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* ७८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
सावधानी रखनी चाहिए? सम्यक्त्व-संवर में स्थिरता और सुरक्षा के लिए क्रमशः पाँच और आठ अंगों का . पालन करना अनिवार्य है; इसका स्पष्ट प्रतिपादन किया है। विरति-संवर : स्वरूप, लाभ, उपयोगिता, महत्त्व
भौतिकता की चकाचौंध में वर्तमान युग का मानव सुविधावादी तथा अधिकाधिक पदार्थोपभोगवादी होता जा रहा है। परन्तु इस सुविधावाद के भयंकर दुष्परिणामों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग अज्ञान, अन्ध-विश्वास, भ्रान्ति, मिथ्यादृष्टि, स्वच्छन्दाचार एवं पदार्थ प्रतिबद्धता के शिकार हो रहे हैं। फिर विरति (व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि) से रहित जीवन स्वैच्छाचारी. निरंकुश, प्रकृतिविरुद्ध, स्वच्छन्दभोगवादी हो जाता है। 'स्थानांगसूत्र' में कहा है-ऐसा जीवन इहलोक-परलोक और आगामी भवों में गर्हित-निन्दित हो जाता है। अविरतियुक्त जीवन की अपेक्षा विरतियुक्त जीवन की विशेषताएँ बताते हुए निर्देश किया है कि जीवन को विरतियुक्त बनाने पर ही संवर-निर्जरा उपार्जित करना शक्य है। इसके विपरीत असंयत, अविरत जीव भले ही हर समय पापकर्म में प्रवृत्त न होता हो, तो भी त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम आदि अंगीकार न करने के कारण उसे अठारह ही पापों का भागी तथा षट्जीवनिकाय का शत्रु बताया है। व्रतबद्ध या प्रतिज्ञाबद्ध न होना निरंकुश तथा ध्येय-विचलित करने वाला है और अविश्वास की स्थिति में जीना है। अतः प्रत्येक मुमुक्षुसाधक के लिए सम्यक्त्वपूर्वक विरति-संवर की साधना अनिवार्य है। अविरति से पतन और विरति से उत्थान
विरति-संवर के सन्दर्भ में कर्मविज्ञान ने बताया है कि कोई भी जीव प्राणातिपात, मृषावाद से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों के सेवन से भारी और पापस्थानों से विरत होने से हल्के होते हैं। पापकर्मों से भारी होने से जीव नीचे (दुर्गति में) गिरता है, उसका संसार बढ़ता है, संसार में वह दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है। इसके विपरीत पापस्थानों से विरत होने वाले हल्के होकर ऊपर उठते (सुगति में जाते) हैं, उनका संसार घटता है, संक्षिप्त होता है और ऐसा जीव संसार-समुद्र को पार कर लेता है। इन दोनों (पापस्थानों से अविरत और विरत होने की) प्रक्रियाओं तुम्बे पर लेप के बढ़ने और घटने के रूपक से भलीभाँति समझाया गया है कि पापस्थानों से युक्त जीव अधोगमन करता है और इनसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है। अतः जब तक व्यक्ति पापस्थानों को स्वेच्छा से, किसी के दबाव के बिना, भय और प्रलोभन या स्वार्थ-कामना से रहित होकर न छोड़े तब तक पापकर्म छूट नहीं सकते। पापस्थानों से विरत होने का उपाय है-व्यक्ति अपने आप (शुद्ध आत्मा) को देखे, अपनी आत्मा को परभावों के प्रति गग-द्वेषादि विभावों से दूर रखे, साथ ही अपनी भावदृष्टि विषय-कषायादि में संलग्न निम्न न रखे, उन्नत रखे, उच्चदर्शी बने। सतत पर-पदार्थों को देखने वाला प्रमादी मानव राग, द्वेप, कषाय, मोह. ईप्या, आवेश, उन्माद, पद आदि से प्राय घिरा रहता है, अपने विषय में वह प्रायः उदास, असहिष्णु, असन्तुष्ट, भ्रान्त, दीनता-हीनता से ग्रस्त बना रहता है, फलतः पापस्थानों से विरत नहीं हो पाता। जवकि आत्मा को आत्मा से सम्प्रेक्षण करने वाला हिंसादि पापस्थानों को परभाव-विभाव समझकर उनसे बचकर प्रवृत्ति करने का अथवा उनसे विरत होने का पुरुषार्थ करता है। पर-पदार्थों की ओर नहीं झाँकने वाला आत्म-सम्प्रेक्षी उत्साहपूर्वक अपना आध्यात्मिक विकास यथाशीघ्र कर लेता है। वह पर-पदार्थों के साथ राग-द्वेप आदि का सम्बन्ध नहीं जोड़ता।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेप, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, रति-अरति, मायामृपा और मिथ्यादर्शनशल्य; ये अठारह ही पापस्थान (पापकर्मबन्ध के कारण) सजीव या निर्जीव पर-पदार्थों (आत्म-वाह्य पदार्थों) को देखने से होते हैं, पर-पदार्थों को लेकर ही हिंसादि पापकर्म होते हैं। अतः कर्मविज्ञान ने क्रमशः प्रत्येक पापस्थान में प्रवृत्ति पर-पदार्थों की ओर देखने से, इसके विपरीत प्रत्येक पापस्थान से निवृत्ति मात्र शुद्ध आत्मा को अपनी आत्मा के समान दूसरी आत्माओं को देखने तथा अनुप्रेक्षण करने से होती है। पर-पदार्थों की ओर देखने से गग-द्वेप मूलक हिंसादि के भाव मन में उत्पन्न होते हैं और तुरन्त अपनी शुद्ध आत्मा तथा आत्म-गुणों तथा स्वभाव का विचार करने से समभाव या उन पापकर्मों के प्रेरक पापस्थानों से विरति के भाव उत्पन्न होते हैं। इसे विभिन्न उदाहरणों द्वारा विस्तार से दो अध्यायों में निरूपित किया है। वस्तुतः संवर और निर्जरा के लिए अठारह ही पापस्थानों से अंशतः या सर्वतः विरत होना आवश्यक है। विरति-संवर का यही सक्रिय उपाय और रहस्य है। ..
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