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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * १०७ *
की साधारण स्फुरणा प्रमाद और कषायरूप प्रच्छन्न चोरों के आक्रमण को रोक नहीं पाती। उस समय 'संयम 'के हेतु से त्रिविध योगों की प्रवृत्ति' का सूत्र अहर्निश स्मृतिपथ पर रहना आवश्यक है। इस सूत्रानुसार साधना एक ओर से विचार, भावना और क्रियमाण कर्म में प्रबल शुद्धि लाती है तो दूसरी ओर से स्वरूपलक्षी जिनाज्ञाधीनता होने से परभावों और विभावों से अनायास विरक्ति या विरति कर्मसंस्कारों के पूर्वकालिक अध्यासों के जोर को ठंडा करके विरक्तिमुखी रुचि को परिपुष्ट करती है।
आत्म-स्थिरता के अभ्यास की परिपक्वता कब ? - पंचम गुणस्थानवर्ती श्रमणोपासक में तथा छठे गुणस्थानवर्ती सर्वविरति सरागसंयमी साधुवर्ग में औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक तीनों भाव संभव हैं। परन्तु यहाँ तो गुणस्थान-द्वयवर्ती साधकवर्ग से क्षायिकभाव में स्थिर रहने की अपेक्षा है। ये दोनों प्रकार के साधक आनन्द, कामदेव आदि श्रमणोपासकों की तरह तथा उदायी राजर्षि, अर्जुन मुनि, गजसुकुमार मुनि की तरह उपसर्ग आने पर अधिकांशरूप से स्व-धर्म में दृढ़ रहे। अन्यथा, क्षायिकभाव के लक्ष्य के अभाव में परीषहों और उपसर्गों के आने पर फिसलने का भय बना रहता है। परीषहों और उपसर्गों का समभावपूर्वक मुकाबला करके अन्त में उन पर पूर्णतया विजय पाने का लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है, जब आत्मार्थी मुमुक्षुसाधक आधि, व्याधि, उपाधि के आने पर अपना संयम खोये बिना अपने धर्म (आत्म-धर्म) पर टा रहे। ऐसी अनुप्रेक्षा सम्प्रेक्षा करे कि उपसर्ग, परीषह या उपद्रव मात्र मेरी आत्म-स्थिरता, मुमुक्षा या उच्चदशा की परीक्षा करने के लिए आये हैं या आते हैं। उस समय चित्त को शान्त और प्रसन्न रखकर सोचे कि ये संकट, कष्ट, उपद्रव या उपसर्ग मेरे द्वारा पहले या वर्तमान में किये गये अपराध और उनसे होने वाले अशुभ कर्मबन्ध के परिणाम हैं। अतः आत्म-स्थिरता वाले साधक सत्य, शील, अहिंसा, संयम और बाह्यान्तर तप को अपने जीवन में रमा-पचा लेते हैं। भयंकर दुःसाध्य बीमारी के समय भी जाग्रत रहकर शान्ति और समभाव से वह उस दुःख को सहेगा, सेवा करने वालों पर कुढ़ेगा नहीं, सात्त्विक उपचार करेगा, परन्तु आत्म-स्थिरता और संयम खोकर दूसरे जीवों को जरा भी कष्ट न देगा, न ही उनके प्राणों को संकट में डालेगा। मन, वाणी और शरीर से जो भी क्रिया करेगा, वह संयम की सीमा में करेगा । सागारी (गृहस्थ ) और अनगारी (साधु) दोनों के जीवन में पूर्वोक्त सर्वांगीण संयम के साथ सम्यग्ज्ञान वैराग्ययुक्त विवेक का होना अत्यावश्यक है। प्रतिक्षण ऐसे संयमी (गृहस्थ या साधु) को आत्मभान रहेगा। फलतः वह जीवन की - आवश्यकताओं को सीमित कर लेगा । आवश्यक उपकरणों या साधनों पर भी ममता - मूर्च्छा नहीं रखेगा। विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति वह आत्यौपम्यभाव रखेगा, तब पानी की एक बूँद का भी, भोजन के एक कौर का भी या वस्त्रखण्ड का भी बिना जरूरत के स्वाद या आडम्बर के लिए, शोभा या विभूषा के लिए भी उपयोग नहीं करेगा। अपने वचन का व्यय भी बिना मतलब के, निरर्थक या असत्प्रवृत्ति में व्यय नहीं करेगा, एक भी आत्मघातक विचार दिमाग में संचित करके नहीं रखेगा। स्वयं के पास जो अमूल्य बौद्धिक निधि है, उसका भी जाग्रत रहकर जनसेवा में या संयम कार्यों में उपयोग करेगा। अपने शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियों और अंगोपांगों का उपयोग निरर्थक कार्यों एवं कषायों - नोकषायों में नहीं करेगा। स्वप्न में भी कोई कुविचार हमला न कर सके, इसलिए अन्तर में जाग्रत रहेगा। निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम का हेतु सुरक्षित रखने के लिए उसका संयम स्वरूपलक्षी हो तथा जिनाज्ञाधीन हो । अर्थात् इस मोक्षलक्ष्यी साधना मैं साध्य स्वरूपदशा है, उसका साधन संयम है।
स्वरूपलक्षी संयम कैसा होता है ? - स्वरूपलक्षी साधक जगत् के सर्वजीवों को आत्मवत् मानकर विश्वमैत्री, करुणा, प्रमोद गुण का आराधक या पट्कायिक जीवों का पीहर, खेदज्ञ, समदर्शी बनेगा सर्वभूतात्मभूत विश्वमैत्री का यह सूत्र जब उसके जीवन में ओतप्रोत हो जायेगा, तब उसके लिए अहिंसादि संयम के अंगों का पालन सहज हो जायेगा; क्योंकि सर्वभूतात्मभूत हो जाने पर सबको आत्मवत् मानने पर किसी की हिंसा, असत्य, चौर्य आदि में प्रवृत्त नहीं हो सकेगा । अतः आत्मार्थी संयमी साधक की स्वरूपलक्षिता अपनी संयम-साधना में अद्वैतता = अखण्डता सिद्ध करने के अभ्यासमय होगी। ऐसी स्थिति में स्वरूपलक्षी साधक अपने आसपास होने वाली विषम परिस्थितियों (अनिष्टों, बुराइयों) को अपनी अशुद्धि या उपादान-शुद्धि की कमी का परिणाम समझकर अपनी आत्म-शुद्धि ( उपादान-शुद्धि) के लिए अधिकाधिक
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