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* १३६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
उसे दूर करने के लिए परमात्मदशा को अभिव्यक्त (प्रकट) करने का सुअवसर इस मनुष्य-जन्म में, मनुप्व-शरीर में ही है। फिर वह आत्मा के प्रति तीव्र रुचिपूर्वक सत्पुरुषों के समागम से, सुशास्त्रों के स्वाध्याय से, आत्मध्यान-चिन्तन से आत्मा के परमात्म-सम शुद्ध स्वभाव की पूर्वोक्त रूप से भलीभाँति पहचान कर लेता है। फिर उसके प्रति दृढ़ श्रद्धा, दृढ़ प्रतीति, तीव्र रुचि और तड़फन से भावितात्मा हो जाता है कि मैं अनन्त चतुष्टय गणों से सम्पन्न स्वाभाविक तत्त्व (आत्मद्रव्य) हैं, क्योंकि मैं सिद्ध-परमात्मा की जाति का हूँ। सिद्ध-परमात्मा में कर्मोपाधि नहीं है, वैसे मैं भी कर्मोपाधि से रहित हूँ। निश्चयदृष्टि से तो मैं भी संकल्प-विकल्प रागादि उपाधियों से रहित हूँ। सिद्ध-परमात्मा की आत्मा जितनी महान् है, उतनी ही महान् मेरी आत्मा है। मेरी अन्तरंगदशा भी परमात्मा के समान है। इस प्रकार जो पूर्णता की प्रतीति करके अन्तरात्मा में भाव से सिद्ध-परमात्मा को स्थापित कर लेता है; उसमें राग-द्वेषादि विभाव और स्वभाव रमण की अस्थिरता बहुत कम रह जाती है। ‘परमानन्द पंचविंशति' के अनुसार उसका सहजानन्द ज्ञानघन चैतन्य परमात्मा के समान महान रूप में प्रकाशित (प्रकट) हो जाता है। साधक जब यह दृढ़-निश्चय कर लेता है कि (मानव) आत्मा में से ही परमात्म-शक्ति प्रकट होती है। आत्मा में परमात्मा बनने की यह शक्ति कहीं वाहर से, पर-पदार्थों से या किसो शक्ति या भगवान के देने से नहीं प्रकट होती, वह तो उसके भीतर ही भरी है. उसके स्व-पुरुषार्थ से ही अभिव्यक्त हो सकती है। जैसे पिप्पल में ६४ पहर तक घोंटने से, उसी में . से ही तीक्ष्णता-शक्ति प्रकट होती है, वैसे ही परिपूर्ण परमात्म-शक्ति से भरी आत्मा भी उसी के प्रति श्रद्धा, ' ज्ञान की एकाग्रता तथा शुद्ध (निश्चय) रत्नत्रय के सतत अभ्यास से अपने में परमात्म-शक्ति प्रकट कर सकती है। उसे यह दृढ़ प्रतीति अभेद ध्रुवदृष्टि के रूप परमार्थदृष्टि (अभेद ध्रुवदृष्टि) होने से अन्यान्य शंका-कुशंका या विकल्प जाल उसके मन में उठते ही नहीं। उसे यह पक्का विश्वास हो जाता है कि मेरी आत्मा में वर्तमान में अनन्त चतुष्टय शक्तिरूप में विद्यमान हैं, उनकी अभिव्यक्ति एक न एक दिन अवश्य होगी। जैसे-अर्जुन मुनि, गजसुकुमार मुनि आदि मुमुक्षुसाधकों ने आत्मा और परमात्मा के स्वभाव-सादृश्य की अभेद ध्रुवदृष्टि रखी, फिर उन्होंने तीर्थंकर, गुरु आदि से मार्गदर्शन पाकर आत्मा के शुद्ध स्वभाव में सतत रत और स्थिर रहने तथा परभावों के ज्ञाता-द्रष्टा बने रहने का अभ्यास किया। फलतः वे शीघ्र ही स्व-स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष या परमात्मपद प्राप्त कर सकें। वैसे मैं भी इस प्रकार का स्वभाव में स्थिर रहने का निरन्तर अभ्यास करूँ तो मैं भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन सकता हूँ। .
अतः जो साधक आत्मा की विभिन्न पर्यायों पर दृष्टि न रखकर एकमात्र आत्म-द्रव्य पर अखण्ड ध्रुवदृष्टि रखता है। वह पर्यायों को जानता-देखता अवश्य है; परन्तु न तो उनका आलम्वन लेता है, न ही स्वभाव में रमण करने में सहायक होने की उनसे आशा-आकांक्षा रखता है। वह पूर्वोक्त विभावों (कषायादि विकारों) को अपने में आरोपित समझकर उन्हें नहीं अपनाता। कर्म प्राप्त शरीरादि परभावों पर राग-द्वेषादि से दूर रहता है, सिर्फ उनका ज्ञाता-द्रप्टा तथा साक्षी रहता है। फलतः वह आत्मा के शुद्ध स्वभाव एवं सच्चिदानन्दमय स्वरूप का ही सतत भान रखता है।
वास्तव में आत्मा के स्वभाव की या स्वरूप की या निजी गुणों की निश्चित प्रतीति होना ही परमात्मभाव की साधना का श्रीगणेश है। उसका सीधा और सरल उपाय है-उष्ण हो जाने पर भी पानी के मूल शीतल स्वभाव के अनुभव-ज्ञान की तरह विभावों से आत्मा के युक्त होने पर भी आत्मा के मूल स्वभाव, यथार्थ स्वरूप और निजी स्व-गुणों का कालिक अनुभव-ज्ञान होना निश्चित दृढ़ प्रतीति है। ऐसे मुमुक्षुमाधक की दृष्टि आत्मा पर लगी हुई अशुद्धता या औपाधिक अशुद्ध पर्यायों की ओर नहीं जाती, अपितु उसकी दृष्टि अशुद्धिरहित शुद्ध आत्मभाव को ही देखती है। अर्थात् ऊपर-ऊपर से होने वाले शुभाशुभ भावों के कारण शुद्ध स्वभावात्मक आत्मा को विकार भावात्मक न मानकर आन्तरिक मूल स्वरूप को वह देखता है। स्वभावमय आत्मा किसी कारणवश यदि परभावमय बन जाता है, उस समय मुमुक्षुसाधक सावधान होकर स्व-स्वभाव में लीन हो जाता है, स्वतः ही परभावों से मुक्त हो जाता है। कदाचित् परभाव में चले जाने पर भी अन्तर में उदासीनता हो, या तुरन्त सावधान होकर स्व-स्वभाव में लीन हो जाए तो वह द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों के बन्ध से छूट जाता है। जैसे स्फटिक मूर्ति पर पड़ी हुई धूल, ऊपर ही रहती
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