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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *१०५ *
आने पाए. इसकी प्रतिक्षण जागृति रहेगी। तथैव सजीव पदार्थों को अपने निमित्त से किसी प्रकार का कप्ट न हो, हिंसादि रूप से उसकी विराधना न हो, इसकी अनुकम्पा तथा सम, शम, श्रम की वृत्ति, संवेगवृत्ति, निर्वेदवृत्ति और अस्तिक्यवृत्ति तो सम्यग्दृष्टि की पहचान के रूप में रहेगी ही । कर्मों के आनव, बन्ध, संवर और निर्जरा मोक्ष के कारणों और परिणामों के प्रति तथा नौ तत्त्वों एवं देव-गुरु-धर्म-शास्त्र के प्रति पूर्ण आस्था रहेगी।
निर्ग्रन्थता की सिद्धि के लिए वृत्तियों का ऊर्ध्वमुखीकरण-निर्ग्रन्थता के अभ्यासी साधक की वृत्तियों में जब उदासीनता होने से ऊर्ध्वमुखीकरण हो जायेगा, तब पहले जो वृत्तियाँ अधोमुखी रुख के कारण अनावश्यक एवं मोहक - आकर्षक विषयों, पर-पदार्थों एवं भावों के प्रति या उनके सेवन के लिए लालायित - प्रेरित होती थीं, अब उस ओर उसकी वृत्ति जायेगी ही नहीं, यानी पर-पदार्थों को ग्रहण करने के लिए उसकी वृत्ति लालायित होकर नहीं दौड़ेगी । संयम- यात्रा में सहायक व्यक्तियों, समूहों तथा आवश्यक उपकरणों के प्रति सम्बन्ध रखते हुए भी वह उनसे निःस्पृष्ट, निर्लिप्त, अनासक्त एवं निष्कांक्ष रहेगा। इस प्रकार आत्मा के शुद्ध स्वभाव में स्थित रह सकने के कारण उसकी निर्ग्रन्थता सिद्ध हो सकेगी।
तृतीय सोपान : शरीर के प्रति किंचित् भी मूर्च्छा निर्ग्रन्थता में बाधक - शरीर को अतिनिकटवर्ती साथी, धर्मपालन व संयमपालन में सहायक समझकर कई बार इसके बहाने मोहवश शरीर को धर्मविरुद्ध आचरण करके भी या त्रस-हिंसाजनित पदार्थों का सेवन करके सुरक्षित, पुष्ट और तन्दुरुस्त रखने का उपाय करना निर्ग्रन्थता में बाधक है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए संयममय, यत्नाचारपूर्वक प्रयत्न करना जायज बात है, किन्तु स्वस्थता की ओट में शरीर को मोटा तगड़ा व पुष्ट बनाने की चिन्ता करना यथावश्यक शरीर-श्रम भी न करना, आलसी बनना, रसायन आदि का सेवन करना दूसरी बात है। शरीर को संयमपालन हेतु यथावश्यक आहार- पानी देना, तप और सेवा के लिए तत्पर रखना, अपनी चर्या निर्दोष रखने के लिए शरीर को प्रवृत्त करना, उसका लाड़-प्यार, मोह-ममत्व न रखना जायज बात है । शरीर के प्रति मूर्च्छा-ममता, अश्रद्धायुक्त चिन्ता रखना, उसे सुकुमार, सुख-सुविधावादी एवं भौतिक सुखलोलुप बनाने, यानी आत्म-चिन्ता छोड़कर शरीर के ही लालन-पालन में रत रहने से निर्ग्रन्थता और स्वरूप स्थिरता दोनों का टिकना अतिकठिन हो जायेगा। इसीलिए चेतावनी दी गई है - " देहे पण किंचित् मूर्च्छा नव जोय जो ।” आशय यह है कि साधक का शरीर केवल संयम का साधन बनकर रहे। संयम साधना के निमित्तकारण के सिवाय जिह्वा, स्वादासक्ति, मोहकता आदि अन्य किसी भी कारण से कोई वस्तु इच्छनीय या उपादेय न रहे। ऐसी स्थिति में संयमयात्रार्थ थोड़े-से पदार्थों की आवश्यकता होने पर भी उन पदार्थों के प्रति भी मूर्च्छा या लिप्सा नहीं रहे तो सहजभाव से परिग्रहवृत्ति से निवृत्तिरूप संवर तथा आत्मा के शुद्ध भावों में प्रवृत्तिरूप निर्जरा होगी।
चतुर्थ सोपान : दर्शनमोह का सागर पार होने पर ही केवल चैतन्य का बोध संभव - कई बार ज्ञात मन में उठे हुए क्षणिक वैराग्य और त्याग के प्रवाह में बहकर साधक समझ बैठता है कि मुझे संसार के समस्त • निर्जीव- सजीव पदार्थों के प्रति विरक्ति हो चुकी है, शरीर पर भी मूर्च्छा नहीं रही है; परन्तु उसके अवचेतन मन में दीर्घकाल से दबे हुए, शान्त पड़े हुए राग, द्वेष, मोह, कषाय और विषयासक्ति के संस्कार निमित्त मिलते ही, राख के ढेर में दबी हुई शान्त आग हवा का निमित्त मिलने पर भड़क उठने के समान उत्तेजित हो जाते हैं। निर्विकारी प्रतीत होने वाला मन साधक को विकारों के दलदल में उसी या उससे भी नीची विकारी दशा में धकेल देता है। अतएव दर्शनमोह का सागर पार न हो जाए तब तक पर-पदार्थों तथा शरीरादि के प्रति ममता-मूर्च्छा का त्याग, उनके प्रति उदासीनता या ऊर्ध्वमुखी वृत्ति या विरक्ति हो ही गई है, ऐसा निश्चित नहीं समझना चाहिए।
दर्शनमोह तभी दूर होगा, जब साधक को शरीर से भिन्न केवल चैतन्य का अनुभवात्मक बोध होगा। समग्र अचेतन शरीर में आत्मा व्याप्त होते हुए भी चैतन्य शक्ति अपने स्वभाव (स्वधर्म) में अचलरूप से स्थिर हैं, शरीर, कर्म आदि पुद्गलों का धर्म (पर-भाव ) इससे पृथक् है। साथ रहते हुए भी चेतन (आत्मा) इस पर भाव में मिल नहीं जाता। ऐसे यथार्थ आत्म-स्वरूप का अनुभवात्मक ज्ञान दर्शनमोह दूर होने पर हो
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