुद्ध एवं पूर्ण समता की प्रतीति के चार चिह्न - संज्चलन के कषाय-चतुष्टय पर पूर्ण विजय की पूरी प्रतीति क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में हो जाने के पश्चात् उसके प्रत्यक्ष परिणाम की पहचान के लिए चार लक्षण साधक में होने आवश्यक हैं - (१) शत्रु और मित्र इन दोनों विरोधात्मक व्यक्तियों के प्रति समदृष्टि ( एक-सी अमृतदृष्टि) हो, (२) सम्मान और अपमान दोनों स्थितियों में सहजरूप से समता टिकी रहे, (३) जीवन रहे या मरण हो, इन दोनों दशाओं पर न्यूनाधिक भाव न आए-समभाव रहे, और (४) संसार और मोक्ष इन दोनों दशाओं के प्रति क्रमशः व्याकुलता और मोह पैदा न हो, शुद्ध स्वभाव रहे। संसारदशा में रहते हुए भी निर्लिप्तता से मोक्ष का आनन्द लूटने का अभ्यास हो ।
इस भूमिका का संसारदशापन्न साधक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, संयोगों, व्यक्तियों, क्षेत्रों आदि से वास्ता पड़ने पर सर्वत्र समभाव का दृढ़तापूर्वक परिचय दे, तभी समता की पराकाष्ठा वाली सीढ़ियों (वीतरागता के सोपानों) पर आसानी से आरोहण कर सकता है। ऐसे समतायोगी साधक की साधना नौका मोहसागर का किनारा देखती हुई शुद्धि, सिद्धि और मुक्ति: इन तीनों भूमिकाओं में से होकर सिद्धि के तट पर आ पहुँचती है। ऐसे साधक की दशा का दिग्दर्शन पूर्वोक्त पूर्ण समदर्शिता-समता के चार सूत्रों में दिया गया है। ऐसी उच्चदशा प्राप्त होने से पूर्व जो उसका शत्रु या विरोधी बना होता है, उसके प्रति भी उच्च साधक के अन्तर्हृदय में स्थित निःशत्रुभावना की प्रभावशाली किरणें शत्रु या विरोधी के हृदय 'देर-सबेर अवश्य ही स्पर्श करती हैं; तथापि यदि विरोधी माने जाने वाले व्यक्ति का व्यवहार विश्वबन्धु साधक के प्रति शत्रुतापूर्ण रहे, तब भी सहज समता का उसका आसन डोले नहीं, विश्वास पक्का रहे । समग्र शत्रुबल को लेकर आए उसके प्रति भी मित्रवत् अकृत्रिम व्यवहार रहे। तभी समझा जायेगा कि इसकी समभाव की दशा की पराकाष्ठा की यह भूमिका है।
आचारांगसूत्र में भगवान महावीर की समदर्शिता की पराकाष्ठा पर पहुँचने की झाँकी दी है। गोशालक, जमाली या अन्य कई साधकों ने भगवान महावीर के प्रति अनिष्ट कदम उठाए फिर भी वीतरागभाव से उन्होंने मैत्री का हाथ बढ़ाया। अपनी अनन्त उदारता और अहेतु की करुणा का परिचय दिया। इसी प्रकार वीतरागतालक्ष्यी साधक के रग-रग में शत्रु और मित्र पर सम्मान और अपमान में, जीवन और मरण में तथा संसार और मोक्ष के प्रति निष्कम्प, अविचल, सघन और स्वाभाविक समता कूट-कूटकर भरी होनी चाहिए। इन चारों समतासूचक तथा समत्व - परीक्षक द्वन्द्वों की उपस्थिति में साधक की विविध रूप से होने वाली अग्नि परीक्षा में वह कैसे समत्व के अविचल ध्यान में टिका रहे ? इन तथ्यों का युक्ति-प्रयुक्तिपूर्वक समताविज्ञान के नियमों के माध्यम से प्रतिपादन किया है। इन चारों ही अवस्थाओं में साधक अपने शुद्ध स्वभाव में स्थिर रहे, ऐसी पूर्ण आत्म-स्थिरता उसमें होनी चाहिए। सिद्धि के तट पर पहुँची हुई साधक की जीवन- नौका जरा-सी गफलत, चूक या असावधानी से डूब सकती है। अतः ऐसे समय में पहले से ज्यादा सावधान रहने की आवश्यकता होती है। तात्पर्य यह है कि भवसागर में तैरते हुए, जब किनारा दिखाई देने लगे, तब न तो किनारे जल्दी पहुँचने का मोह पैदा हो और न ही तैरने में शिथिलता, अरुचि या अनुत्साह हो । ऐसे समय में अनासक्तिमय आत्म-भावों में तल्लीन रहना ही अभीष्ट है।
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