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* .१० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
यद्यपि ‘दशवैकालिक' और 'उत्तराध्ययन' में गुणाधिक या गुण में सम निपुण सहायक साथी साधु के न मिलने की स्थिति में कारणवश अकेला विचरण करने का विधान है। उस एकाकी साधु के लिए वहाँ दो अर्हताएं बताई गई हैं(१) समस्त पापों से विरत रहे, (२) कामभोगों के प्रति अनासक्त रहे। पूर्वोक्त दोनों निकृष्ट उद्देश्यों से एकाकी विचरण करने वाले साधक में इन दोनों अर्हताओं के अभाव में उक्त उद्देश्य या हेतु को प्राप्त नहीं कर सकेगा। एकाकी शब्द यहाँ एकान्तरूप से साधना करने के हेतु प्रयुक्त किया गया।
एक प्रश्न यह खड़ा होता है कि एकान्त में साधना करने के पीछे क्या प्रयोजन है? इसके उत्तर में निवेदन है कि उदात्त ध्येय की वफादारी के लिए एकान्त ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। एक बार लोकारूढ़ वातावरण से और स्थूल संगमात्र से अलग हुए बिना मौलिक विचार की भूमिका ही दुर्गम्य है और मौलिक विचार न जगे, वहाँ तक विश्व का मौलिक विज्ञान प्राप्त होना असम्भव है। ऐसी स्थिति में वीतरागभाव की स्थिति प्राप्त करना तो और भी दुष्कर है। एकाकी विचरण किसके लिए योग्य, किसके लिए अयोग्य ? - ___ इतनी योग्यता उक्त साधक में हो या वह इस साधना को स्वीकार कर ले, तब भी संगत्यागी वह साधक एकाकी विचरण न करके समान भूमिका वाले तथा समान ध्येय पर विचरण करने वाले सहचारियों (साथियों) के साथ विचरण करे तो क्या बुरा है ?
इस तर्क के पीछे कुछ तथ्य अवश्य है। अतः साधक के जीवन में परिपक्व भूमिका का निर्माण न हुआ हो, वहाँ तक यह सहविचरण संघ के विधान में अनिवार्य बताया है। किन्तु जैसे अपरिपक्व अगीतार्थ साधक के लिए यह सहविचरण साधक है, वैसे ही उत्कृष्ट भूमिका वाले साधक के लिए बाधक भी है, यह नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि सहचारियों के संग का सूक्ष्म ममत्व और मिलने वाला अवलम्बन उच्च साधक को सर्वांगी असंगतता और स्वावलम्बी साधना के आकाश में उड़ने में रुकाट - डालता है। इसलिए जैसे पंख मजबूत हो जाने के बाद पक्षी व्योम-विहार में प्रवृत्त होता है, वैसे ही परिपक्व हो जाने के बाद ऐसा साधक इस मार्ग पर प्रवृत्त होकर 'एगंतसुही साहू वीयरागी' (वीतरागी साधु एकान्त सुखी होता है) के अनुसार विरक्त भावों में मग्न होकर एकान्त सुख का आनन्द पाता है। ऐसा एकान्त साधक विश्वव्यापी शुद्ध वात्सल्य में तन्मय होकर अखण्ड वात्सल्य में बाधक कारणों को दूर करके वात्सल्य सिन्धु में मिलने का प्रशस्त मार्ग (दूसरों के लिए) बना देता है।
3. न वा लभेजा निउणं सहायं. गुणाहियं वा गुणओ सयं वा। इको वि पावाइं विवज्जयंतो. विहरेज कामेसु असज्जमाणो।
-दशवकालिक द्वि. चू., गा. १0; उत्तरा., अ. ३२, गा. ५
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