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* १६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अर्थ में तप को लिया जाये तो कुम्भकर्ण को घोर तपस्वी कहा जाना चाहिए, क्योंकि वह छह महीने तक आहार किये बिना निद्रा के नशे में पड़ा रहता था। यह बात परोक्ष भूतकाल की होने से कदाचित् अविश्वसनीय हो तो साप्ताहिक 'मुम्बई समाचार' के ता. १८/१०/१९३६ के अंक प्रकाशित चिकागो की ३० वर्षीया युवती 'मेग्वीर प्रोटेशिया' की प्रत्यक्ष घटना लीजिये, जो चार मास तक निद्रामग्न रही। अतः ऐसी बाह्य तपस्या जो लेटे-लेटे या नींद लेकर की जाती हो अथवा जिस तप के पीछे अहंकार, मद, मत्सर, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष, उद्देश्यहीनता, दबाव, विवशता. अनिच्छा या बलाभियोग हो, ऐसा तप सम्यक् तप नहीं है, मोक्षमार्गसम्मत या कर्मक्षयकारक सकामनिर्जराकारक नहीं है। किसी बाह्याभ्यन्तर तपःकर्ता को ऐसा लगे कि मैं तप कर रहा हूँ या मैंने तपस्या की है, तो समझ लो उसको मन तप्त (संतप्त) हुआ बिना नहीं रहता। थोड़ा-सा निमित्त मिलते ही आवेश आ सकता है। किसी को कहे बिना या किसी भी प्रकार का प्रचार किये बिना भी मूक या मौन रहकर व्रत या उपवासों की तपस्या भी यदि विविधमूढ़ता, अन्ध-विश्वास या स्वार्थसिद्धि अथवा इहलोक-परलोक कीर्ति, यश, प्रशंसा, प्रतिष्ठा आदि के लिए की . गई तपस्या भी केवल लंघन या भूखे रहने के दोषों में परिगणित हो सकती है। तथ्य यह है कि किसी भी प्रकार की तपस्या के साथ कामनाजन्य संस्कार हों तो उनके क्षुब्ध होने पर मानसिक संक्लेश भी हो सकता है। अतः मन में जरा भी ताप न आने देना या ताप आये तो जड़मूल से उसका शमन कर देना, त्रिविध शल्यों में से कोई भी शल्य गहरा गड़ा हो तो उसे तुरन्त निकाल देना ही सम्यक् तप है। ‘भगवद्गीता' के अनुसार-“मन की प्रसन्नता, चित्त में सौम्यता, शुद्ध भाव, आत्म-संयम, मौन और भाव-संशुद्धि, यह मानस (आभ्यन्तर) तप सर्वोत्कृष्ट तप कहलाता है।" 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी कहा गया है-“तप से परिशुद्धि होती है।" ऐसी तपोवृत्ति सहसा बलात् लाने से नहीं आती। यह तो मुमुक्षु साधक के जीवन में धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से आती है। परन्तु ऐसी स्वाभाविकता लाने के लिए कायिक और वाचिक संयम का अभ्यास करना जरूरी है, यह बात पहले कही जा चुकी है। सरस अन्न मिलने पर संयम रखना अतिकठिन ___ ऐसे पूर्वोक्त संयम का जीवन में क्या परिणाम आता है ? इसके लिए कहा गया है१. न इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, न परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, न कित्ति-वण्ण-सहसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा।
-दशवैकालिक, अ. ९, उ. ४, सू. ४ २. मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। ___भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते॥ -भगवद्गीता, अ. १७, श्लो. १६ ३. तवसा परिसुज्झइ।
-उत्तराध्ययन
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