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(४२) उसका उत्तर डॉ. वंदोपाध्याय ने दे दिया है। उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को सम्मिलित रूप से मोक्ष मार्ग कहा है।
यह पुरोवाक् आचार्य देवेन्द्र मुनि के कर्म विज्ञान ( चारों भाग ) का एक संक्षिप्त प्रारूप है। कर्म विज्ञान में आचार्यश्री ने कर्म तत्व की जो सर्वांगीण और व्यापक विवेचना की है, वह जैन कर्म सिद्धान्त का समग्रभावेन अध्ययन है। आचार्य श्री ने वैचारिक ऊहापोह और सैद्धान्तिक वैमत्य में न जाकर, वस्तुनिष्ठ और विवेक संगति से प्रमाण पुष्ट प्रस्तुति की है। उन्होंने आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि से प्रारंभ कर विभिन्न पक्षों और संदर्भों से इसका प्रतिपादन किया है। प्रमाणनयतत्वालोक (प्र-५५-५६ ) के प्रसिद्ध कथन “प्रमाता प्रत्यक्षादिः प्रसिद्ध आत्मा । चैतन्य स्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद्भोक्ता, स्वदेह परिमाण प्रतिक्षेत्र भिन्न पौद्गलिका दृष्ट्वाश्चायम्” उद्धृत करते हुए उन्होंने कर्म अस्तित्व के मूल आधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म पर विचार किया है। आगे बढ़ते हुए "कर्मवाद का आविर्भाव" अध्याय में शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से " अप्पा सो परमप्पा" की विवेचना की है। इसके साथ ही कर्मवाद के विरोधी मतों का भी विवरण देते हुए जैन धर्मोक्त सिद्धान्तों की संपुष्टि की है। कर्म के विभिन्न अर्थ और रूप उनकी विद्वत्ता का परिणाम है। इसी प्रकार गीता के कर्म, विकर्म और अकर्म अध्याय तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हैं, यही स्थिति सकाम निष्काम कर्म की है। कर्म-विज्ञान का दूसरा खण्ड मूल्यांकन और आलोचनात्मक है, जिसमें उपयोगिता, महत्ता और विशेषता की दृष्टि से कर्मवाद पर सविस्तार विचार किया गया है। कर्मवाद और समाजबाद की विसंगति और संगति की भी मीमांसा की गई है। यह खण्ड कर्म सिद्धांत की वास्तविकता और अर्थवत्ता का प्रामाणिक और वैज्ञानिक अध्ययन है। तृतीय खण्ड में आनव और संवर का अध्ययन है, जिसमें तत्सबंधी सभी पक्ष और आयाम दिए गए हैं। चतुर्थ भाग कर्मबंध का संश्लिष्ट और विशिष्ट अध्ययन है, इसमें कर्म बन्ध पर विविध दृष्टियों से विचार किया गया है। इस प्रकार चार खण्डों में कर्म विज्ञान एक ऐतिहासिक ग्रन्थ बन गया है।
किसी ग्रंथ की रचना अनुबंध चतुष्टय से प्रमाणित होती है। अनुबंध चतुष्टय के लिए कहा गया है
ज्ञातार्थ ज्ञात सम्बन्धः श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते । ग्रन्थादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥
अधिकारी, विषय, संबंध और प्रयोजन - यही अनुबंध चतुष्टय है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अधिकारी वे हैं, जिन्हें जैन धर्म के कर्म विज्ञान का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर अन्य धर्मों के परिप्रेक्ष्य में, उनका सही मूल्यांकन करना है। विषय स्वतः स्पष्ट है । ग्रन्थ का शीर्षक "विज्ञान" है। विज्ञान का अर्थ है, निपुणता, शास्त्रादि का ज्ञान - विशेष ज्ञान ( संस्कृत - शब्दार्थ कौस्तुभ ) इसके अनुसार यह शीर्षक विषय प्रतिपादन के कारण
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