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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १०९ *
मध्यस्थता के लिए सप्तम गुणस्थानवर्ती स्थितप्रज्ञ एवं अप्रमत्तताभ्यासी साधक के जीवन में अत्यावश्यक पंचेन्द्रिय विषयों का सेवन करते समय विषयों के प्रति राग-द्वेष-विरहिततारूप विरक्तवृत्ति तथा वैराग्यभाव की जागृति हो; क्योंकि विषयों से विरक्त सप्तम गुणस्थानवर्ती साधक ही अपनी आत्म-शक्ति बढ़ा सकते हैं, स्व-पर-कल्याण के लिए आत्मवीर्य का उपयोग कर सकते हैं। तभी उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति स्वयं के और जगत् के लिए कल्याणकारिणी और प्रेरणादायिनी होगी।
प्रमाद के पाँच मुख्य अंग हैं-मद (मद्य), विषय, कषाय, निन्दा या निद्रा और विकथा। ये पाँचों प्रमाद साधक को कैसे-कैसे अपने स्वरूप से स्खलित कर देते हैं ? कैसे-कैसे कषायों और नोकषायों का दौर लाकर उसकी उच्च साधना को चौपट कर देते हैं ? इसका युक्तिसंगत विश्लेषण करने के साथ-साथ उनके निवारण के लिए भी विवेकसूत्र बताए हैं। प्रमाद के ये पाँचों ही अंग आत्मारूपी सूर्य के प्रकाश और तेज को ढक देते हैं। आत्मा की अनन्त शक्ति (वीर्य) को धूल में मिलाकर उसे कायर, मूढ़ और पामर बना देते हैं।
चारों प्रकार के प्रतिबन्ध भी वीतरागता-प्राप्ति में वाधक-व्यापक वीतरागता-प्राप्ति में प्रतिबन्धचतष्टय भी बाधक हैं. आत्म-शान्तिभंगकर्ता हैं। प्रतिबन्ध मुख्यतया चार प्रकार का है-द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव का प्रतिबन्ध। अमुक वस्तु, व्यक्ति, संस्था, सम्प्रदाय, जाति आदि में ही आसक्तिपूर्वक बँध जाना, अन्य वस्तु आदि के प्रति घृणा, द्वेष करना आदि द्रव्य प्रतिबन्ध है। अमुक कार्य-क्षेत्र, विचरण-क्षेत्र, नगर, ग्राम, प्रान्त, राष्ट्र आदि या मानव-जीवन के विविध क्षेत्रों में से अमुक क्षेत्र में ही काम कर सकता हूँ, अन्य क्षेत्र में नहीं अथवा अमुक क्षेत्र के प्रति अन्धभक्ति रखना क्षेत्र प्रतिबन्ध है। अमुक अवस्था, उम्र, समय, परिस्थिति में ही अमुक कार्य कर सकता हूँ, दूसरे समय आदि में नहीं, यह कालप्रतिबन्ध है और अमुक भावों, संयोगों, परिणामों में ही यह सत्यादि की साधना कर सकूँगा, दूसरे भावों आदि में नहीं, यह भावप्रतिबन्ध है। इस प्रकार के प्रतिबन्ध चतुष्टय समत्वसाधना, वीतरागता-प्राप्ति, आध्यात्मिक अभ्युदय, स्वतंत्र आत्म-विकास में बाधक, विघ्नकारक एवं कर्मबन्धकारक हैं। कदाचित् प्राथमिक उदीयमान अवस्था में साधक को द्रव्यादि चतुष्टय का अवलम्बन लेकर चलना पड़े, फिर भी इनसे भिन्न द्रव्यादि के प्रति द्वेष, • घृणा, वैर-विरोध, ईष्या आदि भाव न रखे। उच्च गुणस्थान में अवरोहण किये हुए या करने के इच्छुक
साधक को इन्हें हेय या उपेक्षणीय समझने चाहिए। . . अप्रतिबद्ध दशा की प्राप्ति के लिए उदयाधीन विचरण-अप्रतिबद्ध दशा का आचरण और विचरण उदयाधीन होना चाहिए। उदयाधीन का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-उत् + अय् + अ = उदय = ऊँचा ले जाने वाला। इसका तात्पर्यार्थ है-सहज-स्फुरित, यानी अन्तःस्फुरित = अन्तर्ध्वनि। परन्तु वह सत्य है या मिथ्या? इसकी जाँच-पड़ताल का गुर ऊपर दिया गया है। साथ ही जिनाज्ञा और गहन आत्म-चिन्तन के बाद यह लगे कि यह कार्य स्व-पर के विशेष उत्कर्ष का है या स्व-परोदयकारी-ऊँचा ले जाने वाला है तो उसे बिना किसी भावबन्धन के कार्यरूप में परिणत करना उदयाधीन विचरण एवं आचरण है। परन्तु निर्ग्रन्थता के उपासक उच्च साधक या गृहस्थ साधक को प्रतिक्षण सावधान भी रहना चाहिए कि अन्तर (अवचेतन) मन के किसी कोने में प्रतिष्ठा, प्रशंसा, यशःकीर्ति, सुख-सुविधा, शिष्य-शिष्या-प्राप्ति, भक्तवर्ग-वृद्धि, खान-पान-प्राप्ति या आदराधिक्य आदि किसी प्रकार का लोभ (लिप्सा) सूक्ष्म रूप से न घुस जाय, इसलिए उदयाधीन विचरण के साथ वीतलोभ विशेषण प्रयक्त किया है. जिसका फलितार्थ है कि उदयाधीनता किसी भी कामना, नामना, स्पृहा, लालसा आदि से रहित होनी चाहिए। वीतराग चरणों में समर्पित साधक की यही सहजदशा होनी चाहिए।
अष्टम सोपान : कषायों और नोकषायों पर विजय की तैयारी-सातवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मन की विविध परिणामधाराएँ होती हैं, जिनकी उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त से भी कम बताई गई है। इसलिए बारहवें गुणस्थान पहुँचने तक साधना जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं। राग और द्वेष के क्रोधादि चार सेनानियों (युद्ध-विशारदों) के साथ आत्मा को अपनी परी शक्ति लगाकर एक बार तो इनसे भिड़ जाना ही पड़ता है। उस समय क्रोध हावी होने को आये तो सावधान होकर सहज रूप से क्रोध हो, यानी क्रोध के प्रति होश के साथ अक्रोधता का जोश स्वाभाविक बना रहे। मान आने के लिए उद्यत हो, तब
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