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उत्तराध्ययन में बार-बार प्रभु ने यही देशना दी। (४ / ३, इत्यादि) कर्म के विभिन्न भेद भी जैनाचार्यों की तात्त्विक दृष्टि के प्रमाण हैं। द्रव्य और भाव कर्म मुख्य दो वर्ग है। कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्य भाव विकल्पतः” यों कार्तिकेयानुप्रेक्षा में (९०) पुण्य और पाप रूप कर्मों के दो भेद बताए हैं “कम्मं पुण्णं पावं । पुण्य कर्म शुभ होते हैं और पाप अशुभ | द्रव्य वर्गणा दो प्रकार की हैं, कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा । जीव के द्रव्य कर्म हैं, वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं। भाव कर्म वे हैं, जो आत्मा से अभिन्न रूप से स्ववेद्य प्रतीत होते हैं। वे क्रोधादि रूप हैं। औदारिक, वैक्रियक, आहारक और तैजस नाम कर्म के उदय से चार प्रकार के शरीर के कर्म हैं। पाँचवाँ कार्मण शरीर ही कर्म रूप है। जीव के साथ कर्म बंध इस प्रकार वर्णित है - स्पृष्ट बंध, बंधबंध, निचितबंध, निधत्त बंध। यों तो जीव कर्म बंध करने में स्वतंत्र है पर बंध के उपरान्त वह अपना स्वातंत्र्य खो देता है। पुद्गल परमाणुओ के पिण्डरूप कर्म द्रव्य कर्म हैं और उनके निमित्त से होने वाले राग-द्वेष भाव कर्म हैं। “पोग्गल पिंडो दव्वं तस्सती भाव कम्मं तु। इस विषय पर अधिक न जाकर केवल कषायों से रक्षा के उपाय का उल्लेख करना अपेक्षित है। भगवती आराधना में कहा है, उपशम, दया और निग्रह रूपी तीन शस्त्रों द्वारा कषाय रूपी चोरों से रक्षा होती है। विशुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्र मयमुज्ज्वलम् । यो ध्यायत्यात्मानात्मनं कषायं क्षपयत्यसी (योग सार अमितगति) जय धवला (१-४-९४) कर्म बंधों के लिए कहता है, हिंसा से कर्म बंध होता है, कोई जीव मरे या न मरे निश्चय दृष्टि का यही स्वरूप है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं “कामादिप्रभश्चित्तः कर्म बन्धानुरूपतः” (आत्म मीमांसा) युवाचार्य महाप्रज्ञ ने "प्रज्ञापनासूत्र " के अनुसार कर्म विपाक की पांच शर्तें बतायी हैं--वे हैं, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव एवं उनका गंभीर विवेचन किया है ( कर्मवाद पृ. ७९ ) विशेष दृष्टव्य समणसूत्रं- ज्योतिर्मुख - गाथा ५२-५४ आत्मा का कर्म मुक्त होना ही मोक्ष है। वही मानव जीवन का अंतिम साध्य है, क्योंकि आत्मा निर्मल तत्व है- शुद्ध है- एक स्वरूप है, जो अशुद्धता है, विरूपता व विभेद है, वे पर्याय दृष्टि से हैं “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया” (द्रव्य-संग्रह) "एगे आया" ( स्थानांग सूत्र ) अपने प्रसिद्ध बांग्ला ग्रन्थ "भारतीय दर्शन में मुक्तिवाद" में प्रसिद्ध विद्वान डॉ. विजय भूषण वन्दोपाध्याय कहते हैं "जैन दर्शनानुसार जीव सकल दुःखों का अन्त कर सकता है - यह दुःखान्त अवस्था ही निर्वाण है-जीव सिद्धि लाभ करता है, ज्ञान लाभ करता है, परिनिर्वाण लाभ करता है एवं सभी दुःखों का अन्त करता है - वही मोक्ष है। केवलज्ञान सम्पन्न निरहंकार, वीतराग, अनास्रव एवं शाश्वत परिनिश्च, जन्म जरामयमरण, शोक दुःखभय से परिमुक्तावस्था ही निर्वाण है" (पृ. १५४) मोक्ष, कर्म से मुक्ति है और निर्वाण सिद्धि । डा. ग्लासेनाप्प ने अपने ग्रन्थ " जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त (Doctrine of Karma in Jain Philosophy पृ. ७) में जैन मुक्ति लाभ के विषय में जो शंकाएँ उठायी हैं। (क्या जीव अल्प या अधिक काल के लिए मुक्ति लाभ करता है)
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