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* २२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
समल नाश करने की परिपाटी के पथ पर पहुँचकर अनन्त शुद्ध स्वभाव के अविच्छिन्न धाराप्रवाही चिन्तन का आनन्द लूट सकता है। उपशमश्रेणी में प्रविष्ट होने पर पतन अवश्यम्भावी क्यों ?
प्रश्न होता है-इतनी उच्च भूमिका तक आने के बाद भी उपशमश्रेणी में प्रविष्ट होने पर अवश्यमेव पतन क्यों होता है ? इसका समाधान यह है कि ऐसे साधक की चारित्र-शुद्धि के मूल में ही भूल होती है। जैसे बिना नींव की इमारत चाहे जितनी आलीशान हो, टिक नहीं सकती, वैसे ही मूल की अशुद्धि पर चाहे जितनी उच्च भावनाओं का महल खड़ा किया जाए, वह स्थायी नहीं रह सकता। मौलिक अशुद्धि रहने का कारण तो प्रबल सत्ता, प्रबल सामर्थ्य, प्रबल कालस्थिति और प्रबल रस-संवेदन वाला मोहराज है। वह साधक के समक्ष ऐसा दृश्य खड़ा कर देता है, मानो मोह बिलकुल निर्बल और क्षीणप्राय हो गया हो और साधक की. भोली आत्मा उस (मोह) के दम्भ का शिकार बन जाती है तथा अप्रमत्तता (सावधानी) का दौर खो बैठती है। मगर क्षपकश्रेणी के योग्य बना हुआ साधक विवेक-सम्पन्न और श्रद्धा-सम्पन्न होता है। अर्थात् ज्ञान और क्रिया का सुन्दर समन्वय उसके जीवन में होता है। अपूर्वकरण की अवस्था के बाद चैतन्य प्रकाश का अतीन्द्रिय अनुभव __अपूर्वकरण भाव की अवस्था के बाद चेतना के प्रकाश का जो अनुभव होता है, वह (आत्मानुभव) इन्द्रियगोचर नहीं होता, अतीन्द्रिय होता है। इस अनुभव से पैदा होने वाली रसिकता भी अतीन्द्रिय होती है। दूसरा साक्षात्कार भी चिन्तन का यानी अनन्य चिन्तन का कारण है। उसके पीछे आत-रौद्रध्यान की कलुषितता नहीं, अपितु धर्म-शुक्लध्यान की सुन्दर पीठिका (पृष्ठभूमि) है। इसलिए इस चिन्तन का विषय अनात्मभाव कदापि नहीं हो सकता, केवल अतिशय शुद्ध आत्मा की वहाँ अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) अनुभूति होती है।
१. यद्यपि ऐसा साधक इतना नीचे गिरकर भी अमक काल तक उसी अवस्था में रहता है, फिर
भी किसी एक निमित्त को पाकर किसी एक भव में पूर्व स्मृति उद्बुद्ध हो उठती है और वह पुनः साधना शुरू किये बिना रह ही नहीं सकता। क्योंकि इतनी हद तक चढ़ने के बाद
पथभ्रष्ट हुआ जीव सामान्य शक्ति वाला नहीं होता। २. (क) 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. १०२-१0४ ।
(ख) देखें-विशेष विवरण के लिए गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), कर्मग्रन्थ आदि ग्रन्थ ३. आतम-अनुभवरसिक की नवली कोऊ रीत। नाक न पकड़े वासना, कान गहे न प्रतीत॥
-योगी आनन्दघन जी ४. आर्त और रौद्रध्यान दोनों में से आर्तध्यान अधिक से अधिक छठे गुणस्थान तक, ७वें में
सिर्फ धर्मध्यान तथा ८वें से १२वें गुणस्थान तक धर्म-शुक्लध्यान और १३वें गुणस्थान में सिर्फ शुक्लध्यान ही होता है।
-सं.
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