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* ११० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
अत्यन्त दोनता (नम्रता) के प्रति मान (स्वाभाविक आदर) हो। माया (छल-कपट) आने को तत्पर हो. तंब माया के प्रति प्रोति खोकर साक्षीभाव के प्रति माया (प्रीति) उत्पन्न हो जाए तथा लोभ के प्रति लोभ के जैसा न बने अर्थात् लोभ जैसे दूसरों को लुभाकर अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही उस समय आत्मा, शुभ या अशुभ किसी भी सांसारिकभाव को लुब्ध होकर न खींचे। यदि पूर्वाध्यास के कारण शुभाशुभभाव खिंचे चले आएँ तो भी स्वयं निर्लेप (अलुब्ध) भाव में स्थित रहे। जो आत्माएँ क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर चुकी होती हैं, उनके पक्ष में आठवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक क्रोध, मान और मायाभाव तथा नोकपायभाव पर तथा दशम गुणस्थान में संज्वलन के लोभ पर भी इसी दृष्टि से विजय प्राप्त होने की सम्भावना है। यानी अगर उस साधक ने क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करने के दौरान पूर्ण संयम. आत्म-स्थिरता और अप्रमत्तता के शस्त्रों से इस अवशिष्ट सूक्ष्म (संज्चलनीय) क्रोध को भी पूर्ववत् जीत लिया तो फिर वह . क्रमशः शेप सभी शत्रुओं (मानादि कपायों तथा नौ नोकपायों) पर विजय प्राप्त करके ही दम लेता है। अर्थात् जो साधक आठवें गुणस्थान से क्षपकश्रेणी पर चढ़ गया, वह अवश्यमेव (कर्मबन्ध तथा मोह के मुख्य कारणभूत) समस्त कषायों-नोकपायों पर विजय प्राप्त कर लेगा, यह अध्यात्मदृष्टि से कर्मविज्ञानवेत्ताओं की भविष्यवाणी है। लोभ इन सब कपायों में प्रबल है। वह इतना सूक्ष्म है कि सहसा पहचाना नहीं जाता, न ही पकड़ में आता है। इसलिए लोभ को सर्वांग रूप से जीत लिया तो समझ लो, सर्वस्व जीत लिया। एक अच्छी बात को भी दूसरे के दिमाग में ठसाने का लोभ अथवा किसी मोहक पदार्थ को पाने का आकर्षण (लोभ) अप्रमत्त साधनाशील के मानस में जागने पर कैसे वह शेष तीनों कषायों को साथ में ले आता है ? इसे दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है।
उपशमश्रेणी वाला साधक कितनी सावधानी रखे ?-जहाँ तक घातिकर्ममुक्ति की भूमिका पर न पहुँच जाए, वहाँ तक कदम-कदम पर साधक के फिसलने का भय रहा हुआ है। उपशमश्रेणी वाले साधक में कदाचित् संचलन के क्रोध, मान, माया वाह्यरूप से उपशान्त दिखाई देते हों, परन्तु संज्वलन का लोभ सर्वथा क्षय नहीं हो पाता। इसवें से सीधा वारहवें गुणस्थान में न पहुँचकर वह ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है. जहाँ उसका मोह सर्वथा क्षीण नहीं हो पाता, उपशान्त रहता है। जरा-सा निमित्त मिलते ही साधक का पतन हो जाता है। अतः इस सोपान में सूक्ष्मकपायों पर भी पूर्ण विजय करने की साधना और सावधानी वताई गई है। चारों सूक्ष्म कषायों पर विजय कैसे पाए ?
क्रोध का वीज नहीं जल जाता है, तब तक वह वाहर से क्षमा करता हुआ भी अन्तर से सूक्ष्म क्रोध को एक या दूसरे निमित्त को लेकर पाले रहता है, उसका कारण है स्वभाव को स्मृति (जागृति) का स्थिर नहीं होना। क्रोध विभाव है, उसको हटाकर स्वभाव उसका स्थान ले ले तो समझना चाहिए क्रोध को जीत लिया। इसी तरह साधक की प्रशंसा और महिमा के सुन्दर गीत गाये जा रहे हों, उस समय जरा-सा भी गर्व आया. प्रसन्नता हुई कि नम्रता, विनीतता, मृदुता, कोमलता विदा हो गई। अतः स्वयं को अणु से भी अणु मानने वाला ही महान् (दीन-नाथ) वनता है। जैसे-अनाथी मुनि ने स्वयं को अनाथ बताकर श्रेणिक नृप को सनाथ-अनाथ का स्वरूप बताया तो उसकी दृष्टि में महापूज्य वन गये। महिमागान तो नाथ का होता है, मैं तो वीतरागनाथ का चरणकिंकर हूँ, समर्पित हूँ; इस प्रकार की विनयशीलता प्रदर्शित करने वाला सहज ही मानकपाय पर विजयी बन सकता है। नम्रातिनम्र बन जाने पर अपनी छोटी-से-छोटी भूल, गलती या दोप को छिपाने की या सात्त्विकता को भी छिपाने या न कहने की वृत्ति नहीं होती। सारा विश्व ही जब मेग कुटुम्ब है. तव किससे और क्या छिपाऊँ ? इस प्रकार साक्षीभाव के प्रति माया (प्रीति) होने से साधक यथाशीघ्र जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। साधक में समस्त शक्तियाँ विकसित होने से जगत् उसे तारक, अवतार, भगवान या प्रभु के रूप में निहारने लगता है। वैसी स्थिति में यदि वह विचलित होकर अपनी अपूर्णता को पूर्णता मानकर अटक गया तो टेट पेंट में जाकर वैटने का अवसर आ जाता है। वह स्वयं भी डूबता है, उसकी शक्तियाँ भी डूबती हैं। किन्तु क्षपकश्रेणी वाला साधक जरा भी रागाविष्ट न होकर ज्ञाता-द्रष्टा बनकर तटस्थभाव से लोभ के इस नाटक पर विजय पा लेता है।
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