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स्थिरता
बाह्य जगत से संबन्धविच्छेद किये बिना और प्रान्तर जगत के साथ, अन्तर्मन से संबंध जोडे बिना मन, वचन और काया में स्थिरता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। जो मनुष्य अपने परिवार में ही खोया रहता है, संबन्ध बढाता है और स्नेहभाव का आदान-प्रदान करता है, उसे परिवार में से हो प्रेम, सुख, स्नेह और आनन्द की प्राप्ति होती है । उसे सुख-शान्ति और आनन्द की खोज हेतु बाहरी जगत में दूसरे लोगों के पीछे भटकना नहीं पड़ता । अपनी खुशी-नाखुशी के लिए उसे दूसरों की कृपा/मेहरबानी पर अबलंबित नहीं रहना पडता । फलत: उसे बाह्य जगत की तनिक भी परवाह नहीं होती। मालवनरेश मदनवर्मा एक ऐसा ही व्यक्ति था, जिसे बाह्य जगत की कोई परवाह नहीं थी। वह अपने अन्त:पुर में ही प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियों में पूर्ण रूप से खो गया था, एक रूप हो गया था । उसने किसी से युद्ध नहीं किया और ना ही किसी के साथ लडाई !
इसी तरह काकंदी के धन्यकुमार ने बत्तीस करोड़ सुवर्ण मुद्रा और बत्तीस नव यौवनाओं का मोह त्याग कर आन्तर जगत से नाता जोडा और स्व-आत्मस्वरूप में लीन होकर स्वर्गीय सुख प्राप्त किया। उनका तन-मन और वाणी-व्यवहार पूर्णानन्द में सराबोर हो गया । रूखा-सूखा आहार और वैभारगिरि के निर्जन वन का उन पर तिल मात्र भी असर नहीं हुआ । स्थिरता के कारण उन्होंने अक्षय सुख, असीम शान्ति और अपूर्व आनंद का खजाना सहजता से पा लिया । तब भला उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से झगडने की, लडाई मोल लेने की जरूरत ही क्या थी ? धन्य है ऐसे त्यागी साधु-श्रमणों को।
स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चेद् दीप्रः संकल्पदीपजैः ।
तद्विकल्परलं धूमैरलं धूमैस्तथाऽऽधवैः ॥६॥२२॥ अर्थ : यदि स्थिरता रूपी रसदीर सदा-सर्वदा देदीप्यमान हो तो भला
संकल्प रूपी दीपशिखा से उत्पन्न विकल्प के धूम्रवलय का क्या काम ? ठीक वैसे ही अत्यन्त मलीन ऐसे प्रागातिपातादिक आश्रवों
की भी क्या जरूरत है ? विवेचन : "मैं धनवान बनू । ऋद्धि-सिद्धियाँ मेरे पाँव छए....!' यह है संकल्प दीप ! मिट्टी का दीया ! मिट्टी से बना हुप्रा !
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