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अहिंसा: एक परम तप
{22} अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा। एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम्॥
(म.भा.12/79/18) किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना तथा सब के प्रति दयाभाव बनाये रखना- इन्हीं को धीर पुरुषों ने 'तप' माना है। केवल शरीर को सुखाना ही 'तप' नहीं है।
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{23} अहिंसा सत्यमक्रोधः, सर्वाश्रमगतं तपः॥
(म.भा.12/191/15; ना. पु. 1/43/116) किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना और मन में क्रोध न आने देनाये सभी आश्रमों से सम्बन्धित 'तप' हैं।
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{24} अहिंसैव परंतपः।
. (प. पु. 3/31/27; म. भा. 13/115/23;
13/116/28; स्कं. पु. ब्रह्म/धर्मारण्य/36/64) अहिंसा ही 'परम तप' है।
{25} परोपघातो हिंसा च पैशुन्यमनृतं तथा। एतान्संसेवते यस्तु तपस्तस्य प्रहीयते॥
(ना. पु. 1/44/12) जो व्यक्ति दूसरों पर प्रहार करता है, उनका वध करता है, असत्य बोलता है तथा दूसरे की चुगली करता है, उसका तप क्षीण हो जाता है।
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अहिंसा कोश/7]