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* ७० * कर्म सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *
गुण है, स्वभाव है, सम्यग्ज्ञान- दर्शन -चारित्र तपरूप है। इन्हीं का समन्वितरूप कर्ममुक्ति का मार्ग है, ज्ञान, दर्शन, अव्यावाध-सुख (आनन्द) और शक्ति, ये आत्म-स्वभाव धर्म हैं। कर्म आत्मा का स्वभाव नहीं है, न ही आत्मा का निजी गुण है। भावकर्मबन्ध के स्रोत कपाय या राग-द्वेष आदि हैं, जो आत्मा परतंत्रता में, परभावों में जकड़ने- बाँधने वाले हैं। पुण्य और पाप के रूप में शुभ और अशुभ कर्म संसार के मार्ग हैं, वे धर्म की तरह मोक्षमार्ग नहीं हैं। परन्तु बहुधा इस तत्त्व तथ्य से अनभिज्ञ लोग धर्म और शुभ कर्म (पुण्य) को भ्रान्ति, मिथ्यात्व एवं अज्ञानवश एक समझ लेते हैं। धर्म से सांसारिक सुख, सुख के साधन और धनादि की प्राप्ति होना मानते हैं, जोकि प्रायः पुण्य का कार्य है। पुण्य न तो कर्मों को रोकता है और न ही क्षय करता है। शुद्ध धर्म ही कर्मों का निरोध और क्षय कर सकता है। धर्म और पुण्य को एक मानने से शुद्ध धर्म के मूल्यों की हानि हुई है, अधिकांश लोगों का रुझान तप, त्याग, प्रत्याख्यान, नियम, व्रत आदि के आचरण से हटकर प्रायः शुभ कार्य करने अथवा पूर्व पुण्योदयवश धनादि या सुख-साधनादि की प्राप्ति में लग गया है। शुद्ध धर्म के प्रति उन लोगों की आस्था, श्रद्धा, विश्वास एवं पुरुषार्थ शिथिल और मन्द हो गये हैं। एक सच्ची घटना द्वारा इस तथ्य को समझाया गया है। साथ ही धर्माचरण करने और न करने वाले दोनों के जीवन में पूर्वकृत कर्मवश कष्ट आना सम्भव है, किन्तु धार्मिक और अधार्मिक दोनों के कष्ट भोगने में अन्तर से तथा शुद्ध धर्म के कार्य की शुभ कर्म के कार्य से भिन्नता तथा आन्तरिक चेतना में परिवर्तन अपरिवर्तन से भी इन दोनों के पृथक्-पृथक् कार्य एवं परिणाम का अनुमान किया जा सकता है।
धर्म और कर्म की विरोधी दिशाएँ: एक विश्लेषण
धर्म केन्द्र बिन्दु है - जागृति का और कर्म का है - मूर्च्छा या मूढ़ता । जागृति संवर और निर्जरा है, जबकि मूर्च्छा या मूढ़ता आम्रव और बन्ध है। आठ कर्मों में सबसे प्रबल मोहनीय कर्म है, जो आत्मा की शुद्ध दृष्टि (दर्शन) और चारित्र दोनों को सुषुप्त, मूर्च्छित, आवृत और कुण्ठित करता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की शक्ति को आंवृत करते हैं । अन्तराय कर्म आत्मा की दान- लाभ-भोगोपभोग एवं वीर्य की शक्तियों को प्रकट और आचरित नहीं होने देता, वह उन्हें कुण्ठित और विकृत कर डालता है।
शुद्ध धर्म और कर्म के आचरण करने वालों की वृत्ति प्रवृत्ति में अन्तर
संवर और निर्जरारूप शुद्ध धर्म के आचरण एवं पुरुषार्थ से ही पूर्वोक्त चारों आत्म-गुणोंअध्यात्म-शक्तियों को जाग्रत, अनावृत किया जा सकता है। किन्तु मिथ्यात्व आदि पंचविध कर्महेतुओं से बचकर ही पूर्वोक्त शुद्ध धर्म का आचरण किया जा सकता है। शुद्ध धर्माचरणी पुरुष कष्ट, विपत्ति या दुःख आ पड़ने पर समभाव से सहन करता है, निमित्तों को दोष नहीं देता, किन्तु मोह आदि कर्मों से ग्रस्त व्यक्ति कर्मोदयवश दुःख आ पड़ने पर शान्ति, समभाव और धैर्य छोड़ देता है, निमित्तों को कोसने लगता है, समभाव से दुःखों को नहीं सहता । हम देखते हैं कि विश्व के विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के अनुयायी बहुधा उपासनात्मक धर्म को अपनाकर ही धर्माचरण की इति समाप्ति मान लेते हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का आचरण नहीं कर पाते। धर्म को केवल परलोक में सुख प्राप्ति का साधन मानते हैं। अथवा भय एवं प्रलोभन के आधार पर धर्म के बाह्यरूप - क्रियाकाण्ड का आचरण करते हैं। यही कारण है, तथाकथित उपासनात्मक या ज्ञानशून्य क्रियाकाण्डपरक धर्माचरण से उनके जीवन में शान्ति, समता, सहिष्णुता, संयम, त्याग, आभ्यन्तर तपः परायणता के रूप में परिवर्तन नहीं आता. जबकि वास्तविक अहिंसा-संयम-तपरूप धर्म के आचरण से जीवन में उपर्युक्त गुणों का साकाररूप दिखाई देता है।
इसके पश्चात् धार्मिक और अधार्मिक व्यक्ति की दृष्टि रुचि और विशेषताओं का अन्तर भी कर्मविज्ञान ने स्पष्ट किया है। धार्मिक व्यक्ति कर्मजनित और धर्मजनित सुख का विश्लेषण करके कर्मजनित सुख में आसक्त नहीं होता, दुःख में घबराता नहीं, दोनों को समभाव से भोगता है, जबकि अधार्मिक या केवल उपासनात्मक या क्रियाकाण्डपरक धर्म के आचरण को ही वास्तविक धर्माचरण मानने वालों की वृत्ति प्रवृत्ति ऐसी नहीं होती । धार्मिक व्यक्ति चार घातिकर्मों के साथ ही चार अघातिकर्मों का भी क्षय एवं निरोध करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह संवर और निर्जरा के अवसर को नहीं चूकता, साथ ही
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