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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १ : श्लोक २-३ टि० ३-८
सकते हैं।
अथवाची मसन को शिथिल करते हुए देख
में वहां आज्ञा का अर्थ
३. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है। इसे निपुण-मति वाले लोग ही समझ सकते हैं। है (आणानिद्दसकरे)
आकार को स्थूल बुद्धिवाले लोग भी पकड़ सकते हैं। चूर्णि के अनुसार 'आज्ञा' और 'निर्देश' समान अर्थवाची आसन को शिथिल करते हुए देख सहज ही यह जाना जा हैं। वैकल्पिक रूप में वहां आज्ञा का अर्थ आगम का उपदेश
सकता है कि ये प्रस्थान करना चाहते हैं। इसी प्रकार दिशाओं और निर्देश का अर्थ-आगम से अविरुद्ध गुरु-वचन किया
को देखना, जम्भाई लेना और चादर ओढ़ना-ये सब प्रस्थान गया है।
की सूचना देने वाले 'आकार' हैं।' ___ 'शान्त्याचार्य ने आज्ञा का मुख्य अर्थ-आगमोक्त विधि
इंगित और आकार पर्यायवाची भी माने गए हैं। और निर्देश का अर्थ-प्रतिपादन किया है। गौण रूप में आज्ञा ६. जानता है (सपन्न) का अर्थ-गुरुवचन और निर्देश का अर्थ- "मैं यह कार्य चूर्णि और सुखबोधा में इसका अर्थ 'युक्त' और आपके अनुसार ही करूंगा"-- इस प्रकार का निश्चयात्मक बृहवृत्ति में 'सम्प्रज्ञ' (जानने वाला) एवं ‘युक्त'-दोनों अर्थ विचार प्रकट करना है।
किए गए हैं। यहां बृहवृत्ति का सम्प्रज्ञ अर्थ अधिक उपयुक्त उनके सामने 'आणानिद्देसयरे' पाठ था। अतः उन्होंने लगता है। 'यर' शब्द के 'कर' और 'तर' दोनों रूपों की व्याख्या की ७. गुरु की शुश्रूषा नहीं करता (अणुववायकारए) है--आज्ञा-निर्देश को करने वाला और आज्ञा-निर्देश के द्वारा अविनीत शिष्य का गुरु की उपासना में मन नहीं लगता। संसार-समुद्र को तरने वाला। आगे लिखा है कि भगवद्वाणी के वह गुरु से मानसिक दूरी बनाए रखता है। उसके मन में सदा अनन्त पर्याय होने के कारण अनेक व्याख्या-भेद संभव हो यह भाव बना रहता है कि यदि मैं गुरु की उपासना करूंगा तो सकते हैं। किन्तु मन्दमतियों के लिए यह व्यामोह का हेतु न बन उपालंभ देने का मौका अधिक मिलेगा। वह इस सत्य को विस्मृत जाए, इसलिए प्रत्येक सूत्र की व्याख्या में अनेक विकल्प करने कर देता है कि गुरु की प्रताड़ना में भी व्यक्ति का विकास एवं का प्रयत्न नहीं किया है।
हित निहित है। नीति का यह प्रसिद्ध श्लोक इसी तथ्य को ४. शुश्रूषा करता है (उववायकारए)
प्रतिध्वनित करता हैचूर्णि में इसका अर्थ 'शुश्रूषा करने वाला और टीका में त्रीभिर्गुरुणां परुषाक्षराभिः, प्रताडिताः यान्ति नराः महत्त्वम् । इसका अर्थ 'समीप रहने वाला'५-जहां बैठा हुआ गुरु को अलब्धशाणोत्कषणा नृपाणां, न जातु मौली मणयो वसन्ति।। दीखे और उनका शब्द सुन सके, वहां रहने वाला अर्थात् आदेश ८. (पडिणीए असंबुद्धे) के भय से दूर न 'बैठने वाला' किया गया है। उपपात, निर्देश, जो गुरु की आज्ञा के प्रतिकूल वर्तन करता है, गुरु के आज्ञा और विनय इन्हें एकार्थक भी माना गया है।
कथन का प्रतिवाद करता है और जो सदा गुरु के दोष देखता ५. इंगित और आकार को (इंगियागार)
रहता है, वह प्रत्यनीक कहलाता है। इंगित और आकार-ये दोनों शब्द शरीर की चेष्टाओं जो मुनि गुरु के इंगित और आकार का सम्यक् के वाचक हैं। किसी कार्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति के लिए शिर अवबोध नहीं करता, वह असंबुद्ध होता है। आदि को थोडा-सा हिलाना इंगित है। यह चेष्टा सूक्ष्म होती यह श्लोक पूर्ववर्ती श्लोक का प्रतिपक्षी है। वृत्ति में
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : आज्ञाप्यतेऽनया इति आज्ञा, निर्देशन निर्देशः, आजैव निर्देशः, अथवा आज्ञा-सूत्रोपदेशः, तथा निर्देशस्तु तदविरुद्धं गुरुवचनं, आज्ञानिर्देशं करोतीति आणाणिद्देसकरो। बृहद्वृत्ति, पत्र ४४ : आडिति स्वस्वभावास्थानात्मिकया मर्यादायाऽभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञा-भगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देश-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनममाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेत्येवमात्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्टानो वा आज्ञानिर्देशकरः, यद्वाऽज्ञा-सौम्य! इदं कुरु इदं च मा कार्षीरिति गुरुवचनमेच, तस्या निर्देश-इदमित्यमेव करोमि इति निश्चयाभिधानं
तत्करः । ३. वही, पत्र ४४ : आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोधिमित्याज्ञानिर्देशतर
इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद् भगवद्वचनस्य व्याख्याभेदाः सम्भवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतुतया बालाबालादिबोधोत्पादनार्थत्वाच्चास्य प्रयासस्य
न प्रतिसूत्रं प्रदर्शयिष्यन्ते। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : उपपतनमुपपातः शुश्रूषाकरणमित्यर्थः । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४ : उप-समीपे पतनं-स्थानमुपपातः दृगुवचनविषय
देशावस्थान तत्कारकः तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादेशादिभीत्या तद्व्यवहित
देशस्थायीति यावत्। ६. व्यवहारभाष्य, ४/३५४ : उववाओ निदेसो आणा विणओ य होति
एगट्ठा। ७. बृहद्वृत्ति पत्र ४४ : इंगित-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद्
भूशिरःकम्पादि, आकारः स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादि भावाभिव्यंजको दिगवलोकनादिः आह च"अवलोयणं दिसाणं, वियंभणं साडयस्स संठवणं।
आसणसिदिलीकरणं, पट्टियलिंगाई एयाई।।" ८. (क) अभिधानष्पदीपिका, ७६४ : आकारो इंगित इंगो
(ख) वही, ६८१ : आकारो कारणे वुत्तो, सण्ठाने इंगितेपि च। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २७ : संपन्नवान् संपन्नः।
(ख) सुखबोधा पत्र १ : सम्पन्नः युक्तः। (ग) बृहवृत्ति पत्र ४४ : सम्यक् प्रकर्षेण जानाति इंगिताकारसम्प्रज्ञः,
यद्वा-इंगिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचारादिगिताकारशब्देनोक्तं, तेन सम्पन्नो-युक्तः ।
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