Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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- १.२]
दर्शनप्राभृतम्
तीर्थंकरपरमदेवः किं पूजयति देवान् ? तथा वयमपि न पूजयामः । पञ्चमकाले किल मुनयो न वर्तन्ते । तदयुक्तम् । उक्तं च
भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पृहाः । स्पृष्टाः कैरपि नो नभोविभुतया विश्वस्य विश्रान्तये सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराः सन्तः कियन्तोऽप्यमी ' ॥ मिथ्यादृष्टयः किल वदन्ति - व्रतैः किं प्रयोजनम् ? आत्मैव पोषणीयः, तस्य दुःखं न दति मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरम्, मयूरपिच्छेन आभेटनं बौतिर्भवति (?) । तदसत्यम् । उक्तं च भगवत्याराघनाग्रन्थेरजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च । जत्थे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥
प्रश्न- क्यों नहीं पूजा करते हैं ?
उत्तर - मिथ्यादृष्टि लोग ऐसा कहते हैं कि तीर्थंकर परमदेव क्या किन्हीं देवों की पूजा करते हैं ? जिस प्रकार तीर्थंकर परमदेव किसी की पूजा नहीं करते उसी प्रकार हम भी पूजा नहीं करते । मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि पञ्चम काल में मुनि नहीं होते । परन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कहा है—
भर्तार इति — जो स्वयं मोह को छोड़कर कुलपर्यंतों के समान पृथिवी का उद्धार करनेवाले हैं, जो समुद्रोंके समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों के स्वामी हैं, तथा जो आकाश के समान व्यापक होने से किन्हीं के द्वारा स्पृष्ट न होकर विश्व की विश्रान्ति के कारण हैं; ऐसे अपूर्व गुणों के धारक प्राचीन मुनियों के निकट में रहनेवाले कितने साधू आज भी विद्यमान हैं। अर्थात् पञ्चम काल में साधुओं की विरलता तो हो सकती है, पर उनका सर्वथा अभाव संभव नहीं है ।
'मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि व्रतों से क्या प्रयोजन है ? आत्मा ही पोषण करने योग्य है, उसे दुःख नहीं देना चाहिये । मयूर के पंखों से बनी पिछी सुन्दर नहीं होती, किन्तु सूत से बनी पिछी सुन्दर होती है । मयूर के पंखों से बनी पिछी से तो हिंसा होती है ।" इत्यादि कहना असत्य है, क्योंकि भगवती आराधना ग्रन्थ में कहा गया है ।
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रजसेदाणमिति - धूलि और पसीना का ग्रहण नहीं करना, मृदुता,
१. आत्मानुशासने श्लोक संख्या ३३ |
२. छोतिर्भवति - म ।
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