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* मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * ५ *
मान-अपमान की बात कही गई है, वह बहुत ही सूक्ष्म है। एक दिन सारी दुनिया जिसे एक स्वर से प्रभु मानकर हृदय से अभिनन्दन करती हो; जिसे महाप्रभु का अवतार मानती हो; इसी बीच दूसरे दिन कोई दूसरा शक्तिशाली व्यक्ति आकर सारी दुनिया का मानस बदल दे और उक्त तथाकथित पूर्व प्रभु की प्रतिभा को फीकी कर दे, फलतः उसी दुनिया के मुख से उस पर धिक्कार बरसने लगे, गालियों के पुष्पहार चढ़ने लगें। इन दोनों अवस्थाओं को समभावपूर्वक सह लेना, शल्य के समान तीक्ष्ण कील या भाले की नोंक पर अच्छी तरह नींद ले लेने जैसी बात है। किन्तु कुछ ऐसे माई के लाल आज भी मिल सकते हैं, जो समभावपूर्वक सह सकते हैं, रह सकते हैं। उनके आगे या पीछे का एक भी रोम कम्पित न हो; न तो इस (विरोध जगाने वाले) व्यक्ति के प्रति और न उस (विरोध के प्रवाह में बह जाने वाली) दुनिया के प्रति विषमभाव आये। ऐसी आत्म-स्थिरता के अडोल स्तम्भ का मर्त्यलोक में मिलना है तो अतिदुर्लभ ही, मगर अशक्य नहीं है।'
समभाव की उत्कृष्ट साधना का उपाय जिसके कान में केवल वीतराग परमात्मा की मधुर वाणी-बाँसुरी के स्वर के सिवाय कुछ भी सुनाई न देता हो। सुनाई देता हो तो भी जिसकी स्मृति उसे पकड़ न सकती हो, पर्कड़ भी सकती हो तो भी एक क्षण से अधिक वह शब्द टिकता न हो, इसी प्रकार सभी इन्द्रियाँ वीतराग परमात्मा के रंग में रंग गई हों, ऐसा व्यक्ति ही उपर्युक्त प्रसंग पर सम रह सकता है, दूसरों की बिसात नहीं। जब तक मन, बुद्धि, चित्त और हृदय आदि अन्तःकरण प्रभुमय न बन जाएँ तथा यह प्रभुमय . विज्ञान इन्द्रियों में न उतरे, वहाँ तक समभाव की ऐसी उत्कृष्ट साधना अधूरी है। __इस नैसर्गिक समताविज्ञान (आत्म-दर्शनविज्ञान) की साधना पहले से ही जिस साधक के द्वारा अभ्यस्त हो, सहज हो गई हो, वही निन्दा और प्रशंसा के सभी अंगों को जीत सकता है। अगर आप प्रशंसा का एक शब्द सुनने के लिए खड़े रहेंगे, तो आपको निन्दा के सौ शब्द सुनने के लिए खड़े रहने के अवसर आपकी
अभ्यस्त वृत्ति पैदा करेगी। कहा भी है- “प्रशंसा की खुशबू है आती, जहाँ से मनोहर औ मधुर ।
वहीं गर्भित है निश्चित समझो, निन्दा की बदबू अन्दर ॥" चक्रवर्ती के समपदस्थ व्यक्ति द्वारा किये गए वन्दन-नमस्कार न देखने के लिए कदाचित् उक्त लोकोक्ति के अनुसार आँखें मूंदी जा सकती हैं, परन्तु स्तुति वचन
१. दसवें पद्य से तुलना करें
लाभालाभं सुहेदुखे जीविए मरणे तहा। समो जिंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥
-उत्तरा. १९/७०
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