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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * १२७ *
अवतारवाद में मनुष्य से भिन्न वराह, नृसिंह, मत्स्य, कच्छप आदि प्राणियों को भी अवतार माना गया है, किन्तु मनुष्य से बढ़कर कोई प्राणी महान् और मोक्ष का या परमात्व-पद का अधिकारी नहीं हो सकता, इसलिए असीम और अनन्त शक्तियों को प्रगट करने में सक्षम, मनुष्य ही सामान्य आत्मा से परमात्मा बन सकता है। वह जन्म से ही ईश्वर, परमात्मा, अवतार या भगवान नहीं बन जाता । अपने पूर्व जन्मकृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार नाना गतियों और योनियों में परिभ्रमण के पश्चात् अपनी सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-तपरूप मोक्षमार्ग चतुष्टय की निर्दोष साधना के फलस्वरूप आराधक बनकर अन्य गतियों से आकर मनुष्यशरीर (औदारिकशरीर ) धारण करता है, मनुष्य जन्म पाकर पूर्ण चारित्र ग्रहण करके तप, संयम आदि की आराधना करके, चार घातिकर्मों का क्षय करके, वीतरागता तथा केवलज्ञान प्राप्त करके या तो सामान्य अरिहन्तकेवली बनता है, या फिर पूर्व जन्मों के अतिशय पुण्योत्कर्ष के कारण तीर्थंकर नामकर्मबन्ध के २० स्थानकों में से किसी एक, या सभी स्थानकों (कारणों) की आराधना के फलस्वरूप निकाचितरूप से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करता है। वह जब उदय में आता है, उस भव में द्रव्य और भाव दोनों रूपों में तीर्थंकर बनता है। इस दृष्टि से तीर्थंकर ऊपर से ( किसी ईश्वर द्वारा प्रतिनिधिरूप में) भेजा गया अवतार नहीं, अपितु सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप बल पर नीचे से सम्यग्दर्शन के गुणस्थान से उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में पहुँचता है और फिर वीतरागता तथा तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है। तत्पश्चात् तीर्थ स्थापना आदि सुकृत्य करता हुआ, शेष चार अघातिकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध - परमात्मा बन जाता है। मोक्ष में शाश्वत स्थान प्राप्त कर लेता है। फिर पुनः संसार में वे अवतरण करते। यही उत्तारवाद का स्वरूप है। तीर्थंकर उत्तारवाद का प्रतीक है। वह स्वयं अध्यात्म-साधना के बल पर नीचे से ऊपर उठकर स्वयं अपने बलबूते पर तीर्थंकर बनता है, सिद्ध-परमात्मा बनता है।
तीर्थंकर - पद प्राप्त करने के बीस कारण
यही कारण है कि तीर्थंकर-पद प्राप्त करने के लिए निम्नोक्त बीस स्थानकों (या दिगम्बर-परम्परानुसार १६ कारण भावनाओं) में से एक या अनेक की आराधना करनी अनिवार्य बताई है।
निकाचितरूप से तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के बीस कारण (स्थानक)
निकाचितरूप से तीर्थंकरत्व - उपार्जन के समय निर्मल सम्यक्त्व, श्रावकत्व या साधुत्व अनिवार्य है। तीर्थंकर बनने योग्य आत्माएँ विश्व के समस्त जीव मोक्षमार्ग के पथिक तथा जिनशासन के रसिक बनें, धर्मभावना से ओतप्रोत हों, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हों; इन और ऐसी उत्कृष्ट सद्भावनारूप भावदया से युक्त होकर निम्नोक्त २० उपायों (स्थानकों या कारणों) में से किसी एक, अनेक या सभी कारणों का अवलम्बन लेकर तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करती हैं - ( १ ) अरिहन्त-वत्सलता ( अरिहन्त - भक्ति), (२) सिद्ध-वत्सलता (सिद्ध-भक्ति), (३) प्रवचन- वत्सलता ( प्रवचन - भक्ति), (४) गुरु या आचार्य-वत्सलता ( गुरु या आचार्य की भक्ति), (५) स्थविर - वात्सल्य ( भक्ति), (६) बहुश्रुत-वात्सल्य ( भक्ति), (७) तपस्वी-वात्सल्य (भक्ति), (८) अभीक्ष्ण ( बार-बार ) ज्ञानोपयोग, (९) दर्शन - विशुद्धि, (१०) विनय-सम्पन्नता, (११) (षड्) आवश्यक क्रिया का अपरित्याग, (१२) निरतिचाररूप से शील और व्रतों का पालन, (१३) क्षणलव (अभीक्ष्ण संवेगभाव ) की साधना, (१४) यथाशक्ति तपश्चरण, (१५) यथाशक्ति त्याग, (१६) वैयावृत्यकरण, (१७) समाधि ( उत्कृष्ट आत्म-समाधि ) प्राप्त करना, (१८) अपूर्व ज्ञानग्रहण, (१९) श्रुत-भक्ति, (२०) प्रवचन-प्रभावना ।
निकाचितरूप तीर्थंकर नामकर्म बँध जाने पर तीसरे भव में अवश्य ही तीर्थंकरत्व-प्राप्ति
तीर्थंकर भगवान महावीर के २७ भवों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकर भी भावतीर्थंकर बनने से पूर्व के भवों में शुभाशुभ गतियों - योनियों में जन्म-मरण के अनेक चढ़ाव उतार गुज़रते हैं। इसलिए अनिकाचितरूप से तीर्थंकर नाम के अनेक बार बँध जाने पर भी सफलता नहीं मिलती।
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