________________
* ७२ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु
पहले संवर को अपनाएँ या निर्जरा को ?
चारों ओर से जीवन में मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय और अशुभ योग की आँधी तीव्र गति आ रही हो, उसे बेधड़क आने दिया जाये, यह सोचकर कि बाद में इसे निकाल देंगे या पहले जमी हुई कर्मरूपी धूल, कचरा आदि को साफ करके बाहर निकालने का उद्यम किया जाये ? अनुभवियों का कहना है कि पहले मिथ्यात्वादि से परिपूर्ण आँधी को आने से रोका जाना चाहिए, बाद में अन्दर जमी हुई कर्मरूपीधूल, कचरे आदि को बाद में निकाला जाना चाहिए । यही बात विविध युक्तियों, तर्कों, शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर कर्मवैज्ञानिकों ने कही कि पहले नये आते हुए कर्मों को संवर द्वारा रोका जाय, तत्पश्चात् पूर्ववद्ध संचित कर्मों को सकामनिर्जरा द्वारा क्षय करके निकाला जाये। जैसे किसी रोगी की चिकित्सा प्रारम्भ करते समय पहले चिकित्सक रोग को बढ़ने से रोकने का प्रयास करता है, तदन्तर शरीर में पहले से प्रविष्ट रोग के कीटाणुओं को हटाने या बाहर निकालने की चिकित्सा करता है। इसी प्रकार कर्ममुक्ति द्विविध उपायों में से साधक सर्वप्रथम मन-वचन-काय गुप्ति द्वारा सर्वप्रथम पापप्रवाह को रोकता है. तदनन्तर वह बाह्याभ्यन्तर तप द्वारा आत्मा में प्रविष्ट कर्ममल को निकालकर बाहर फेंकता है। इसलिए चिकित्सा क्षेत्र में, कामरोग से पीड़ित के लिए तथा अन्य अनेकों खतरनाक वृत्तियों, आदतों और कुव्यसनों के निवारण के लिए सर्वप्रथम संवरोपाय भी अधिक श्रेयस्कर समझा जाता है। किन्तु साधकदशा में संवर के साथ-साथ साधक की प्रज्ञा और दृष्टि निर्जरा पर भी टिकी रहनी चाहिए, साथ ही उन्हें कुव्यसनियों, कामरोग-पीड़ितों तथा कायिक-मानसिक रोगियों को भी निर्जरा की दृष्टि समझनी चाहिए।
संवर और निर्जरा के लिए सात प्रबल साधन
कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने नये आते हुए कर्मों के निरोध ( संवर) और पूर्वबद्ध कर्मों के अंशतः क्षय (निर्जरा) के लिए निम्नोक्त प्रबल साधनों या आलम्बनों का निर्देश किया है - (१) गुप्तित्रय, (२) पंचसमिति, (३) दशविध श्रमण (उत्तम) धर्म, (४) द्वादशानुप्रेक्षा, (५) (बाईस) परीषहजय, (६) पंचविध चारित्र, तथा (७) द्वादशविध बाह्याभ्यन्तर तप । इनमें १२ प्रकार तप को छोड़कर शेष ६ साधनों के कुल मिलाकर ५७ भेद होते हैं, जिन्हें आगमकारों ने संवर के ५७ भेद गिनाए हैं। इसके पश्चात् संवर के द्रव्य और भावरूप से लक्षण और स्वरूप का निर्देश करके इन सातों उपायों (साधनों) से संबर कैसे-कैसे हो सकता है ? इसका निरूपण किया है। सबके साथ में दृष्टि सम्यक् होने की अनिवार्यता है। सम्यग्दृष्टि होने पर ही द्रव्य-भावसंवर संभव है, अन्यथा नहीं। सम्यग्दृष्टि होने पर ही सकामनिर्जरा सम्भव है। सर्वकर्ममुक्ति के साधक के लिए आत्म-लक्षीदृष्टि होने पर शीघ्र ही इन साधनों से संवर और सकामनिर्जरा का लाभ प्राप्त हो सकता है।
संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय
सर्वप्रथम संवर-साधन है - गुप्तित्रय । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । रागादि विकल्पों से मन-वचन-काया का निवृत्त होना, निरोध करना, आत्मा की रक्षा परभावों-विभावों से करना गुप्तित्रय का स्वरूप है। किन-किन विकल्पों या विकारों से इन तीनों की रक्षा किस-किस ध्यानादि उपायों से करनी चाहिए? इसका भी स्पष्ट चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इन तीनों गुप्तियों के पालन से क्या-क्या आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं तथा आत्म-रक्षा में कैसे सफलता मिलती है ? इसका निरूपण भी किया गया है। गुप्ति के पालन में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का यथायोग्य समन्वय आवश्यक बताया है।
द्वितीय साधन : पाँच समितियाँ
समिति का अर्थ है - सम्यक् प्रवृत्ति । किसी भी प्राणी को पीड़ा न हो, परभावों के प्रति राग-द्वेप-कपायादि विभावों से बचकर निरवद्ययोगपूर्वक यतनापूर्वक प्रवृत्ति अथवा स्व-स्वरूप में सम्यक् प्रकार से परिणति समिति है। सावद्ययोग से निवृत्ति और निरवद्ययोग में प्रवृत्ति - मन-वचन-काय द्वार ईर्या-भापा-एपणा-आदाननिक्षेप और परिष्ठापनरूप प्रवृत्तियों में सम्यक् विवेकपूर्वक प्रवृत्ति से शुभ योग-संवर होता है, बशर्ते कि प्रवृत्ति आत्मलक्षी सम्यग्दृष्टिपूर्वक हो, विशुद्ध हो, तभी द्रव्य भावसंवररूप होने से वह मुक्ति-यात्रा में सहायक बनती है। पाँचों ही समितियों का सम्यक् प्रयोजन मिथ्यात्वादि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org