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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १११ *
नवम् सोपान : भावसंयम और द्रव्यसंयम से पूर्ण निर्ग्रन्थता की सिद्धि-आत्मा के पूर्ण आध्यात्मिक रूप = सत्-चित्-आनन्दरूप-मौलिक धर्म (स्वभाव) आत्मा से पृथक् शरीर आदि में कभी स्वाभाविक रूप से प्रादर्भत हो नहीं सकते. परन्त जनसमाज में अच्छा. सच्चा और सन्दर कैसे कहलाऊँ या दीखें? इस प्रकार की भावनाओं से प्रेरित होकर तन, मन प्राण से उक्त भावनाओं को औपचारिक रूप से क्रियान्वित करने की चेष्टा करता है, इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों में डूवता-उतराता रहकर जो आत्मा के धर्म नहीं हों, उन्हें औपचारिकता से लेकर कृत्रिमता का पोषण करता है। यह एक सार्वभौम नियम है कि किसी भी वस्तु के स्वाभाविक गुणों को विकसित करने के लिए बाह्य व्यक्ति, वस्तु या साधन-सामग्री की बहुत कम अपेक्षा रहती है, जबकि वैभाविक गुणों को प्रकट करने के लिए वाह्य सामग्री की अधिक जरूरत पड़ती है। स्वाभाविक गणों को विकसित करने के लिए बाह्य सामग्री की जितनी सहायता ली जाती है, उतनी ही मात्रा में आत्म-शक्तियाँ कुण्टिन, पराधीन और परमुखापेक्षी वनती हैं। निष्कर्प यह है कि निर्ग्रन्थता की सिद्धि के लिए भावसंयम में स्वयं अपने स्वाभाविक गुणों को प्रकट करने का पुरुपार्थ करना चाहिए। केवल भावसंयम ही नहीं, उसके साथ द्रव्यसंयम की भी प्रतीत होनी चाहिए। इसीलिए नौवें पद्य में कहा गया है कि वह साधक शरीर के परिकर्म (साजसज्जा आदि) से निरपेक्ष होकर द्रव्यसंवर भी सिद्ध करे। शरीर से ही नहीं. मन से भी नग्नभाव (अहं-ममत्व-शन्यता का भाव). कषायादि से मण्डितभाव. स्नानभाव से निरपेक्ष. दतीन का एक टुकड़ा भी न रखने वाले (प्रसाधन-सामग्री का त्याग करने वाले) (पूर्वोक्त) भाव से तथा (प्रस्तुत) द्रव्य से संयमी साधक ही पूर्ण निर्ग्रन्थ होते हैं। निष्कर्प यह है निर्ग्रन्थता की सिद्धि हेतु ऐसे द्रव्यसंयम के लिए साधक शरीर-सुकुमारता और देहविभूषा के हेतु किसी प्रकार को प्रवृत्ति न करे। परन्तु ये सब उत्कृष्टता के या क्रियापात्रता के अहंकार के साधन न बन जाएँ, न ही दूसरों को नीचा दिखाने के साधन बनें। साथ ही कोरे नंगधडंग रहने वाले पशु, आदिवासी, अज्ञानी. गँवार जीवों को या मैले-कुचैले, आलसी, अकर्मण्य लोगों को एवं वेपधारी कुव्यसनियों को मात्र उतने से द्रव्यसंयमी नहीं कहा जा सकता। साथ में सम्यग्दृष्टि तत्त्वज्ञान, लक्ष्य या ध्येय का भान न हो तो इन्हें द्रव्यसंयमी कौन कहेगा? भावसंयमी होना तो बहुत दूर की बात है। द्रव्यसंयम के साथ भी शृंगारजन्य तथा प्रतिष्ठा-प्रशंसा-प्रसिद्धि की वृत्ति एवं विवेकवृत्ति का होना अनिवार्य है। वह केश, नख की साजसज्जा या अंग-शृंगार द्वारा कामोत्तेजन होने के खतरों से भी दूर रहता है। भावमूल वस्तु है, उसकी शुद्धि या उस पर आई हुई विकृति के निवारण के लिए द्रव्य से भी संयम रखना आवश्यक है। अर्थात् निश्चय से संयम की भावना और व्यवहार से संयम का व्यवहार = ज्ञान और क्रिया, दोनों मिलकर निर्ग्रन्थता सिद्ध करके मोक्ष-साध्य को प्राप्त कराने के लिए साधन हैं। दोनों का सन्तुलन आवश्यक है।
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