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* १०४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
सिद्ध-बुद्ध-मुक्त और अन्तकृत् हो जाता है। उससे न तो अधिक तपस्या होती है और न ही किसी प्रकार की वेदना भोगनी पड़ती है। जैसे-मरुदेवी माता। मनुष्य के सिवाय आदि की चार नरकों के नारक अनन्तरागत अन्तःक्रिया करते हैं, शेष तीन नारकों के जीव केवल परम्परागत अन्तःक्रिया करते हैं। तीन विकलेन्द्रिय तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक जीवों के सिवाय तीन प्रकार के एकेन्द्रिय जीव, दस प्रकार के भवनपति देव, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव तथा वैमानिक देवों में से जिसकी पूर्वोक्त योग्यता होती है, वे अनन्तरागत और योग्यता नहीं होती, वे परम्परागत अन्तःक्रिया करते हैं। . मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान
संसार और मोक्ष, इन दोनों स्थितियों के बीच में आत्मा की मुख्यतः तीन. दशाएँ होती हैंबहिरात्मदशा, अन्तरात्मदशा और परमात्मदशा। मोहनिद्रा में सोये हुए जीव द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वभाब को' भूलने से भ्रान्तिवश शरीर आदि को आत्मा मानने से होने वाली प्रवृत्ति बहिरात्मदशा है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान या विवेक द्वारा भ्रम हटने से अपने आत्म-स्वभाव के प्रति रुचि होकर शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव आदि पर-पदार्थ या वैभाविकभाव अपनी आत्मा से भिन्न हैं, इस प्रकार का भेदविज्ञान का प्रकाश जिस दशा में हो जाय, वह अन्तरात्मदशा है। इससे ऊपर उठकर वीतरागभाव की पराकाष्ठा वाली निष्कलंक. निर्मल. घार्तिकर्मों या सर्वकर्मों से मक्त परम शद्ध दशा परमात्मदशा है। इनमें से अन्तरात्मदशा से लेकर परमात्मदशा तक की उत्तरोत्तर भूमिकाओं पर चढ़ने के सोपानों अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के कर्ममुक्ति के या मोहमुक्ति के सोपानों की प्रक्रियाओं का चार निबन्धों (अध्यायों) में आर्ष दर्शन है। इन सोपानों पर क्रमशः आरोहण करने की प्रक्रिया को ध्यान में लेकर क्रमशः गति-प्रगति, सम्प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा करते रहने से मुमुक्षुसाधक एक दिन अवश्य ही परमात्मदशा प्राप्त कर सकता है।
प्रथम सोपान-सर्वसम्बन्धों के बन्धन की उच्छेदिनी : वाह्यान्तर निर्ग्रन्थता-संसार के सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों तथा शरीर-मन-इन्द्रियादि पर-भावों के साथ एक या दूसरे प्रकार से सम्बन्ध तो आयेंगे ही, परन्तु उन सम्बन्धों के प्रति प्रियता-अप्रियता, आसक्ति-घृणा, राग-द्वेष आदि विभावों अथवा दस प्रकार के बाह्यग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व तथा कषायचतुष्टय, काम, हास्यादि नौ नोकषाय आदि के कारण बँध जाने वाले तीक्ष्ण कर्मबन्धनों के उच्छेद के प्रति निर्ग्रन्थता (बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थों से मुक्तिरूप निर्ग्रन्थता) का अभ्यास करना चाहिए। बाह्यग्रन्थों की अपेक्षा आभ्यन्तर ग्रन्थ बहुत ही भयंकर एवं दुस्त्याज्य हैं। कई बार साधक अपने माने हुए परिवार, धर्म-सम्प्रदाय, समाज, जाति, प्रान्त, राष्ट्र, भाषा, परम्परा, रीति-रिवाज, रूढ़ि, प्रथा, शिष्य-शिष्या या पुत्र-पुत्री आदि के साथ अपने स्वार्थ के लिए राग, मोह, मद, पक्षपात, आसक्ति आदि से ऐसे गाढ़ बँध जाते हैं कि अन्य परिवार, धर्म-सम्प्रदाय, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति द्वेष, घृणा, वैर-विरोध, ईर्ष्या, मात्सर्य, द्रोह आदि करने लग जाता है; इस प्रकार दोनों पक्षों में पवित्र सम्बन्ध रखने की अपेक्षा राग-द्वेषादिवश तीक्ष्ण कर्मबन्धक सम्बन्ध बन जाते हैं। कई उच्चकोटि के साधक भी प्रतिष्ठा, पद, सत्ता, प्रशंसा, स्वार्थसिद्धि आदि के लिए उक्त सम्बन्धों से निर्लिप्त न रहकर गाढ़बन्धों से लेपायमान हो जाते हैं। कर्मबन्ध की गाँठों को अधिकाधिक मजबूत बनाते रहते हैं। अतः वाह्याभ्यन्तर परिग्रहरूप ग्रन्थों से मुक्त होने का सतत जागरण, यतनापूर्वक अभ्यास, विवेक और पुरुषार्थ करना चाहिए। या तो अनावश्यक वस्तुओं का त्याग या आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा करने, यतना व संयमपूर्वक उनका उपयोग करे। दूसरों के पास मनोज्ञ. किन्तु स्वेच्छा से व्यक्त वस्तुओं को देखकर मन में जरा भी उन्हें पाने की इच्छा या कामना न करे. यह सोचे कि “वह सजीव या निर्जीव वस्तु मेरी नहीं है, न ही मैं उनका हूँ।" यानी मन से भी उन व्यक्त पदार्थों को पाने की कामना न करे।
द्वितीय सोपान : सर्वभावों के प्रति उदासीनता, विरक्ति और निर्लिप्तता-संवर-निर्जरारूप धर्म या सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टयरूप धर्म के पालन में सहायक धर्माचरणकर्ता के लिए शास्त्रोक्त पाँच आलम्वनों (षट्कायिक जीव, गण (संघ), शासक, गृहस्थ और शरीर) को आवश्यकतानुसार ग्रहण करता हुआ भी इनके प्रति अन्तर से निर्लिप्त, विरक्त रहेगा, मनोवृत्तियों में भी इनके प्रति विरक्ति व उदासीनता रहेगी। इनसे एक ओर से सम्बन्ध रहेगा, दूसरी ओर से इन सम्बन्धों में तनिक भी कषायभाव व राग-द्वेष-मोह न
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