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* ६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
सुनने के लिए कानों पर कौन-सा ढक्कन लगाया जायेगा ? यद्यपि जो साधक आँखें मूँद की तरकीब जानता है, वह कान के दरवाजे भी बन्द करने की तरकीब जान पाता है । परन्तु स्वाभिमान को भी घोलकर पी जाने जैसी यह कला अत्यन्त आत्म-विलोपन (शून्यवत् बन जाने ) की भूमिका है । '
पूर्ण समदर्शिता का तृतीय चिह्न : जीवित और मरण में न्यूनाधिकता का अभाव
परन्तु सिद्धि के तट पर पहुँचे हुए साधक की दशा तो इससे भी ऊँची है। इसे बताने के लिए अगले चरण में कहा गया है - "जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता।” जीवित और मृत्यु इन दोनों के पीछे अनन्त जीवन का जिसे साक्षात्कार हुआ है, उसे ही ये दोनों अवस्थाएँ समान मालूम होती हैं। उसे न किसी में न्यूनता लगती है और न अधिकता। ऐसे साधक को जीवन और मरण केवल जिन्दगी के केन्द्र-बिन्दु को लक्ष्य में रखकर गति करने वाले एक सरीखे दो चक्र प्रतीत होते हैं। ऐसे साधक को वृद्धावस्था या क्षीण बनी हुई काया, जीर्णवस्त्र-सी प्रतीत नहीं होती। अपितु जीवन को मधुर आश्वासन और सहारा देने वाली सहचारिणी प्रतीत होगी । इस कारण उसे अपनी काया टिकी रहे तो भी उसका आनन्द कायम रहेगा और न टिकी रहे तो भी उसका आनन्द अखण्ड रहेगा । यद्यपि उसका वह शरीर जगत् के लिए अतीव उपकारक सिद्ध हुआ हो, उसके लिए जगत् यह चाहे कि यह शरीर चिरकाल तक रहे तो अच्छा तथा जगत् अथवा उसके भक्त उसके शरीर को चिरकाल तक टिकाये रखने के उपाय भी करना चाहें, परन्तु उस साधक पुरुष की स्वप्न में भी ऐसी कोई इच्छा नहीं होती; क्योंकि इतनी दूर पहुँच जाने पर मृत्यु भी तो उसके लिए भवचक्र का अन्तिम चक्कर है।
पूर्ण समदर्शिता का चतुर्थ चिह्न : भव और मोक्ष के प्रति शुद्ध
स्वभाववर्तिता
फिर भी इस जीवित (जीने के ) मोह के छूट जाने पर इस जीवन के बाद मोक्ष अतिनिकट हो जाता है। इस प्रकार का स्पष्ट निश्चय हो जाने पर भी जैसे वह जीवित की वांछा नहीं करता, वैसे ही शीघ्र मृत्यु की वांछा भी नहीं करता। यदि शीघ्र मृत्यु (समाधिपूर्वक) होने लगे, तब मृत्यु के बाद मोक्ष की वांछा न करे। इसके लिए कहा गया- “भवे-मोक्षे पण वर्ते शुद्ध स्वभाव जो ।'
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वस्तुतः देखा जाये तो मोक्ष जिसके सामने दौड़ता आ रहा हो, उसे मोक्ष की लिप्सा ही कैसे हो सकती है ? यों तो “कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव ।" इस सूक्ति में
१. 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ७८-७९
२. मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः ।
इस पंक्ति से मोक्ष और भव इन दोनों में निःस्पृह साधक को उत्कृष्ट मुनि कहा गया है। -सं.
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