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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * १३७ *
है, उसके अन्दर नहीं प्रविष्ट हो सकती, वैसे ही स्फटिक सम निर्मल चैतन्य मूर्ति आत्मा पर भी कर्मरूपी धूल (रज) पड़ी होने पर भी वह शुद्ध आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकती । यों जानकर दृढ़ निश्चय के साथ प्रतीति करे तो ज्ञानानन्द स्वभावरूप शुद्ध आत्मा की अनुभूति होती है। इसी प्रकार आत्मा को रागादि विभावों (विकारों), विकल्पों और परभावों से निर्लिप्त जानकर, अतीन्द्रिय ज्ञान-दर्शनरूपी नेत्रों से (इन्द्रियों द्वारा नहीं) उसे शुद्ध रूप में जानने-देखने का सतत अभ्यास करे तो शुद्ध स्वभावनिष्ठा सुदृढ़ हो जाती है । इसके लिए आवश्यक है - परभावों और विभावों के प्रति सतत उदासीनता, उपेक्षा और विरक्ति की । यह अनुप्रेक्षण करे कि मैंने पूर्व-भवों तथा इस भव में भी शरीरादि निमित्तों को खूब जाने, अपने मानने, परन्तु उपादानरूप आत्मा स्वभाव को नहीं जाना, न ही अपना माना। अब परभावों-विभावों से प्रति सतत उदासीनता रखने से स्वभाव में निष्ठा होगी। निरन्तर उदासीनता का क्रम रखे बिना स्वभावनिष्ठा की भूमिका सुदृढ़ नहीं होगी। बीच में जरा-सा प्रमाद का झोंका आया कि आत्मा परभावों और विभावों की ओर लुढ़क जायेगी, विरक्ति और उदासीनता का क्रम टूट जायेगा।
देहधारी मानब खाना-पीना आदि शारीरिक क्रियाएँ करते समय, इन्द्रिय-विषयों का यथावश्यक सेवन तथा पर-पदार्थों का भी यथावश्यक उपयोग करते समय उनके प्रति प्रियता अप्रियता, मनोज्ञता-अमनोज्ञता, शुभ-अशुभ या राग-द्वेष, आसक्ति घृणा, हीनता-दीनता या उच्चता- नीचता के भाव न रखकर केवल ज्ञाता-द्रष्टा, उदासीन, विरक्त एवं तटस्थ बनकर समभाव में रहता है तो अपने ज्ञान दर्शनमय स्वभाव में आत्मा को स्थिर रख सकता है। पास में पर-पदार्थों के रहते हुए तथा उनका यथोचित मर्यादा में उपभोग करते हुए भी यदि उपभोग के क्षणों में राग-द्वेषात्मक परिणाम या भाव नहीं है, मन में आसक्ति, स्वादलिप्सा, तृष्णा या पाने की लालसा नहीं है तो वह साधक उदासीन एवं विरक्त रह सकता है। इस प्रकार आत्म-भावों में स्थिर रहने वाला साधक संसार में रहता हुआ भी संसार के बंधनों में नहीं फँसता । शरीर में रहकर भी शरीर की ममता - मूर्च्छा के कारागार में नहीं बँधता; परिवार, समाज और राष्ट्र में रहता हुआ भी अपने मूल आत्मारूपी घर को नहीं भूलता। भरत चक्रवर्ती, जनकविदेही आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। जिस साधक की आत्मदृष्टि स्थिर हो जाती है, वह न बाह्य पदार्थ के प्रलोभन में फँसता है, न ही रागादि विभाव उस पर हावी हो सकते हैं और न उस जागरूक और अप्रमत्त को किसी प्रकार का मोह, काम, क्रोधादि घेर सकते हैं। वह इसी नीति पर चलता है - संसार में तुम भले ही रहो, परन्तु संसार तुम्हारे में न रहे। जल में नाव भले ही चले, नाव में जल नहीं जाना चाहिए। वह कुटुम्ब, परिवार, घर-बार, धन-सम्पत्ति आदि के बीच रहता हुआ भी संसार को अपना घर नहीं समझता तथा सभी सजीव-निर्जीव परभावों से अनासक्त और अलिप्त रहता है। इन सबको वह क्षणित कर्मजनित सम्पर्क मानता है।
ऐसा मुमुक्षु सिद्ध- परमात्मा के साथ आत्मिक सम्बन्ध जुड़ जाने पर इस तथ्य को हृदयंगम कर लेता है। कि मेरा घर तो शाश्वत मोक्ष है, सिद्धालय है। सिद्ध-प्रभु का जो अनन्त ज्ञानादि चतुष्टययुक्त स्वभाव है,
मेरा स्वभाव है। सिद्ध भगवान का अनन्त ज्ञानादि गुणरूप धन ही मेरा धन है। इस प्रकार उसकी दृष्टि, रुचि, मान्यता और लक्ष्य बदल जाती है कि संसार के पुण्य-पाप, शरीरादि पर भाव या रागादि विभाव मेरे नहीं, मैं तो शुद्ध सच्चिदानन्दघनरूप सिद्ध-परमात्म-स्वभावमय आत्मा हूँ। इसके पश्चात् वह आत्मा तीन या चार अथवा सात या आठ भव तक रहती है, तो भी वह संसार से निर्लिप्त, विरक्त-सा रहता है। सूर्य का प्रकाश होते ही जैसे सघन से सघन अन्धकार मिट जाता है, वैसे ही स्वभाव में स्थिरता के सम्यग्ज्ञान का प्रकाश होते ही अज्ञान, मिथ्यात्वादिरूप सघन अन्धकार मिट जाता है। अज्ञानी जीव पहले संसाररूपी कारागृह में रहने में तथा जन्म-मरणादि के भयंकर कष्ट सहने में मोह-ममत्ववश आनन्द मानता था, अब सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्त्व का प्रकाश होते ही स्वभावरूपी घर में लौटने तथा स्वभाव में स्थिरता करने में परभाव-बन्धन से मुक्ति और परमात्मभाव-प्राप्ति में आनन्द मानता है। जैसे- काफी लम्बे समय तक अर्धनिद्रित अवस्था में चलने वाला स्वप्न मनुष्य के जाग्रत होते ही गायब हो जाता है, वैसे ही अनादिकाल से विभाव में रमण करने के संस्कार भी सम्यग्ज्ञान का प्रकाश होते ही क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। फिर वह सम्यग्ज्ञान दृष्टिमान् आत्मा स्व-स्वभाव में परिणत होने लगती है, फिर धीरे-धीरे स्वभाव में दृढ़ता से स्थिर होते ही वह परमात्मपद को प्राप्त कर लेती है।
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