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श्रीः। ग ११४ "
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VARKARiekasी सम्पाते हैं हालय
साधु श्रीअनाथदासजी विरचितयार साधु श्रीगोविंददासकृत टीकासहित । पंडित श्रीरघुवंशशर्म विशोधित
सर्व मुमुक्षुओंके हितार्थ हरिप्रसाद भगीरथजीने
बम्बई
।
"गुजराती " छापखानेमें छपायके प्रसिद्ध किया.
आवृत्ति पहली. संवत् १९६७. सन १८३२.
यह ग्रंथ १८६७ के ऐक्ट २५के अनुसार रजिस्टर किया है.
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दोहा
हह अर्ध श्लोक कार कहत हूं, कोटि ग्रंथको सार ॥
ब्रह्म सत्य मिथ्या जगत, जीव ब्रह्म निर्धार ॥ १॥ २. ब्रह्मरूप अहि ब्रह्मवित, ताकी वानी वेद ॥
भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रमछेद ॥ ३ ॥
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प्रस्तावना. सर्वे सिद्धान्तशिरोमणि वेदान्तसिद्धान्तही मुमुक्षुको उपादेय है । इसके ज्ञानार्थ सूत्र भाष्य आदि अनेक संस्कृत ग्रन्थ होनेपरभी उनमें संस्कृतानभिज्ञ साधारण पुरुषोंकी प्रवृत्ति अशक्य समझकर परम दयाल साधु श्रीअनाथदासजीने इस ग्रन्थके अष्टम विनामके ४० वें दोहेके लेखानुसार अपने मित्र श्रीनरोत्तमपुरीजीकी सूचनासे यह " श्रीविचारमाला" नामकर११ दोहावद्ध भाषाग्रन्थ वनाया. इसमें सर्व वेदान्त प्रन्योंका गूढ रहस्य प्रतिपादित है. इसकी कविता उत्कृष्ट है और यह वेदान्तविषयक भाषाग्रन्थों में सर्वोत्तम तथा प्रथम है, क्योंकि आजसे २४१ वर्ष पहले यह लिखा गया है. इस ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय इतना गहन और सूक्ष्म है कि टीका विना हृदयंगम होना अतिकठिन है. इसपर एक सुविस्तृत संस्कृतटीका तथा ८००० आठ हजार श्लोक भापाटीका है. उक्त दोनों टीका मन्दप्रज्ञ पुरुपोंके लिये अनुपयुक्त जानकर असाधारण प्रतिभाशाली दादूपंथी श्रीगोविन्द दासजीने वावा वनखंडीके शिष्य श्रीहरिमसादजीकी इच्छासे यह " बालबोधिनी " नामक टीका रची. यह टीका सुगम रूपसे इस ग्रन्थका आशय खोलनेवाली होनेके कारण सर्व साधारण मुमुक्षुओंको अत्युपयोगी जान "पं. हरिप्रसाद भगीरथजी मा. पु. " के अध्यक्ष श्रीमान् पं. " व्रजवल्लभ हरिप्रसादजी " ने शास्त्री रघुवंशशर्मा द्वारा शोधन कराके छपाया, आशा है कि विचारशील पाठक इसका अभ्यास कर दृष्टि दोषोंको क्षमा करतेहुए इस परिश्रमको सफल करेंगे.
शोधक.
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अथ श्रीविचारमालाकी मार्गदर्शक अनुक्रमणिका..
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प्रसंग अंक.
प्रथम विश्रामकी अनुक्रमणिका १.
शिष्यकी आशंका १-२३० विषय. टीकाकारकृत ममलाचरण... मूलग्रंथकारकृत मंगलाचरण. .... .... .... चारि मौनविष ज्ञानमौनका स्वरूप..... ..... .... कृतघ्नताकी निवृत्तिअर्थ गुरुस्तुति..... ..... शरणागत शिष्यको गुरुके प्रति प्रार्थना. ...... हृदयगत दुःखके हेतुका कथन. .... .... आसुरीगुण?विषै नदीका रूपक औ दुःखहेतुकथन. मनगत चंचलताळू दुःखकी हेतुता. .... ... चंचलताके हेतु संशयोंका कथन. .... .... ..... शिष्यके प्रश्नोंके उत्तरका आरंम. .... .... .... मनगत चंचलताकी निवृत्तिका उपाय. ... .... सुगम उपायके जाननेकी इच्छा करि शिष्यको प्रार्थना. गुरुकरि सुगम उपाय ( सत्संग ) का कथन. .... ग्रंथकारकरि गुरुका महिमा. ... .... ...
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अनुक्रमणिका.
विषय.
प्रसंग अंक. द्वितीय विश्रामकी अनुक्रमणिका २.
सत्संगमहिमा २३-४७ संतोंके लक्षणका प्रश्न और उत्तर..... .... .... ... .... १५ संतोंके दोमांतिके लक्षणका विभाग. सत्संगका महिमा.
..... .... १७ चक्रवर्ति राजासे ब्रह्माके और मोक्षके सुखः सत्संगसुखकी अधिकता. १८ फिर सत्संगकी स्तुति. .... .... .... .... ..... १९-२३ मोक्षके चारि द्वारपाल. .... .... .... ... .... २४ सत्संगकी श्रेष्ठतामें प्रमाण. .... .... .... .... .... २५
तृतीय विश्रामकी अनुक्रमणिका ३.
सप्तज्ञानभूमिकावर्णन ४७-६१ मोक्षमार्गके उपदेशकी दुर्गमता. .... .... .... ..... संतोंकी समीपता मात्रसे बोधका संभव, सप्तभूमिका नाम । फिर प्रश्न. .... शुभइच्छा नाम प्रथमभूमिका. .... सुविचारणा नाम द्वितीयभूमिका. तनुमानसा नाम तृतीयभूमिका. : सत्वापत्ति नाम चतुर्थभूमिका.
असंसक्ति नाम पंचमभूमिका.
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अनुक्रमणिका.
विषय.
9000
पदार्थाभाविनी नाम पष्ठभूमिका, तुरीया नाम सप्तमभूमिका औ ग्रंथाभ्यासफल.
D400
ज्ञानके साधनका प्रश्न
ज्ञानसाधनका कथन.
140.
स्त्रीमें दूषण. अष्टमांतिका मैथुन और ब्रह्मचर्य. पुत्रग्रह औ धनमें दूषण. एकादश दोहोंकर कहे अर्थका कथन. जगत्की आसक्तिके त्याग में जगत्विषे समुद्रका रूपकजगत्की आसक्ति और विषयकी विस्मृति में सुखरहित विषयों में विना विचार प्रवृत्ति. विषयीकी निर्लज्जता और ताके त्यागमें प्रमाण. मुमुक्षुके अन्य साधन और पलिंगसहित श्रवण. मननका स्वरूप और फल.
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चतुर्थ विश्रामकी अनुक्रमणिका ४. ज्ञानसाधनवर्णन ६२ - १००.
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निदिध्यासनका स्वरूप और फल. दृढवोधते कर्तव्याभाव और प्रथाभ्यास फल,
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प्रसंग अंक.
३६.
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३८
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४०
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४२-४४
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1499
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अनुक्रमणिका.
विषय,
प्रसंग अंक. पंचम विश्रामकी अनुक्रमणिका ५.
जगतकी आत्मस्वरूपता १०१-११४. जगत्के मिथ्यात्वविषे प्रश्न और उत्तर. .... .... .... ६२-६३ अभोक्ता चैतन्य आत्माकी षट् उर्मी और विकारसे रहितता.... १४ आत्मामें मिथ्या तीन शरीरकी प्रतीतिका संभव. ज्ञानशून्य पुरुषको निदा. .... .... .... .... .... ६६ उपाधिसे ब्रह्ममें जगत्की प्रतीति .... .... .... .... ६७ जगतकी विवर्तरूपतामें दृष्टांत. .... .... ... .... ६८ जगत्की अनिवाच्यता. .... .... .... .... .... ६९
षष्ठ विश्रामकी अनुक्रमणिका ६०
जगत्का मिथ्यात्व ११५-१२७. नगतके मिथ्यापनेकी रीतिका प्रश्न औ उत्तर. .... ... ७०-७१ मिथ्या जगत्की प्रतीतिमें शंका समाधान. .... ... .... ७२-७३ आत्माते भिन्न जगतकी असता. .... .... ... .... ७४-७५
सप्तम विश्रामकी अनुक्रमणिका ७.
शिष्य अनुभव १२५-१४० शिष्यकरि गुरुद्वारा ज्ञात अर्थको प्रकटता. ... .... .... शिष्यका स्वानुभव. .... .... उक्त अर्थमें दृष्टांत सिद्धांत..... .... ... .... आत्माके कार्यकारणभाव और तीन भेदका निषेध. .... ...
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अनुक्रमणिका... विषय.
प्रसंग अंक. आत्माकी संख्या और नामका निषेध....... .... .... ....८०-८२ स्वानुमव कहिके मौनमये शिष्यकी ओर गुरुका देखना. .... ८३
अष्टम विश्रामकी अनुक्रमणिका ८.
आत्मज्ञानीकी स्थिति १४१-१७३ ग्रंथकारकी उक्ति..... ...... .... .... .... .... ८४ शिष्यकी परीक्षार्थ प्रश्न (ज्ञानीका अल्प व्यवहार ).... .... ८५ प्रारब्धाधीन ज्ञानीके व्यवहारका अनियम. .... .... .... ८६-८७ ज्ञानीकू कर्तृत्वादिका अमिमान और तामें हेतु.. ...... ज्ञानीकं कर्मका अलेप. .... .... .... .... " योगी ज्ञानीकी निष्ठा. .... .... .... .......... ९१ . विद्वानकू इष्टानिष्टसे हर्षशोकाभाव. .... .... ... .... ९२ शिष्यका सिद्धांत और श्लाघा. .... .... .... .... ९३-९४ समग्र ग्रंथ उक्त अर्थका कथन. .... .... .... ....९५-९६ ग्रंथका अधिकारी और श्लाघा. .... .... . .... .....९७-९८ तत्त्वविचारका महिमा औ ग्रंथकारकी कवियोंसे प्रार्थना. .... ९९-१०० ग्रंथरचनाका हेतु और ग्रंथमहिमा..... .... .... .... १०१-१०२ जिन ग्रंथोंका अर्थ यामें लिया है, तिनके नाम और ग्रंथफल. १०३-१०४ टीकाकारकी उक्ति (टीकाका वर्णन, काल, स्थान.) ..... १०५-१०६
इति श्रीविचारमालाया अनुक्रमणिका.
८८-८९
समाप्ता.
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BA
तत्सद्रह्मणे नमः
अथ गोविंददासकृत बालबोधिनीटीकासहित
विचारमाला.
शिष्य - आशंकावर्णनं नाम प्रथमविश्रामप्रारंभः ॥ १ ॥ (१) दोहा - गणपति गिरिपति गोपति, गिरिजा गौरि दिनेश ॥ ईश पंच मम दासके, हरो सु. पंच क्लेश ॥ १ ॥ श्रीगुरु दासगोपाल नति, सत सुख परमप्रकाश ॥ जिन पदरज शिर धारकर, सहविलास तमनाश ॥ २ ॥ श्रीमत् हरिप्रसादजू, चिद-:
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विचारमाला... : : वि. १.. वपु रहितप्रछेद ॥ विद्याप्रद गुरु तिहिनमो,जिह प्रसाद गत खेद ॥३॥ गुरु जुग पंच मनाइके यिह धरनिज उपकार। विचारमाल टीकारचूं, बालबोधिनी सार॥४॥
(२) ननु-टीका करणे लगे तो टीकाका लक्षण कहा चाहिये; काहेत लक्षणअरु प्रमाणकर वस्तुकी सिद्धि होवै है? तहां सुनोः-वाक्यके पद भिन्नभिन्न कहणे, औ पदोंके अर्थ कहणे, औव्याकरणके अनुसार पदोंकी व्युत्पत्ति करणी, औ वाक्यके पदोंका अन्वय (संबंध ) करणा,
औ वाक्यके अर्थमैं शंका होवै ताका समाधान करणा: इन पंचलक्षणवाली टीका कहिये है। अब ग्रंथके आरंभमें करणीय जो मंगल तिसके प्रयोजन कहै हैं; काहेत? प्रयोजन विना मंदभी प्रवृत्त होवै नहीं:-ग्रंथकीः निर्विन समाप्ति औ श्रेष्ठाचार औ ग्रंथकर्तामै नास्तिकभ्रांति
की निवृत्ति इत्यादिक मंगलके प्रयोजन हैं. सो मंगल : वस्तुनिर्देशरूप औ आशीर्वादरूप औ नमस्काररूप मेंदत त्रिधा है । सगुण वा. निर्गुण परमात्मा वस्तु
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वि०१. शिष्यआशंका कहिये वस्तुनिर्देश है, तिसका निर्देश कहिये कीर्तन कहिये है। स्व वा शिष्यके वांछितका अपने इष्टदेवसैं प्रार्थन आशीर्वाद. कहिये है। अब तिनमैस ग्रंथके प्रयोजनका दिखावते हुए नमस्काररूप मंगल करै हैं:दोहा-नमो नमो श्रीरामजू, सत चित आनंदरूपः ॥ जिहि जाने जगस्वप्नवत,
नासतभ्रम तम कूप.॥१॥ । टीकाः-श्रीसहित जो सगुण राम है, ताकेताई न
मस्कार है औ सत् चित् आनंदस्वरूप जो निर्गुण ब्रह्म है, ताके ताई नमस्कार है । जू शब्दका देहलीदीपककी न्याई दोनों ओर संबंध है । सत्य कहिये त्रिकाल अबाध्य, चित् कहिये अल्लप्स प्रकाश, आनंद कहिये दुःखसंवधर्ते रहित निरतिशयसुखरूप, जिसके साक्षात्कारतें अविद्या ततकार्य रूप जगत् निवृत्त होवे है । दृष्टांतः-जैसे जाग्रत्के ज्ञानतें स्वप्न जगत् निवृत्त होवै है तद्वत् । काहेत भ्रमरूप होनेत । कैसा जगत है, तमकूप कहिये
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विचारमाला.
वि. १
अर्धकूपकी न्यांई दुःखदाई है । ब्रह्मज्ञानतें अविद्या तत्कार्यरूप अनर्थकी निवृत्ति कही, सो परमानंदकी प्राप्तिसें विना नै नहीं, याते परमानंदकी प्राप्ति अवश्य होवै है; सो ग्रंथका प्रयोजन है ॥ १ ॥ पूर्व कहे अर्थमे शंकापूर्वक उत्तर
४
दोहा - राम मया सतगुरुदया, साधुसँग जब होय ॥ तब प्रानी जाने कछू, रह्यो विपयरस भोय ॥ २ ॥
टीका:-वादी शंका करे है:- कछू कहिये तुच्छ जो विषयसुख,तामे रह्यो भोय कहिये आसक्त हुआ जो जीव, सो ब्रह्मकूं कैसे जाने है ? उत्तरः- साधु कहिये आगे कहने हैं लक्षण जिनके संग कहिये तिनमें निष्काम प्रीति । राममया कहिये ईश्वरके ध्यानकर जो चित्तकी एकाग्रता औ सतगुरु कहिये यथार्थगुरू, अर्थात् ब्रह्मश्रोत्री ब्रह्मनिष्ठ, तिनकी दया कहिये शिष्यकं तत्त्व'साक्षात्कार होवे इस संकल्पपूर्वक जो महावाक्यका उप
?
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वि० १.
शिष्यआशंका.
देश, सो जब होंवै तब प्राणी कहिये प्राणधारी जीव, जानै कहिये ब्रह्मको अपना आत्मा जानै है । सो ब्रह्म आत्माका अभेद इस ग्रंथका विषय है। अधिकारी अनुबंध चतुर्थविश्राम मैं कहेंगे, प्रयोजन अनुबंध प्रथम दोहेमैं कहा, इन तीनों के बननेसें संबंध अनुबंध अर्थतें सिद्ध होवै है || २ || इस रीति अनुबंध कहकर अब ग्रंथके रचने की प्रतिज्ञा करे हैं:दोहा - पदवंदन आनंदयुत, करि श्री देव मुरारि ॥ विचारमाल वरनन करूं, मौनी जू उर धारि ॥ ३ ॥
टीका:- मैं अनाथ दास विचारमाला संज्ञक - ग्रंथकूं रचता हूं, क्या करके, आनंद कहिये सुखस्वरूप तिसकरि युत औ श्री कहिये सतस्वरूप तिसकरि युत औ देव कहिये प्रकाशरूप निर्गुण ब्रह्मकूं नमस्कार करके । ननु इ-हां श्रीयुतशब्दका सत्य अर्थ होवै, तो श्रीनाम शोभाका है, तिसवाले आविद्यक पदार्थ सत्य कहे चाहिये? उत्तरः- विद्वानकी दृष्टि मैं अविद्या तत्कार्य सर्व असत है
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६
विचारमाला.
वि० १.
यातें श्रीयुतपदका सतही अर्थ है । औ सुरारि कहिये मुरनाम दैत्यके हंता जो सगुणब्रह्म, ताके चरणोंकूं नमस्कार करके | यद्यपि मुरारि संज्ञा वैकुंठवासी चतुर्भुज मू र्तिकी है तथापि सो मूर्ति सगुण ब्रह्म ही धारण करी है। जो जिज्ञासु या ग्रंथकूं हृदयमें धारण करे सो मौनी है वा इस पदका और अर्थ करनाः - मौनी जो हमारे गुरु हैं तिनका हृदय में स्मरण करके ॥ ३ ॥ ( ३ ) किं मौन ? इस प्रश्नका अभिप्राय यह है :मौन चार प्रकारका है, बाणीका मौन [१] औ इंद्रियोंका [२] औ मानस [३] चतुर्थ ज्ञानमौन है [४] तिनमें कौन मौन तुमारे गुरोंने अंगीकार किया है तहां तुरीयपक्ष मानकर कहै हैं:दोहा - यह मैं मम यह नाहिं मम, सब विकल्प भै छीन । परमातम पूरन सकल, जानि मौनता लीन ॥ ४ ॥ टीका:--सकल कहिये अन्नमयादि पंचकोशनतें परे जा आत्मा ताकूं. पूरण कहिये ब्रह्मरूप जानकर. यह क
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वि० १.
शिष्यआशंका. हिये पंचकोशही मेरा स्वरूप है अथवा नहीं; यह पंचकोश मम कहिये मेरा दृश्य है वा नहीं, इत्यादि विकल्प कहिये संशयोंकी निवृत्तिरूप मौन; ताकू अंगीकार कि: या है । यामै श्रुतिप्रमाण है:-"तिस परब्रह्मके साक्षात्कार होया इस पुरुषकी हृदयग्रंथि औ सर्व संशय तथा सर्वकर्म निवृत्त होवे हैं ॥४॥
(४) "जितना काल पुरुष जीवे उतनकाल गुरु, शास्त्र, ईश्वर, तीनोंकू वंदना करे" यह शास्त्रमैं कहा है। यात् कृतघ्नताकी निवृत्ति अर्थ उरोंकी स्तुति करै हैं:• दोहा-मात तात भ्राता सुहृद,इष्टदेव नृ
प प्रान ॥अनाथ सुगुरुसबतें अधिक,दा नज्ञान विज्ञान ॥५॥ टीका:-अनाथदासजी कहे हैं:-परोक्ष प्रत्यक्ष ज्ञानके देनेवाले जो गुरु सो माता, पिता, भ्राता, सुहृद कहिये प्रतिउपकारकू न चाहकर उपकार करै, इष्टदेव कहिये 'अपने कुलकरके पूज्य देव विशेष, नृप औ अपने
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वि० १०
विचारमाला :
•
प्राण इन सबतें अधिक है; माता आदि काहेते सर्व जन्मद्वारा सातिशय आदि अनेक दूषणकर दूषित जो विषयसुख ताके देनेवाले हैं औ गुरुज्ञानद्वारा निरतिशय जो मोक्षसुख, तिसके देनेवाले हैं. इति भावः ॥५॥ पुनः स्तुति कहै हैं:
दोहा - प्रगट हमि गुरु सुरति, जन मन नलिन प्रकाश ॥ अनाथ कुमोदनि विमुख जन, कबहु नहोत हुलास॥ ६ ॥ टीका:- अनाथदासजी कहै हैं:- सूर्यवत प्रकाशतेहुए गुरु पृथ्वीतलमैं प्रसिद्ध हैं, क्या करके प्रकाशते - हुए ? जिज्ञासु जनों के हृदयरूप कमलोंको अपने वचनरूप किरणोंकर प्रफुल्लित करते हुए, अनधिकारी ज नरूप जो कुमोदिनियां सो कभी आल्हादकूं पावैं नहीं । जैसें सूर्यके उदय हुए उल्लूककों प्रकाश होवे नहीं तेलें ॥ ६ ॥
अब गुरुकृत उपकारको अन्वय व्यतिरेकद्वारा दो दोहोंकरि, दिखावे हैं:
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वि० १. शिष्यआशंका
दोहा-टेरत सद्गुरु मयाकरि, मोहनींद सोवंत ॥ जग्यो ज्ञानलोचन खुलै, सुपनो 'भ्रम बिसरंत ॥ ७॥
टीका:-कृपाकर गुरोंके टेरेत कहिये तत्त्वका उपदेश करतेही ज्ञान जग्यो कहिये स्वरूपज्ञान निरावरण भयो, जो मोह कहिये अज्ञानकरि आवृत था; इहां आवृतपदका अध्याहार है । यामैं गीतांवचन प्रमाण है:"अज्ञानकरि आवृत जो स्वरूपज्ञान तिसकर जीव मोहित होवे हैं " अब इसका फल कहै हैं:-भ्रम बिसरंत कहिये अहंकारादि अध्यासकी निवृत्ति होवै है । दृष्टांतः-- जैसे निद्रासैं उठे पुरुषका नेत्रके खुलनेसैं स्वप्न अध्यास निवर्त होवे है॥७॥ दोहा-गुरुबिन भ्रमलग भूसियो, भेदलहे बिन स्वान। केहरि बपु झांई निरखि, पयो कूप अज्ञान ॥८॥ . टीका:-गुरुकी प्राप्तिसैं विना अद्यपर्यंत भ्रमलग
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वि० १.
१० विचारमाला. कहिये भ्रमरूप शरीरं दोमें अध्यास करके भूस्यो कहिये मैं जन्मता मरता हों, कर्ता भोक्ता हों, सुखी दुःखी हों, ऐसें अन्यथा वकता भया । दृष्टांतः-जैसे कूकर, शीसमहलमैं प्रविष्ट हुआ अपने प्रतिबिंबोंको आपसे भिन्न मानकर भूसे तैसे ! अन्य दृष्टांतः-जैसे उन्मत्त सिंह, कूपजलमें अपने प्रतिबिंबोंको देखके अपने स्वरूपकुं न जानकर कूपमें गिरे तैसे ॥८॥
ननु ऐसे गुरु कहीं परोक्ष होवैगे ? यह शंकाकर
दोहा-प्रगट अवनि करुनारनव, रतन ज्ञान विज्ञान ॥ वचन लहरि तनुपरसते,
अज्ञो होत सुजान ॥९॥ टीका:-करुणाके समुद्र गुरु पृथ्वीपर प्रगट हैं । समुद्रकी जो उपमा दई गुरोंको तामें हेतु कहे हैं:-लहरी स्थानापन्न वचनोंका तनु परसते कहिये श्रोत्रंद्रियसे संबं. ध होते ही, रत्नस्थानापन्न ज्ञानविज्ञानद्वारा अज्ञो कहिये अज्ञानी जीव ते सुजान कहिये परमेश्वररूप होवे हैं।।९।।
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. वि० १.
शिष्यआशंका.
११
ननु गुरोंकी कृपातैही ज्ञानप्राप्ति होवे तो वैराग्यादि ज्ञानके साधनों का कथन निष्फल होवैगा ? या शंकाके होयां कहै हैं:
दोहा - सूर दरस आदरस ज्यों, होत अग्नि उद्योत ॥ तैसे गुरुप्रसादतै, अनुभव - निरमल होत ॥ १० ॥
टीका :- दृष्टांत :- जैसे रविके दर्शन ते रविके प्रसादकर आदरसे कहिये आतशी ही अनि प्रगट होवे है, अन्य में नहीं; तैसे गुरोंकी कृपाते निरमल कहिये संशय विपर्ययरूप मलसे रहित बोध, शिष्य के हृदय में ही होवैहै, अन्यके नहीं; औ साधनसंपन्नही शिष्य कहा है, यात साधन निष्फल नहीं ॥ १० ॥
ननु ऐसे होवे तो गुरु, विषम दृष्टिवान् होवेंगे ? या शंकाकों चंद्रदृष्टांत से दूर करे हैं:दोहा - जिमिचंदहि लहि चंद्रमनि, अमी द्रवत तत्काल ॥ गुरुमुख निरखत शिष्यके, अनुभव होत विशाल ॥ ११ ॥
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१२ विचारमाला.. वि०:१. .
टीका:-दृष्टांतः-जैसे चंद्रके प्रकाशको पाइकर चंद्रकांतमणिही अमृतकों सागै है अन्य नहीं, सो कछू चंद्रमैं विषमता नहीं, काहे चंद्र, समान सबकों प्रकाश करै है, तैसें गुरोंके दर्शन विशाल कहिये ब्रह्मबोध शिष्यकोंही होवे है अन्यको नहीं, सो कछु गुरुमें विषमता नहीं; काहेतें गुरोका दर्शन सर्वको समान है११
(५) ऐसे गुरोंकी शरणकुं प्राप्त होकर शिष्यको क्या करणीय है ? इस आकांक्षाके होयां कहै हैं:शिष्यउवाचःदोहा-हौं सरनागत रावरे, श्रीगुरु दीन- . दयाल ॥ कृपासिंधु वंदूं चरन, हरो क.. ठिन उरसाल॥ १२॥ टीका:-हे श्रीउरो ! सर्व ओरतें निरास हो कर मैं दीन आपकी शरणकुं प्राप्त भया हों, जाते आप दीनदयाल हो औ आपके चरणोंकू वंदन करता हूं! औ: जातें आप कृपासागर हो; याते कठिन कहिये पीन जो . मेरे हृदयमें साल कहिये दुःख है सो हरो॥ १२ ॥
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वि० १. शिष्यआशंका... १३
• (६) अब हृदयगत दुःखके हेतुकू दिखावता हुआ, शिष्य कहे है:
दोहा-हौं अनाथ अतिसे दुःखी, डो 'देखि संसार॥ बूड़तहौं भवसिंधुमें, मोहि करो प्रभु पार ॥ १३॥ टीकाः हे प्रभो ! मैं अनाथ कहिये मेरा कोई रक्षक नहीं, औ अतिशयकर दुःखी हूं। काहेते, विषयसुखा मैंने त्याग्या है औ स्वरूपसुखको प्राप्त भया नहीं औ जन्ममरणरूप संसारजन्य दुःखका स्मरण कर भयभीत भया हों, ऐसे संसाररूप समुद्रमें डूबता जो मैं हों ता मुजकों पार कहिये संसारका पार जो परमेश्वर तहां प्राप्त करो ॥ १३॥
पुनः हेतु अंतरको दिखावै हैं:दोहा-आसा तृष्णा चिंत बहु, ए डायन घरमांहि ॥ जीवन किहि विध होय मम, हृदे स्मृतीकू खांहि ॥ १४ ॥
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विचारमाला. वि. १.. टीका:-आशा कहिये वांछित विषयकी निरंतर इच्छा, तृष्णा कहिये विषयकी प्राप्तिसैं अतृप्त वृत्ति, चिं. ता बहु कहिये अप्राप्त विषयके साधनका चिंतनरूप औ प्राप्त विषयकी रक्षाका चिंतनरूप वृत्ति, यह त्रितय वृत्तिरूप जो डायन, अंतःकरणमें एक कालमै एकही वृत्तिकी न्याई उदय होवे है या त्रितयवृत्तिरूप एक डायन कही, याके विद्यमान होयां मम जीवन कहिये मेरी ब्रह्मरूपकार स्थिति, किसप्रकार होवै ! अर्थात् किसी रीति नहीं होवै, काहे स्थितिका साधन जो निरंतर तत्त्वानुसंधानरूप स्मृति ताकू खाय कहिये ताकी वि. रोधी है ॥ १४॥ दोहा-कबहूं सुमति प्रकाश चित, कबहूं. कुमति अधीन ॥ बिबनारीके कंतज्यों .. रहत सदा अति दीन ॥१५॥
टीकाः-दृष्टांतः-जैसे परस्पर विरोधिनी उभय स्त्रियोंकर जीत्या पुरुष निरंतर दुःखी रहता है, तैसें मैंबी चित्त कहिये अंतःकरणमें कंदाचित् शुभनिश्चयरूप .
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वि० १०
शिष्यआशंका.
१५
वृत्ति औ कदाचित अशुभनिश्चयरूप वृत्ति तिनमें तादात्म्य अभ्यासकर दुःखी रहता हूं ॥ १५ ॥
(७) अब शिष्य, स्वनिष्ठ आसुरी गुणों कंं नदीरूपकर वरनन करता हुआ दुःखके हेतुकं कहे है :दोहा - नदि आसा शुभ अशुभ तट, मरी मनोरथ नीर ॥ तृष्णा अमित तरंग जिहिं, भरम भमर गंभीर ॥ १६ ॥ टीका:- पूर्वोक्त आशारूप - नदी है, जिसमें डूब· ता है औ अविचारपूर्वक शुभाशुभक्रिया जाके किनारे हैं, भूत औ भावी पदार्थोंकूं विषय करनेवाले मनोराज्यरूप जलकर पूर्ण है, पूर्वोक्त तृष्णारूप अमित जिसमें लहरी हैं औ आत्मतत्त्वके अभाववाले अहंकारादिकों में आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप भ्रम, सोई जामै भमर कहिये ! आवर्त हैं ॥ १६ ॥ दोहा - रागादिक जलजंतु बहु, चिंता प्र बल प्रवाह ॥ धृति तरु हरनी तरन तिहि; बेधत मो मन आह ॥ १७ ॥
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विचारमाला. . . वि० १. टीकाः-जामें राग कहिये प्रीति औ द्वेषरूप म... स्यकूर्मादि जलजीव हैं औ पूर्वउक्त चिंतारूप अति वें... गवाली धारा है औ एकांत स्थानमैं विषयकी प्राप्तिसँ . चित्तकी अविकारिकारूप धीरज सोई भया तरु तिसके हरनेमैं तरुण कहिये समर्थ है, ता नदीने मेरे मनको वेधित कहिये पीडित किया है ।। १७ ।। . पुनः वही कहै हैं:दोहा-प्रबल युगल शुभ अशुभ गज, मिरत सुरोस बढ़ाय॥ अपनी भूल अनाथ हौं, पो मध्य तिहिं आय ॥१८॥
टीकाः दृष्टांतः-जैसे अतिबलवाले दो हस्ती क्रोधपूर्वक परस्पर युद्ध करते होवें तिनमैं प्रवेश कर पुरुष दुःखकुं अनुभव करै, तैसे अपनी भूल कहिये अपने ब्रह्मात्मभावको न जानकर शुभ अशुभ संकल्पोंमें तादात्म्य. अध्यास करिके हौं अनाथ कहिये मैं दीन भया हो।॥१८॥
(८) अब स्वमनगत चंचलताकू दुःखका हेतु शिष्य दिखावै है:-. ... ... .. .
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वि० १.
शिष्य आशंका.
दोहा - कबहुँ न मन थिरता गही, समझायो से पोत ॥ जैसे मरकट वृच्छपर, कवी न ठाढो होत ॥ १९ ॥
१७
टीका:- दृष्टांतः - जैसे बाजीगरकर शिक्षित भयाभी बंदर वृक्षपर आरूढ होकर निष्कंप रहे नहीं; तैसे पुनः पुनः चित्तकी एकाग्रताका यत्नभी किया तथापि मेरा मन एकाग्रताको न भजता भया ।। १९ ।। • दोहा - चलदलपत्र पताकपट, दामिनि - कच्छपमाथ ॥ भूतदीप दीपक शिखा, यों मनवृत्ति अनाथ ॥ २० ॥
टीका:- चलदल नाम पिप्पल वृक्षका है । यह षट् पदार्थ जैसे स्वभावसे चंचल हैं तैसे मेरे चित्तकी वृत्ति स्वभावसे चंचल है । अन्य स्पष्ट ॥ २० ॥
स्वभावसे चित्तकी विषयों में प्रवृत्तिभी दुःखकी हेतु है, या अर्थको शिष्य दिखावै है :
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विचारमाला
वि०१.. दोहा-सहज स्वभाव अकासकू, पावक . झरप चलंत ॥ चंचल स्वतः अनादिको, मन रति विषय करंत ॥ २१॥ ..
टीकाः-जैसे साथ उत्पन्न होनेवाले स्वभावसे पावकको झस्प कहिये लाट, अर्चको जावै है। तैसे स्वरूपसे अनादिकालका चंचल जो मन, सो भोग्य अभोग्य जो शब्दादि विषय तिनमें स्वभावसे प्रीति करै है ॥ २१ ॥
(९) अब चंचलताके हेतु जो संदेह, तिनको दिखावै हैं:दोहा-जग सांचो मिथ्या किधों, ग्रहो . तज्यो नहिं जात ॥ ग्रही चचुंदर सर्प : ज्यों, उगलत बनत न खात ॥ २२॥ . :
टीका:-जगत् सत्य है वा मिथ्या है ? मिथ्या है तोभी आपते उत्पन्न होवै है वा किसी अन्यकर ? अन्य भी किसी जीवकृत है वा ईश्वरकृत है ? ईश्वरकृत जो
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वि० १. शिष्यआशंका. होवै तोभी किसीका निवर्त हुआ है वा नहीं हुआ ? निवर्तभी पुनः प्रतीत होवै है वा नहीं ? इत्यादि संशयरूप हेतुः हेयउपादेयरूपकर निश्चित होवै नहीं;यातेभी क्लेशही है। दृष्टांतः-जैसे चचुंदर कहिये दुर्गंधविशिष्ट मूषक सदृश जीवविशेष, ताकू सर्प, मुखमें ग्रहण करके पुनः ग्रहण त्याग, अशक्त हुआ दुःखी होते है तैसे।।२२।।
(१०) पूर्व शिष्यने करे जो प्रश्न, तिनका क्रमसे गुरु समाधान करै हैं:-श्रीगुरुरुवाच. दोहा-समाधान गुरु करत हैं, दयायुक्त कहि बोल ॥ मम वचननमें आनतूं, आपत वाक्य अडोल ॥२३॥ टीका:-ग्रंथकार उक्तिः-गुरु, शिष्यके प्रश्नोंका उत्तर कहै हैं, क्या करके, दयादृष्टिपूर्वक वचन कह करके, गुरुउक्तिः हे शिष्य ! मेरे वचनोंमें तूं विश्वास कर, काहेते गीतामें भगवानने कहा हैः- श्रद्धावान 'लभते ज्ञानम् " कैसे वाक्य हैं ? आपत वाक्य कहिये
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विचारमाला. वि०१. वेदवाक्य हैं, काहेते " ब्रह्मविद्रह्मैव भवति " ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मरूप है याते ताकी वाणी वेदरूप है औ किसी प्रतिवादीकर खंडन नहीं हो सकते, याते अडोल हैं।।२३।।
(११) पूर्व, शिष्यने कह्या जो मेरा मन चंचल है या शिष्यकी उक्तिका अनुमोदन करते हुए गुरुः चंचलताकी निवृत्तिका उपाय कहै हैं:दोहा-निःसंशय मन है चपल, दुष्कर गतिअतिआहि।गुरु श्रुतिशुद्ध अभ्यास कर, निश्चल कीजत ताहि ॥ २४॥ टीकाः हे शिष्य ! तैने जो कहा मन चंचल है औ अतिशय दुःखके करनेवाली है गति कहिये प्रवृत्ति जि. सकी, यामें संदेह नही; तथापि गुरुमुखात श्रुतिशुद्ध कहिये श्रुतिप्रतिपाद्य जीव ब्रह्मका अभेदरूप अर्थ, तिसका श्रवण करकै पुनः पुनः चिंतनरूप अभ्यास कर, तिसी अर्थमें तिस चित्तकी स्थिति कर सो मन निश्चल करिये है । इत्यर्थः ॥ २४ ॥
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वि० १. शिष्यआशंका.
- ( १२ ) अब सुगम उपायके जाननेकी इच्छा चित्तमें धारकर अभ्यासमें अपने अनधिकारको प्रकट करता हुआ शिष्य, प्रार्थना करै हैः-शिष्य उवाच. दोहा-हौंविषयी अति अजितमन,नहिन होत अभ्यास ॥ ताते प्रभु तुम पद सरन, हरहु कठिन जग त्रास ॥२५॥
टीकाः-हे प्रभो ! आपने जो अभ्यास बताया सो मेरेसे नहीं होता है! काहेते अभ्यास निर्विषय औ जितचित्त पुरुषसे होवे है, मैं विषयासक्त औ अति अजित चित्त हूं, ताते आपके चरणोंकी शरण हूं, आप सुगम उपाय बतायकर जन्मादि मृत्युपर्यंत जो जगतजन्य दुःखकी स्मृति, तिसतै उत्पन्न भया जो कठिन त्रास कहिये पीनभय, ताके निर्वत्तक हो इत्यर्थः ॥ २५ ॥
(१३) अब शिष्यकी उक्तिका अनुवाद करते हुए गुरु, सुगम उपाय कहै हैं:-श्रीगुरुरुवाचं. दोहा-सुन शिष्य उत्तम सीषको,जोचा
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विचारमाला.
वि. १. : हत निजश्रेय ॥ जग बंधन इच्छित मुच्यो, तौ सतसंग करेय ॥२६॥
टीकाः-हे शिष्य! जो पुरुष निजश्रेय कहिये स्वस्वरूप सुखके जानबेकी इच्छा करते हैं औ अविद्या त तकार्य जगतरूप बंधकी मुच्यो इच्छित कहिये निवृ. तिकी इच्छा करै हैं, सो उत्तम सीख कहिये महावाक्यका उपदेश, ताको सुन कहिये श्रवण करके कृतार्थ होवै हैं; औ तू आपको यामें असमर्थ देखता है तो सतसंग करेय कहिये सज्जनोंका संग कर ॥ २६ ॥ . . दोहा-गहै चचुंदर अहि मरे, तजै दृगनकी हान॥जल पाये सुख होत है,नर सतसंग प्रमान ॥२७॥
(१४) ग्रंथकार उक्तिः सोल-श्रीगुरु दीनदयाल, असरन सरन उदार अति ॥ जन अनाथ उरसाल,क.. पा करत चाहत हो ॥२८॥
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वि० २. शिष्यआशंका.
टीका:-अनाथदासजी कहै हैं:-जन कहिये शिष्यके हृदयमें शाल कहिये दुःख ताकू गुरु कृपाकर निवृत्त किया चाहते हैं,काहेते दीन पुरुषों में दयालु हैं औ अशरण कहिये सर्व ओर निरास जो जिज्ञासु तिनकी शरण कहिये आसरा हैं औ आत्मरूप धनके दाता हैं, याः अति उदार हैं ॥ २८॥ दोहा-प्रथम शिष्यसंदेह कहि, भयो सु आप अदृष्ट॥सुख दुखकर साक्षात जिम, होहिं सुदृष्ट अदृष्ट ॥१॥ इति श्रीविचारमालायां शिष्यआशंकावर्णन नाम प्रथमो
विश्रामः समाप्तः ।। १ ।।
अथ संतमहिमावर्णनं नाम द्वितीयविश्रामप्रारंभः ॥२॥ सतसंगकी इच्छावाला हुआ शिष्य संतोंके लक्षणकू पूछे है:-शिष्य उवाच.
दोहा-कहो कृपाकरिसाधुके,लच्छन श्री
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२४ . विचारमाला... वि०२. गुरुदेव ॥ जाहि निरखि हित आपनो, . करौं भलीविध सेव ॥१॥
टीका:-हे श्रीगुरो ! कृपा करके साधुके लक्षण कहो, काहेत? जाहि निरख कहिये जिन लक्षणोंकों माहास्माओंमें देखकर अपने हित कहिये कल्याणके अर्थ भली. प्रकारसैं तिनके सेवादि करूं ॥१॥
(१५) साधुलक्षणवर्णनं श्रीगुरुरुवाच. दोहा-अतिकृपालुनहिद्रोहचित,सहनशीलता सार ॥ शम दम आदि अकाम मति, मृदुल सर्व उपकार ॥२॥
टीकाः-अति कृपालु कहिये प्रयोजन विना कृपा करै हैं, या ही अनोहचित्त कहिये चित्तकर किसीसें देष नहीं करते। पुन कैसे हैं:-सहनशील कहिये मानअपमानादि दंद्रोंके संहारनेवाले हैं, सहनशील स्वभावही सार कहिये श्रेष्ठ है यह जाने हैं औ. शम कहिये मनका निग्रह, दम, कहिये चक्षुरादि इंद्रियोंका निग्रह,
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वि०२. . शिष्यआशंका. आदिपद करकै उपरति आदिकोंका ग्रहण करणा, तिनोवाले हैं । ननु शम दम आदि मुक्ति इच्छु मुमुक्षुके लक्षण कहै हैं, विद्वान्के नहीं ? ऐसे मत कहोःकाहेत अकाममति कहिये अंतःकरणमैं हेयउपादेयकी इच्छाते रहित हैं औ मृदुल कहिये कोमल स्वभाव हैं, या सर्व उपकार कहिये शरणागतोंका योगक्षेम करे हैं। योगक्षेम नाम अप्राप्तकी प्राप्ति औ प्राप्तकी रक्षाका है ॥२॥
पुनः संतलक्षण. दोहा-आतमवित जुअनीह शुचि, निकिचन गंभीर ॥ अप्रमत्त मत्सररहित, मुनि तपसांत सुधीर॥३॥ टीका:-आत्मवित कहिये अन्वयव्यतिरेकयुक्तिकर पंचकोश औ त्रिते शरीरोंत भिन्न, त्रिते अवस्थाका प्रकाशक, चिन्मात्र आत्मा, जिनोने जान्या है। सो अन्वय व्यतिरेकरूप युक्ति यह हैः-स्वप्न अवस्थामैं. स्वप्न
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विचारमाला.
वि० २००
साक्षीरूपकर जो आत्माका भान सो आत्माका अन्वर्य: ( मालामें सूतकी न्याई अनुवृत्ति) है, आत्मा के मान भये जो स्थूलदेहका अभान सो स्थूल देहका व्यतिरेक ( मणिकेकी न्यांई व्यावृत्ति ) है, औ सुषुप्तिमैं ता अवस्थाके साक्षीरूपताकर आत्माकी प्रतीति सो आ त्माका अन्वय है औ लिंगदेहका अभान सो लिंगदेहका व्यतिरेक है औ समाधिमैं सुखस्वरूपकर जो आत्माका भान सो आत्माका अन्वय है औ अविद्या रूप कारणदेहकी अप्रतीति सो कारणदेहका व्यतिरेक है । यातें त्रिते शरीरों आत्मा भिन्न है | पंचकोश त्रिते शरीरोंके अंतर्गत हैं, यातें कोशोंतें भिन्न विवेचन नहीं किया । इहां प्रमाण:- " त्रिषु धामसु योग्यं भोक्ता भोगश्च यद्भवेत् ।। तेभ्यो विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रोऽहं सदाशिवः [१] तीन धामरूप तीन अवस्थाओं में जो भोगके कारण हैं औ भोक्ता है औ भोग है, तिनतें विलक्षण साक्षी चिन्मात्र सदाशिव मैं हूँ " पुनः संत कैसे हैं ? अनीह कहिये व्यर्थ चेष्टास रहित हैं। शुचि
२६
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. वि० २.
शिष्यआशंका. कहिये अंतरराग द्वेषरूप मल रहित हैं औ बाह्य जल मृत्तिकादिकोंकर शुद्ध रहे हैं, निष्किंचन कहिये बाह्य संग्रह रहित हैं, गंभीर कहिये अन्यकर अज्ञात आशय हैं. अप्रमत्त कहिये प्रमाद रहित हैं,मत्सर कहिये बसीली (ईषां) तास रहित हैं, मुनि कहिये मननशील, तपःशांत कहिये शांतिरूपही जिनका तप है इहां प्रमाणः- श्लोक.
शान्तेः समं तपो नास्ति संतोषान्न परं • सुखम् ॥तृष्णाया न परो व्याधिन धर्मों
दयया परः ॥१॥ फिर कैसे हैं:-सुधीर कहिये सुष्टु धैर्यवान हैं ।। ३ ।। ____ पुनः वही कहै हैं:दोहा-जित षट्गुन धृति मान कवि, मानद आप अमान ॥ सत्यप्रीतिअनीतगति, करुणाशीलनिधान॥४॥ टीका:-षगुण कहिये षडरमी, तिनोंके धृत क
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२४ विचारमाला. वि०२. हिये धारणेवाले जो देह प्राण मन सो जीते हैं, मान कहिये वेदरूप प्रमाण तामैं कवि कहिये तात्पर्य रूपकर सर्व अर्थके जाननेवाले हैं, मानद कहिये व्यवहारदशामैं स्वभिन्न सर्वको मान देवै हैं औ अपमान नहीं चाहे. हैं औ सत्यसंभाषणमैं निश्चय हैं काहेत ? सत्यमूलकही सर्व धर्म हैं ऐसे जाने हैं, मिथ्या संभाषण जिन दूर भया है, करुणारूप जो शील कहिये आचार ताके नि.. धान कहिये खानी है,काहेरौं पामर औ विषयी औजिज्ञासु जो पुरुष, तिन सर्वपर कृपा करै हैं । इति भावः ॥४॥ . पुनः वही कहै हैं:- ... .. दोहा-उस्तुति निंदा मित्र रिपु, सुख दुख ऊंच रु नीच ॥ ब्रह्मा तृण अमृत गरल, कंचन काच न बीच ॥५॥ .......
टीकाः-स्तुति कहिये स्वनिष्ठ गुणोंका अन्यकर , परिकथन तथा स्वनिष्ठ अवगुणोंका अन्यकर परिकथनरूप निंदा औ प्रतिउपकार कर्ता मित्र तथा. आपणे-:
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वि० २. शिष्यआशंका. पर अपकार कर्तारूप शत्रु औ पुण्यवश इष्ट पदार्थके संबंधकर अंतःकरणके सत्वका परिणाम हर्ष वृत्तिरूप सुख तथा प्रतिकूल पदार्थके संबंधकर अंतःकरणके रजोगुणका परिणाम विक्षिप्तवृत्तिरूप दुःख औ जातियण आयुकर आपणेसै अधिक जो ऊंच तथा जातियण आयुकर आपणेसै नीच, ब्रह्मा औ तृण तथा अमृत औ विष तथा कंचन औ काच कहिये काच विशेष; इत्या. दिक सर्व पदार्थोंमें यद्यपि लौकिक दृष्टिसै विषमता प्रतीत होवै है तथापि वे मनकृत होणेत मिथ्या हैं औ शास्त्रीय दृष्टिसैं सर्व पदार्थोंमे अनात्मत्व तुल्य है औ ज्ञान निवर्त्यत्वभी तुल्यही है ॥५॥ दोहा-समदर्शी शीतलहृदय, गत उद्देग उदार॥सूछम चित्त सुमित्र जग,चिदवपु निरहंकार ॥६॥
टीकाः-या तिनमें महात्मा समदर्शी हैं, इसीत शीतल हृदय हैं, गत कहिये निवृत्त भया है उद्वेग कहिये
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२८
· विचारमाला.
वि०२.
क्षोभ जिनतै, त्यक्त वस्तुका पुनः ग्रहण करें नहीं यातें उदार हैं, सूक्ष्म ब्रह्मकं विषय करणेतें सूक्ष्म चित्तवाले हैं। सो श्रुति ने कहा है :- " दृश्यते त्वग्यया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः । अस्यार्थः - सूक्ष्मदर्शयने शास्त्रसंस्कारस हित शुद्ध औ सूक्ष्म बुद्धिकर ब्रह्म देखता है कहिये नि रावरण करीता है" । औ फिर कैसे हैं? जगत के सुष्ठु मित्र हैं काहे ? सर्वप्राणियों में निरर्हेतुक प्रीति करे हैं, औ चिदपु कहिये चेतनही है शरीर जिनोंका औ देह आदिकों में परिच्छिन्न अहंकारतें रहित हैं ॥ ६ ॥
पुनः वही कहै हैं .
दोहा - सर्व मित्र निष्कल्पमन, त्यागी अति संतोष | ऐश्वर्य विज्ञान बल, जानत बंध रु मोष ॥ ७ ॥
टीका :- सर्व मित्र कहिये सर्व प्राणी जिनके मित्र हैं काहे तें सर्व कर आत्मा होने औ कल्पनातें रहित चित्त हैं औ अतित्यागी हैं काहेतें धन दारा आदिकों का
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वि०२. शिष्यआशंका. त्याग अतिसुगम हैं औ अनात्मामैं आत्म अध्यासका त्याग अतिदुष्कर है सो जिनोंने कीया है यात औ यथालाभकर संतुष्ट हैं, अणिमादि सिद्धिरूप ऐश्वर्यकर संपन्न हैं औं विज्ञानके वलकर इस रीतिसें जाने हैं। जैसे अहंकारादिकोंकी प्रतीतिरूप बंध आत्मा मैं मिथ्या है तैसैं तिसकी निवृत्तिरूप मोक्षभी मिथ्या है, काहेरौं श्रुति कहती है:-"न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः॥ न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ।। १ ।। अस्वार्थ:-"निरोध नाश, उत्पत्ति, देहसंबंध, बद्ध सुख दुःख धर्मवान, साधक श्रवणादि करनेवाला, मुमुक्षु साधनचतुष्टयसंपन्न, मुक्त अविद्यारहित, ये संपूर्ण वास्तव नहीं हैं " ॥७॥ दोहा-तनुमतिगति आनंदमय, गुणातीत निष्प्रेह॥ विगत क्लेश स्वच्छंदमति,सं
तां भूषण एह ॥८॥ : टीका-मतिगतिकहिये बुद्धिवृत्ति तनु कहिये सू
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विचारमाला. वि० २. क्ष्म है जिनोंकी औ आनंदाकार होनेते आनंदरूप हैं। कैसा आनंद है ? सत्वादि तीन गुणोते परे हैं, याही ते निष्प्रेह कहिये अन्यविषयकी इच्छाते रहित हैं। सो महिम्नमें कहा है:-" नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति" "अपने आत्मामें आरामी पुरुषकू यह मृगतृ-- ष्णाकी न्याई जो शब्दादिक विषय सो भ्रमावै नहीं औ अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेशरूप पंच क्लेशतें रहित हैं.! अविद्या द्विधा हैः-एक कारण अविद्या है, अपर कार्य अविद्या है- इहां अविद्या शब्दकर कार्य अविद्याका ग्रहण है, सो चार प्रकारकी है-अनित्यमें नित्यबुद्धि, दुःखमें सुखबुद्धि, अशुचिमें शुचिवुद्धि औ अनात्मामें आत्मबुद्धि, अनित्य जो ब्रह्मादि लोक तिनमें नित्यबुद्धि [१] दुःखका साधन होनेते दुःखरूप जो. ऋपि वाणिज्यादि तिनमें सुखबुद्धि (२) अशुचि जो पुत्र स्त्री आदिकोंके शरीर तिनमै शुचिबुद्धि [३] अ. नात्मा जो अपना शरीर तामैं मुख्य आत्मबुद्धि [४] यह अविद्या है औ अस्मिता नाम सूक्ष्म अहंकार, राग नाम प्रीति, द्वेष नाम विरोध, अभिनिवेश नाम अति
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वि० २.
संतमहिमा. आग्रह, इन पंच क्लेशनते रहित हैं । पुनः अकुंठित बुद्धि हैं, अर्थात् तम रजो करके जिनकी बुद्धि रुकती नहीं । अव प्रकरणको समाप्त करते हुए गुरु कहे हैं: हे शिष्य ! पूर्वोक्त लक्षण संतोंके हैं ॥ ८॥ .
(१६) हे भगवन् ! संतोंके एतावन्मात्रही लक्षण हैं ? या आकांक्षाके भये अन्यभी हैं यह कहे हैं:
दोहा-स्वसंवेद्य नहि कहि सकों, लच्छन संत महंत ॥ परसंवेद्य कहे कळू, संगप्रताप कहंत ॥९॥
टीकाः-हे शिष्य ! महानुभाव जो संत हैं तिनके दो प्रकारके लक्षण हैं:-एक स्वसंवेद्य है, अपर परसंवेद्य हैं। अन्य करके जो जाने जावें सो परसंवेद्य कहिये हैं, आपकर जो जाने जावै सो स्वसंवेद्य कहिये हैं, सो कौन हैं? या आकांक्षाके हुए कहे हैं:-मृत्युके समीप स्थित भया भी चित्तमें भय न होवै औ चिजड ग्रंथिकी निवृत्ति औ निरावरण स्वरूपानंदकी उपलब्धि इत्यादिक
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"
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विचारमाला. वि . जो स्वसंवेद्य लक्षण हैं सो हम कही नहीं सकते, शेष जो परसंवेद्य लक्षण हैं सो स्वल्पसे हमने कहे हैं। अब सतसंगका माहात्म्य कहै हैं, श्रवण कर ॥ ९ ॥
(१७) अब विनामकी समाप्तिपर्यंत फलकथनद्वारा सत्संगका माहास्य कहे हैं:दोहा-सत्संगति निजकल्पतरु, सकल कामना देत ॥ अमृतरूपी वचन कहि, तिहूं ताप हरिलेत ॥१०॥
टीका:-बांछित फलप्रद होनेः सत्संगही कल्पवृक्ष है, जात सकल पुरुष कीयां इस लोकके धन यशादि पदार्थ विषय करणेवालीयां औ परलोकके स्वर्ग सुखादिकोंकू विषय करणेवालीयां सकल कामना पूर्ण करै है। निष्काम पुरुषके अमृतकी न्याई मधुर वचन कहि करि ज्ञानकी उत्पत्तिद्वारा अध्यात्म अधिभूत अधिदैव तीन ताप दूर करै है । क्षुधा आदिकतें जो दुःख हो सो अध्यात्म कहिये है । चोर व्याघ्र सादिकोतें जो दुःख .
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वि० २०
संतमहिमा.
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हो सो अधिभूत कहिये है । यक्ष राक्षस प्रेत ग्रहादिक औ शीत वात आतपतें जो दुःख होवै सो अधिदैव कहिये है ॥ १० ॥ दोहा - पदवंदन तन अघ हरण, तीरथमय पद दोय | संभाषण चित शांत कर, कृपा परम पद होय ॥ ११ ॥
टीका:- संतचरणों के ताई जो वंदन सो शरीरनिष्ठ संचित पापनकों हरे है, काहे ? संतचरणोंकूं तीर्थरूप होने'तैं; सोई भगवान्ने एकादश में कहा है :- " सात्विक गु णधारी नरदेहा, शुद्ध करों ता चरणन खेहा" पुनः बोल'गा जिनका चित्त शांत करै है औ जिनकी कृपा से परमपद की प्राप्ति होवे है, सोई कहा है: - "ज्ञानं विना सु क्तिपदं लभते गुर्वनुग्रहात् " ॥ ११ ॥
अब शिष्य पूछे है :- हे भगवन् ! संतसंगमें सुख कितनाक है ? तहां गुरु कहे हैं:
दोहा - सतसंगति सुखसिंधुवर, मुक्ता नि
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विचारमाला. जकैवल्य॥आशय परम अगाध अति,
पैठेमनदल मल्य ॥१२॥ टीकाः हे शिष्य! सत्संग सुखका समुद्र है, महात्माका जो आशय कहिये गूढ अभिप्राय है सो तिसमें गं. भीरता है, जीतिया है मन जिनोंने सो पुरुष ऐसे समुद्रमें प्रवेश करके कैवल्य मोक्षरूप मोतीकू पावै हैं ॥ १२॥ .
(१८) अब शिष्य पूछे है: हे गरो! इतने सुख मैने वेदमैं श्रवण करे हैं। समग्र पृथ्वीसुखकी चक्रवर्ती राजामै समाप्ति है, चक्रवर्तीत सौरान अधिक सुख मानव गंधवाँका है, तिनत शतगुणाधिक देव गंधवाँका है, तिनतैं शतगुणाधिक पितृदेवनका है, तिनः शतगुणाधिक सु. ख आजानदेवनका है, तिनः शतरणाधिक कर्मदेवनका है, तिनत शतरण अधिक मुख्य देवनका है, तिनत शतगुण अधिक इंद्रका है, इंद्रत शतरण अधिक देवगुरु बृहस्पतिका है, तिसतै शतरण अधिक प्रजापति (विराट् )का है, प्रजापतित शतगुण अधिक सुख ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) का है, तिनतें अपार मोक्ष सुख है । सत्संगजन्यसुख कि:
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वि० २०
संतमहिमा..
३७
स सुखके तुल्य है यह आप कहो ? या आकांक्षा के होयां इन संपूर्णात अधिक है, यह गुरु कहे है:
दोहा - सतसंगति सुख पलक जो, मु क्ति न तास समान ब्रह्मादिक इंद्रादि भू, निपट अल्प ये जान ॥ १३ ॥
टीका :- हे शिष्य ! पलमात्र सतसंगजन्य जो सुख है तिसके समान मोक्ष सुखभी नहीं तो ब्रह्मादिकोंका औ इंद्रादिकोंका औ कहिये चक्रवर्तीका सुख तो अतितुच्छ है, तिसके समान कैसे होवे, ऐसे जान. ननु परतंत्र औ परिच्छिन्न औ कदाचित होनेवाला ऐसा जो सत्संगजन्य सुख, तिसके समान सर्व वेदां तोंकर प्रतिपाद्य निरतिशय मोक्षसुख नहीं है, यह कथन असंगत है ? तहां सुनो:- सफल पदार्थ स्तुतिके योग्य होंवे है, निष्फल पदार्थ स्तुतिके योग्य होवै नहीं; मोक्ष से मोक्षांतर होवे नहीं, यातें निष्फल है औ सतसंग ज्ञानद्वारा अनेक पुरुषोंकूं मोक्ष
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३८ • विचारमाला. वि०२. प्राप्त होवै है यातें वह सफल है, इस अभिप्रायमैं मोक्ष अधिक कहा है ॥ १३ ॥
(१९) अब शिष्य कहे है:-हे भगवन् ! जगत अनर्थरूप जो पासी तिसकी निवृत्ति अर्थ अनेक कर्मका अनुष्ठान मैंने कियाबी है तथापि निवृत्ति न भयी, यात आप कोई अन्य उपाय कहो ? या आकांक्षाके होयां शिष्यकी उक्तिका अनुवाद करते हुए गुरु कहै हैं:दोहा-जगत मोहपासी अजर,कटे न आन उपाय ॥ जो नित सतसंगत करत,सहज मुक्त हो जाय ॥ १४॥
टीका:-जगत मोह कहिये अविद्या तत्कार्यरूप पासी सो यद्यपि अजर हैं औ अन्य कर्म उपासनारूप उपायकर निवृत्त नहीं होवै है तथापि जो पुरुष निरंतर सत्संग करता है सो सतसंगसैं ज्ञानद्वारा अनायासतें ता पासीतैं मुक्त होवैहै ॥१४॥
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वि० २.
संतमहिमा. ___ अब शिष्य कहै है: सत्संगतै ज्ञानद्वारा मोक्ष प्राप्त होवै है यह आपने कहा सो मैने निश्चय किया, और धर्मादि जो तीन सो सत्संगसैं प्राप्त होवै हैं वा नहीं यह कहो ? तहां गुरु कहै हैं:दोहा-कामधेनु अरु कल्पतरु. जो सेवत फल होय ॥सत्संगति छिन एक मैं, प्रानी पावै सोय ॥१५॥ टीका:-हे शिष्य ! कामधेनु अरु कल्पतरुके चिरकालपर्यंत सेवन कीये तैं जो धर्म अर्थ कामरूप फल प्राप्त होवै है, सो फल सत्संगमैं प्राप्त जो पुरुष सो एक छिनमें पावै है ।। १५॥
पुनः शिष्य कहै है:-हे गुरो ! कल्पवृक्ष अरु कामधेनु यद्यपि बहुकाल सेवन कीयेतै फल देव है, यातें सत्संगके तुल्य नहीं, परंतु पारसमणि तो तत्काल फलप्रद होने सत्संगके तुल्य होवैगा ? या आक्षेपके मयां कहे हैं:
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विचारमाला.
वि०
४० दोहा-पारसमै अरु संतमैं, बड़ो अंतरो .. जान॥ वह लोहा कंचन करै, यह करे । आपसमान ॥१६॥
टीकाः-हे शिष्य ! पारसमै अरु संतमैं बड़ी विषमता है ऐसे जान तं, काहे वह जो पारस है सो लोहकू कंचन तो करे है परंतु पारस नहीं करसके है औ महात्मा जो हैं सो जैसे आप ब्रह्मरूप हैं तैसें जिज्ञासुकू ब्रह्मरूप करे हैं; यातै पारसतें अधिक हैं ।। १६ ॥
शिष्य कहैं है हे भगवन् ! सत्संगकी प्राप्तिअर्थ जो क्रिया है ताकरभी कछु फल होवै है। नवा ? तहां गुरु कहै हैं:दोहा-विधिवत यज्ञ करत सदा, जे द्विज उत्तम गोतसाधुनिकट चलिजातहीं, सो फल पग पग होत ॥१७॥
टीका:--जौनसे पौलस्त्यादि गोत्रवाले उत्तम द्विज कहिये अष्ट वर्ष पूर्व जिनका यज्ञोपवीतरूप संस्कार .
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वि० २. संतमहिमा. भया है ऐसे ब्राह्मण, जो वेदकी आज्ञापूर्वक सदा यज्ञ कहिये नित्यानिहोत्ररूप यज्ञ करै हैं, तिसका जो फल शास्त्रमें कहा है, सो साधुके समीप गमन करतेहुए एक एक चरण पृथ्वीपर धारणकर होवे है ॥ १७॥ दोहा-दया आदि दे धर्म सब, जप तप संयम दान ॥ जो प्राप्ती इन सबनते, सो सत्संग प्रमान ॥१८॥
टीका:-जप कहिये गायत्री औ प्रणवादिकौंका यथाविधि पुनः पुनः उच्चारणरूप, तप. कहिये स्वधर्मका 'अनुष्ठानरूप, संयम कहिये निषिद्ध औ उदासीन कियात कर्मेंद्रियोंका निरोधरूप, दान कहिये प्रतिदिन द्रव्यादिकोंको परित्याग, एतद्रूप सर्व धर्मोंके कीये जो फल प्राप्त होवै है सो सत्संगरौं प्राप्त भया जान । काहेत दयाआदि सर्व धर्मोकी प्राप्ति सत्संगत होवै है ॥१८॥ • (२०) अव शिष्य कहे है। हे भगवन् ! अंतःकरणकी शुद्धिअर्थ सत्संगभिन्न तीर्थों का सेवन कर्तव्य है? या आकांक्षाके होयां कहै हैं:
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विचारमाला. दोहा-तीरथ गंगादिक सबै, करि निश्चय सेवै जु॥ सो केवल सत्संगमै, प्रानी फल लैवै जु॥१९॥
टीका:--अंतःकरणकी शुद्धिकी इच्छा करके गंगादि तीर्थोंका सेवन किये जो फल प्राप्त होवै है, सो अंतःकरणकी शुद्धिरूप फल सत्संग करणे मात्रसैं यह पुरुष पावे है ।। १९॥ . (२१) हे भगवन् ! चित्तकी एकाग्रता अर्थ तो हिरण्यगर्भादि देवनकी उपासना करणीय है ? तहां गुरु कहै हैं:दोहा-ब्रह्मादिक देवा सकल, तिन भजि जो फल होत ॥ सत्संगतमैं सहजही, वेगहिं होत उद्योत ॥२०॥
टीकाः-हिरण्यगर्भसे आदि लेकर देवनकी उपासनातै चित्तकी एकाग्रतारूप फल होवै है, सो चित्तकी एकाग्रतारूप फल सत्संगमैं अनायास उदय होवै है२०
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वि० २.
४३
(२२) पुनः शिष्य कहै है:- ब्रह्म आत्मा के अभेअर्थ बहु विद्याका अध्ययन कर्तव्य है ? या शंका के होयां कहे हैं:
संतमहिमा..
J
दोहा - वेदादिक विद्या सबै, पावे पढ़े जु कोय ॥ सत्संगति छिन एकमैं, होयसु अनुभव लोय ॥ २१ ॥
टीका:--ऋग् यजुर साम अथर्वणरूप जो वेद हैं तिनसें आदि लेकर आयुर आदिक चार उपवेद षट् व्याकरणादि वेदके अंग, ब्रह्मादि अष्टादश पुराण, न्याय मीमांसा और धर्मशास्त्र इन संपूर्णों के अवलोकन कीयेंतें जो ब्रह्म आत्माका अभेद निश्चयरूप फल होवै है; सो सत्संगकर एक छिनमै पुरुष अनुभव करे है । सोई कहा है: - श्लोक " श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थको - टिभिः || ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव केवलम् " पुनः यही अर्थ जनक औ अष्टावक्र के संवादकर स्पष्ट कहा है । या श्लोकका अर्थ यह है: - " कोटि ग्रंथोंकर जो ब्रह्मात्माका अभेदरूप अर्थ कहा है सो अर्ध श्लो
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विचारमाला. वि०२. ककर कहता हूं, ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है औ जीव ब्रह्मरूप है"
(२३) अब सत्संगको सुमेरु अरु कैलासतै अधिक वर्णन करै हैं:दोहा-किं सुमेरु कैलास कि, सब तरु तरै रहंत ॥ सत्संगति गिरिमलयसम, सब .तरु मलय करंत ॥२२॥
टीका:-जैसे गिरिमलय कहिये सुगंधिवाला पर्वत, अपणेमैं स्थित वृक्षोंकू मलय कहिये सुगंधिवाले करै है, तैसें संतबी स्वसमीपवर्ती पुरुषोंमें स्ववर्ती श्रेष्ठ गुण प्राप्त करे हैं, या मलयगिरिक समान हैं । ननु सर्व देवोंका निवासस्थान औ स्वर्णमय मेरु तैसेंही रजतरूप जो कैलास तिनके समान संत, किंउ ना हुए ? तहां सुनोःयद्यपि मेरु स्वर्णमय है तथापि क्या है, औ यद्यपि कै. लास रजतमय है तथापि क्या है, काहेत स्ववर्ती वृक्षों को स्वर्ण किंवा रजतरूप नहीं कर सके हैं, यात संतोंकी "तुल्यताके योग्य नहीं ॥२२॥
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वि०.२.
संतमहिमा..
४५
(२४) अब उक्त अर्थ में प्रमाणरूप जो वसिष्ठवचन, तिसको अर्थ पढ़े हैं:
दोहा--मुक्ति द्वारपालक चतुर, शम संतोष विचार ॥ चौथो सत्संगत धरम, महापूज्य निर्धार ॥ २३ ॥
टीका:-- जैसें राजमंदिर में द्वारपाल अन्य पुरुषका प्रवेश करावे हैं, तैसें मुक्तिरूप मंदिर में प्रवेश करावणेवाले यद्यपि शम, संतोष, विचार, सत्संग, यह चार हैं; तथापि चतुर्थ जो सत्संगरूप धर्म सो विद्वानोंने महाप्पू'ज्य निर्णय कीया है || २३ ॥
सोई उत्तर दोहेकर दिखावै हैं:दोहा - मुक्ति करन बंधन हरन, बहुत यतन जग भव्य ॥ पै यह कोटि उपाय करि, सत्संगत कर्तव्य ॥ २४ ॥
टीका :- यद्यपि मुक्तिके करनेवाले औ बंधनोंके हरनेवाले बहुत यत्न शास्त्रों में कहे हैं, तथापि भव्य जो
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४६ विचारमाला. वि० २.. विद्वान् तिनोंने यह निर्णय कीया है, अनेक उपायकर मुमुक्षुने सत्संगही करणीय है ।। २४ ॥
ताम हेतु कहै हैं:दोहा-और धर्म जेतिक जगत, आहिं सकाम स्वरूप ॥ ज्ञान साधन उद्योतको, है सत्संग अनूप ॥ २५॥ टीका और यावत् धर्म जगत्में हैं सो इस लोक औ परलोकका जो विषयजन्य सुख तिसके देनेवाले हैं, यातें सकामरूप हैं, औ उपमा रहित जो सत्संग है सो ज्ञानकी प्रकटताका साधन है ॥ २५॥
(२५) अब ताकी श्रेष्ठतामैं प्रमाण कहै हैं:दोहा-श्रुति स्मृति श्रीमुख कयौ, सत्संगत जग सार ॥ अनाथ मिटावै विष- . मता, दरसावै सुविचार ॥२६॥ .. टीका:-ग्रंथकार उक्तिः श्रुतिस्मृतिमैं औ भागवतमैं श्रीकृष्ण देवनेभी यही कहा हैः-" इस जगतमैं सत्सं
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वि० ३. ज्ञानभूमिका. गही सार है, काहेरौं सुष्ठु जो ब्रह्मविचार ताकू दिखायके भेद बुद्धि दूर करे है " ॥ २६ ॥ दोहा-दुतियो माल विचारको, तिलकसहित विश्राम ॥ इती भयो कह संतगुण, हैं जौ आत्माराम ॥२७॥ इति श्रीविचारमालायां संतमहिमावर्णनं नाम
द्वितीयविश्रामः समाप्तः ॥२॥ अथ ज्ञानभूमिकावर्णनं नाम
तृतीयविश्रामप्रारंभः ॥३॥ (२६) अब ज्ञान कीयां सप्त भूमिका दिखावणेकी इच्छा कर तृतीय प्रकरणका आरंभ करते हुए ग्रंथकार, आदिमैं शिष्यकी उक्ति कहे हैं:-शिष्य उवाच.
दोहा-भो भगवन गुण साधुके, मैं जाने निर्धार॥ निरपेच्छक संकल्पगत, हैं सुखसिंधु अपार ॥१॥
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४८
विचारमाला.. टीका:-हे भगवन् ! आपने कहा जो संत अपेक्षा रहित हैं औ सुखके समुद्र हैं, सो इत्यादि संतों के लक्षण मैंने निश्चय कर जाने हैं ॥ १॥ ___ अब जिस अभिप्रायकू चित्तमैं धारकर शिष्यने कहा, सो अभिप्राय प्रगट करे है:दोहा-हौं कामी वैसुमति चित, मोहि न आवै बूझ ॥कैसे हित उपदेशकी, परेगैल निज सूझ ॥२॥
टीका:-हे भगवन् ! काम नाम विषयोंका है तिनकी इच्छावाला मैं हूं या कामी हूं, वै महात्मा सुमतिचित्त कहिये चेतनमैं निष्ठावाले हैं; ताः मेरा औ उनका संबं. धकैसे होवै ? औ जो आप ऐसे कहो संत दयालु स्वभाव हैं तात तेरी उपेक्षा करें नहीं, तथापि मोहि न आवै. बूझ कहिये मैं प्रश्न नहीं कर जाणूं हूं, तातें किस रीतिः सैं निजहित कहिये अपणा मोक्ष ताका मारग जो ज्ञान, सो कैसे जान्या जावै ॥२॥
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वि० ३.
ज्ञानभूमिका.
(२७) अब प्रश्नसैं विना संतोंकी समीपता मात्र से पुरुषोंको बोध हो है यह वार्ता दो दोहोंकर गुरू कहे हैं:- श्रीगुरुरुवाच.
दोहा - कहत संत जे सहजही, बात गीत रुचि बैन ॥ ते तेरे तन दुख हरन, वायक सब सुख दैन ॥ ३
॥
टीका:- हे शिष्य ! संत जो यथारुचि स्वाभाविक परस्पर बात करे हैं: - " कहोजी भोक्ता कोन है ? चि दाभास है जी ! कातें जी ? कर्ता होतें जी" इत्या-दि । औ गीत कहिये :- "सही हूं मैं सच्चित आनंदरूप, अपने कर्म करे सब इंद्रे, हों प्रेरक सबका भूप" इत्यादि पदोंकर कदाचित गायन करे हैं ! औ बैन कहिये शास्त्रोंके वचन कथा के समय उच्चारण करे हैं, औ वायक कहिये तत्त्वमस्यादि महावाक्य शिष्योंप्रति कहे हैं, ते संपूर्ण तेरे हृदय में होनेवाले जो दुःख तिनके हरणेवाले हैं, औ सब सुख कहिये ब्रह्मसुख तत्त्वज्ञानद्वारा ताके देणेवाले हैं ॥ ३ ॥
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५० विचारमाला. दोहा-पोलत सहज स्वभाव जे, वचन मनोहर संत ॥ सप्तभूमिका ज्ञानकी, ति- . नहीमें दरसंत ॥४॥ टीका:-हे शिष्य ! संत जो मनके हरनेवाले स्वाभाविक बैन बोले हैं, तिन वचनोंमही ज्ञानकियां सप्त भूमिका दिखावे हैं । इति अन्वयः॥ ४॥ . (२८) शिष्य उवाच.. दोहा-भो भगवन मैं दुखित अति, और न.कछ सहाय ॥ सप्त भूमिका ज्ञानकी, कही मोहिं समुझाय ॥५॥ ( २९) श्रीगुरुरुवाच ।। शुभ इच्छा सुविचारना, तनु मानसा सुहोय ॥ सत्त्वापत्तिअसंसक्ति, पदार्थाभाविनि सोय ॥६॥ तुरिया सप्तम भूमिका, हे शिष यह नि. धार॥ जो कछु अब संशय करे, वरनों सोइ प्रकार॥७॥ .. .. ..
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वि० ३.
ज्ञानभूमिका.
५६
(१०) शिष्य उवाच ॥ भो भगवन् लघु मति सुगम, रहस्य लह्यो नहि जात ॥ भिन्न भिन्न ताते कहो, ज्ञान भूमिका सात ॥ ८ ॥ टीका: - रहस्य नाम स्वरूपका है। अन्य स्पष्ट||८|| (३१) श्रीगुरुरुवाच ॥ ज्ञानभूमिका वर्णनदोहा - विषयविषे भइ द्वेषता, गुरु तीरथ अनुराग ॥ ताते शुभ इच्छा कही, कथा श्रवण मन लाग ॥ ९ ॥
टीका:- विषयों में अनित्यता, सातिशयता । दुःखसाध्यता औ जिनका स्पर्शमात्र आयुपरिणाममें अति दुःखप्रद हैं इत्यादि दूषणोंतें द्वेषता कहिये त्यागकी इच्छापूर्वक गुरुतीर्थ में प्रीति औ पुराणादिकों के श्रवणमें चित्तकी प्रवृत्ति ॥ ९ ॥ दोहा - भगवति रति गति आन मति, प्रेमयुक्त नित चित्त ॥ गुण गावत पुलकित हृदय ॥ दिन दिन सरस सुहित्त ॥ १० ॥
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विचारमालाः वि० ३... टीका:-तिन पुराणोंके श्रवणते भगवत् विष प्रीति भगवत ज्ञानते भिन्न और किसीत मोक्षका निश्चय ताकी निवृत्तिः भगवतमें प्रेमसहित चित्तकी स्थिति, औ परमेश्वर भक्तवत्सल है, दयाल हैं, प्रणतपाल हैं, पति: - तपावन हैं इत्यादि भगवत् गुण गायन करते हुए शरीरमैं पुलकावली औ प्रतिदिन हृदयमैं भगवतसंबंधी अधिक प्रीति, इत्यादि शुभ गुणोंकी जिज्ञासाके संभवतें प्रथम शुभइच्छा नाम भूमिका कही ॥ १० ॥ . '
(३२) अब अपर सुविचारना नामः भूमिकाका स्वरूप कहै हैं:दोहा-दूजी कही विचारना, उपज्योतत्त्वविचार ॥ एकांत है शोधन लायो, कोऽहं को संसार॥११॥
टीका:-जव तत्त्वविचार उपज्यो, तत्त्व क्या है, मिथ्या क्या है यह मैं जानूं, तब एकांतमें स्थित : होइकर विचार करने लागाः मैं कौन हूं, यह स्थूल देहही मैं हूं, जो स्थूल देहहीं मैं होवों तो याकू त्याग
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वि०३. ज्ञानभूमिका. कै परलोकमैं कैसे गमन करूं, तातै स्थूलदेह मैं नहीं,
औ परलोकमैं गमन औ या लोकमैं आगमन लिंगदेहका होवे है, जे लिंगदेहही मैं होवों तो लिंगदेहका सुषुप्ति अवस्थामैं कारणमैं लय होवे है औ मैं सुषुप्तिमैं भी रहूंहूं, तातै मैं लिंगदेहभी नहीं औ सुषुप्तिमें. कारणदेह रहे है. सो मैं होवों तो मैं अज्ञहूं या अनुभवतें कारणदेहरूप अज्ञान मेरी दृश्य प्रतीत होवै है, ताते सोनी मैं नहीं. इस रीतिसैं त्रिते शरीरांत भिन्नभी मैं कर्ता भोक्ता हूं वा अकर्ता हूं ? कर्ता सावयव होवै है मेरे अवयव प्रतीत होवें नहीं, यात मैं कर्ता नहीं, याहीत भोक्ता नहीं; सो अकर्ताबी मैं सर्व शरीरोंमें एक हूं वा नाना हूं? वेद जीवब्रह्मका अभेद प्रतिपादन करेहै, जो आत्मा नाना हो तो अभेद बने नहीं, यात सर्व शरीरों में एक हूं । सो एकबी मैं ब्रह्मसैं अभिन्न कैसे हूं ? इस वार्ताके जानणेवास्ते गुरुकी शरणको प्राप्त होवौं । औ को संसार कहिये कौनसा संसार मेरे ताई दुःखदाई है ? ईश्वर रचित, वा जीवरचित; ईश्वरचित
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विचारमाला.. वि०३० संसार यह है:-" तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेय” सो परमेश्वर इच्छा करता भया "मैं एकसैं बहुत प्रजारूप होवौं ” या परमेश्वरइच्छा जगतकी उपादानरूप प्रकृति तमोप्रधान होवै है, तिसतै शब्दसहित आकाशकी उत्पत्ति होवै है; आकाश वायुकी, वायुमें स्वगुण स्पर्श औ शब्द गुण कारणका होवै है। वायु अमि, आनिमें अपना रूप गुण औ शब्द स्पर्श कारणोंके होवे है। अमितें जल होवे है औ जलमें आपका रस गुण औ शब्द स्पर्श औ रूप ये तीन कारणोंके गुण होवै हैं । जलतें पृथ्वी औ पृथ्वीमें आपका गंधरण
औ शब्द स्पर्श रूप औ रस, ये चार कारणोंके गुण उपजते हैं । इस रीतिसँ भूतोंकी उत्पत्तित पश्चात पंचभूतोंके मिले सत्त्व अंशतें अंतःकरणकी उत्पत्ति होवै है। सो अंतःकरण, वृत्तिभेदसै चार प्रकारका है। मन, बुद्धि 'चित्त, अहंकाररूप, तैसें भूतोंके मिले रजो अंशतै प्राण, अपान, समान, उदान, व्यानरूप, पंचविध प्राण होवै है । हृदय [ १ ] युदा [२] नाभि
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वि०३. ज्ञानभूमिका.
[३] कंठ [४] औ सर्व शरीर [५]ये इनके क्रमसैं • स्थान होते हैं । औ क्षुधापिपासा [१] मलमुत्र अ.
धोनयन [२] भुक्त पीत अन्नजलको पाचन [३] योग समकरणा [४] श्वास औ रसमेलन [५] ए पंच इनकी क्रमसैं क्रिया होवै हैं । तैसें एक एक भूतके सत्त्व अंश” पंच ज्ञान इंद्रियोंकी उत्पत्ति इस रीतिसँ होवै हैः-आकाशके सत्वरज अंश” श्रोत्र औ वाकूकी उत्पत्ति । वायुकै सत्त्व रजो अंश त्वक् औ पाणिकी उत्प• त्ति । अनिके सत्त्व रजोअंशत् प्राण औ उदाकी उत्पति होवै है । इस रीति सूक्ष्म सृष्टिकी उत्पत्तिसैं अनंतरईश्वर इच्छासै भूतोंका पंचीकरण इस रीतिसँ होवै है:एक एक भूतके तमोअंशके दो दो भाग भये तिनमै एक एक भाग पृथक् ज्योंका त्यों रहा, अपर अर्ध भागों के चार चार भाग किये, सो अपने अपने भागकू छोड़के पृथक् रहे, अर्धभागोंमें मिले पंचीकरण होते है। एक एकमैं पंच पंच मिलणेका नाम पंचीकरण है। तिनः स्थूल ब्रह्मांडकी उत्पत्ति होवे है । ब्रह्मांडके
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५६ विचारमाला... - वि० ३. अंतर चतुर्दश भुवन, तिनमें रहणेवाले देवदैत्य मनुः , प्यादि शरीर, तथा तिनके यथायोग्य भोग्य होवे हैं। इत्यादि जो ईश्वरसृष्टि सो सुख दुःखकी हेतु. नहीं, अपर जो जीवसृष्टि सो सुख दुःखकी हेतु है । याम दृष्टांत. ग्रंथांतरमैं इस रीतिसै लिख्या है। जैसे दो पुरुषनके दो पुत्र विदेशमें गए होवे, तिनमैं एकका पुत्र मरजावै, एकका जीवता होवै, सो जीता पुत्र बड़ी विभूतीकू प्राप्त होयकै किसी पुरुषद्वारा अपने पिताकं. अपनी विभूति प्राप्ति की औ द्वितीयके मरणका समा. चार भैजैतहांसमाचार सुनावणेवाला दुष्ट होवै, यात जी वतें पुत्रके पिताकू कह है तेरा पुत्र मरगया औ मरे पुत्रके पिताकू कहै तेरा पुत्र शरीर निरोग है, बड़ी विभूति• प्राप्त हुआ है, थोड़े कालमै हस्ती आरूढ बड़े समाजतें आवैगा । ता वंचक वचनकू सुनकै जीवते पुत्रका पिता रोव है बड़े दुःखकू अनुभव कर है औ मरे पुत्रका पिता बड़े हर्षकू प्राप्त होवै है । इस रीतिसँ देशांतरविषे ईश्वररचित जीवतेका सुख हो नहीं, तैसें दूसरेका ईश्वर ..
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वि०३.
ज्ञानभूमिका. रचित पुत्र मरगया है ताका दुःख होवै नहीं, मनोमय जीवै है ताका सुख होवै है । यात जीवसृष्टि ही सु. खदुःखकी हेतु है । ननु ईश्वर सृष्टिते जीवसृष्टि भिन्न होवै तो प्रतीत हुई चाहिये औ प्रतीत होवै नहीं, यातें भिन्न नहीं ? सो शंका वनै नहीं:-काहेत? जैसे एकहीं ईश्वररचित स्त्रीशरीरमें पतिकू भार्या औ भ्राताको भगिनी तथा पुत्रको माता प्रतीत होवै है, इत्यादि दश
पुरुषोंकू भार्या भगिनी आदि शरीर प्रतीत होवे हैं। , तथा दशोंकोही पृथक् पृथक् सुख दुःखका साक्षात्का
ररूप भोग हाव है। यात माता भगिन्यादि रूप जीवसृष्टि अवश्य मानी चाहिये, सोई सुखदुः-खका हेतु है इस रीतिसं विचारना । यह दूसरी सुविचारणा नाम भूमिका है ॥ ११ ॥ (३३) अब तृतीय तनुमानसा भूमिकाका स्वरूप
दोहा-तनुमानसा सु तीसरी, मनको प्र
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विचारमाला.... वि० ३.. . त्याहार ॥ थिर ढ शुद्ध स्वरूपकी, राखै नित संभार॥ १२॥ टीका:-बाह्य अंतर विषयोंते चित्तका रोध करकै नैरतयं ब्रह्मरूप ध्येयकी स्मृति सो तीसरी तनुमानसा नाम भूमिका है। मनकी सूक्ष्मता, तनुमानसा शब्दका अर्थ है ।। १२ ॥ (३४) अब चतुर्थी सत्त्वापत्ति भूमिकाका स्वरूप
दिखावै हैं:
दोहा-चतुर्थी सत्त्वापत्ति यह, अनुभव . उदय अभंग ॥आत्मा जगदरस्यो भलै, .
ज्यों मध सिंधु तरंग ॥ १३॥
टीका:-पूर्वोक्त रीतिसँ ब्रह्मचिंतन करणेते उदय भया जो संशय विपर्यय रहित तत्त्वसाक्षात्कार, तिसकर आत्मामैं नामरूप आत्मक प्रपंचकी मिथ्यारूपकर प्रतीति होवै है । जैसैं समुद्रमैं मिथ्यारूप करके लहरियोंकी . प्रतीति होवै है । यह चतुर्थी सत्वापत्तिरूप भूमिका है१३
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वि० ३. ज्ञानभूमिका. ५९
(३५) अब पंचमी असंसक्ति नाम भूमिकाका स्वरूप कहै हैं:दोहा-छूटयोतन अभिमान जब, निश्चयकियो स्वरूप ॥ असंसक्ति यह भूमिका, पंचम महा अनूप ॥ १४॥
टीका:-चतुर्थ भूमिकामैं निश्चय किया जो पृथक अभिन्नरूप ब्रह्म, तिसमैं अभ्यासकी अधिकतासैं मदीयत्व रूपकर जो शरीरका अभिमान ताकी निवृत्ति, अर्थात् पर शरीखत् शरीरकी प्रतीति; यह उपमासै रहित पंचमी असंसक्ति नाम भूमिका है।।१४॥
(३६)अब षष्ठी पदार्थाभाविनी भूमिका दिखावे हैं:दोहा-कहे पदारथ बुद्धि लों,सबको होइअभाव ॥ यह पदारथाभाविनी, षष्ठी भूमिलषाव ॥ १५॥
टीका:-दृष्टांतः-जैसे स्वर्णवेत्ता पुरुषकू कटकादि भूषणोंके विद्यमान होयाबी सर्व स्वर्णरूप ही प्रती
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မိုး
विचारमाला.
वि० ३.
त होने है । तैसें देहसैं लेकर बुद्धिपर्यंत जो पदार्थ कहे हैं तिन सर्वोका अभाव कहिये अधिष्ठान ब्रह्मरूपसैं प्रतीति, यह पदार्थों की अनुपलब्धिरूप षष्ठी भूमिका कही है ॥ १५॥
(३७) अब तुरीया नामक सप्तमी भूमिका दिखावै हैं:दोहा - भावाभाव न तहां कछु, सप्तम तुरिया मांहि ॥ मैं तू तहां न संभवै, कहा अ कह नाहिं ॥ १६ ॥
टीका:- सप्तम तुरीया नाम भूमिका मैं मैं शब्दका अर्थ प्रमाता, तू शब्दका अर्थ प्रमेय, इन दोनो के बनतें अर्थ से सिद्ध हुआ जो प्रमाण या त्रिपुटीरूप द्वैतकी जैसे चतुर्थी पंचमी भूमिका मैं भावरूपकर प्रतीति होवै; तैसें नहीं होवे हैं | अभाव रूपकर जैसे षष्ठी भूमिका में प्रतीति होवे, तैसेची होवे नहीं । जो कहो भावाभाव पदार्थोंतें भिन्न शेष रही वस्तु क्या है ? तहां सुनोः - वाणीका अविषय होने अवाच्य है । यामैं श्रुति प्रमाण है: - "यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह" मन
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वि० ३.
ज्ञानभूमिका.
६१
""
सहित वाणियां न प्राप्त होइकै जातें निवृत्त होवे हैं " यन्मनसा न मनुते " " जिसको मनकरके लोक नहीं जाणते " ॥ १६ ॥
(३८) अब ग्रंथ अभ्यासका फल कहे हैं:सोरठा - प्रगट करी गुरुदेव, सप्तभूमिका ज्ञानकी ॥ अनाथ उहे निज मेव. चित दै करत विचार जो ॥ १७ ॥
टीका :- अनाथदासजी कहे हैं: - गुरुने प्रगट करी जो ज्ञानकी सप्तभूमिका, चित्तको एकाग्रकर जो तिनकों विचारे, सो अपने वास्तव स्वरूपको जान लेवै ॥ १७ ॥ दोहा - तृतीयो माल विचारको, हरन सकल संताप || ज्ञानभूमिका प्रगट कर, भयो शांत अब आप ॥ १८ ॥
इति श्रीविचारमालायां सप्तज्ञानभूमिका वर्णनं नाम तृतीयविश्रामः समाप्तः ॥ ३ ॥
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३२
विचारमाला.
अथ ज्ञानसाधनवर्णनं नाम चतुर्थविश्रामप्रारंभः ॥ ४ ॥
( ३९ ) पूर्व विश्राम में ज्ञान की सप्त भूमिका कही अब ज्ञानके साधन जानने की इच्छावाला हुआ शिष्य कहे है: - शिष्य उवाच ॥
वि०.४.
दोहा - भगवन् मै जान्यो भले, सप्तभूमिका ज्ञान ॥ निर्मल ज्ञान उद्योतकं साधन कौन प्रमान ॥ १ ॥
टीका:- हे भगवन्! ज्ञानकी सप्त भूमिका में भली प्रकार जानी है, अब समष्टि व्यष्टि उपाधिरूप मलसँ रहित शुद्धब्रह्मका जो ज्ञान, ताकी उत्पत्तिके साधन कौन हैं ? यह कहो । याका भाव यह हैं:- जिन साधनो ज्ञानमें अधिकार होवे सो प्रमाता मैं होणेवाले साधन कहो ? औ प्रमाण कहिये प्रत्यक्षादि षट् प्रमाणमैं किस प्रमाणजनित तत्वज्ञान कहा है ? यह कहो || १ || अब शिष्य, अपनी उक्ति हेतुकथनार्थ प्रथम हटांत कहे है:--
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वि० ४.
ज्ञानसाधन.
६३
दोहा - भगवन् तिमिर नसै नहीं, कहि दीपककी बात ॥ पूरन ज्ञान उदय विना, हृदय भरम नहिं जात ॥ २ ॥
टीका :- हे भगवन् ! जैसे अंधकारमें स्थित पुरुषका दीप तैल बत्ती जोतिकीया बातों कीयेसें अंधकार दूर नहीं हो है, तद्वत ब्रह्मज्ञान के उदय विना हृदय में स्थित जो अनात्मा मैं आत्मप्रतीतिरूप भ्रम सो दूर नहीं होवै हैं, यातें आप ज्ञानके साधन कहो ॥ २ ॥
(४०) इस रीति से शिष्य कर पूछे हुए श्रीगुरु ज्ञानके साधन कहे हैं: - श्रीगुरुरुवाच ॥ ज्ञान साधन कहते हैं :दोहा - प्रथमें जगदासक्ति तजि, दारा सुत गृह वित्त ॥ विषवत विषय विसारि जग, राग द्वेष अतित्त ॥ ३ ॥
टीका:- हे शिष्य ! प्रथमं विषय संपादनका साधन रूप जो जगत् तामैं आसक्तिका त्यागकर, काहे तें संसारासक्ति ज्ञानकी विरोधी है । यह पंचदशी में कहा
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विचारमाला. वि० ४. है:-॥ श्लोक ॥ " संसारासक्तचित्तः संश्चिदाभासः कदाचन ॥ स्वयंप्रकाशः कूटस्थं स्वतत्त्वं नैव वेत्त्ययम् (१) " "यह चिदाभासरूप जीव विषयसंपादनादि ध्यानरूप जगतमैं आसक्तचित्त हुआ, कदापि स्वतःप्रकाश कूटस्थ स्वस्वरूपकू नहीं जान है”। औधन,दारा, सुत, गृह इनमैंबी आसक्तिका परित्याग कर । जाते ज्ञानके अधिकारीमें आसक्तिका अभाव गीतामैं कहा है:"असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु "1" पुत्र दारा गृहआदिकोंमें प्रीतिका अभाव” औ शब्दादि विषयोंकू विषकी न्याई भीलाए, काहेरौं विषयासक्तिवी ज्ञानमैं प्रतिबंध है । सो अष्टावक्रमें कहा है:-" मुक्तिमिच्छसि । चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज " औ रागद्वेषका सर्वथा. परित्याग कर, काहेत ? भगवानने कहा है- इंद्रियों के शब्दादि विषयोंमें राग द्वेष स्थित हैं, मुमुक्षु तिनके . वश न होवे, काहेत सो इसके परिपंथी है" ॥ ३ ॥ (४१) पूर्व कहा, जो जगत् आदि पदार्थोंमें आसक्तिका त्याग, ताकी सिद्धि अर्थे प्रत्येक पदार्थमैं दूषण दिखावणेकी इच्छावाले हुए, प्रथम स्त्रीमैं दूषण दिखावै हैं:
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ज्ञानसाधन. .
वि० ४. दोहा-तिय अतिप्रिय जे जानिनर, करत . प्रीति अधिकाय॥ तेशठ अति मतिमंद जग, वृथाधरी नरकाय॥४॥
टीका:-जे नर स्त्री• अति प्यारी जानकर तामें अति प्रीत करै हैं, ते पुरुष शठ हैं औ अति मंदबुद्धि हैं, काहेते मोक्षका साधन मनुष्यशरीर तिन्होंने व्यर्थ खोया है ॥ ४ ॥ दोहा-अस्थि मांस अरु रुधिर त्वक, कश्मलनखसिषपूरणनिरधन अशुचिमलीनतन,त्याग आगज्यूं दूर ॥५॥
टीकाः-हे शिष्य ! स्त्रीशरीर हाड मास अरु रक्त चमडी इन अशुद्ध पदार्थोंकर नखसे लेकर शिखापर्यंत पूरन है औ जातिकर भी नीच भगवानने कही है औ ऊपरसे शरीरकर अपवित्र औ मलीन है औ यह स्त्री शरीरकरही दुष्ट नहीं किंतु स्वभावसेभी दुष्ट है । सोभी कहा हैः-॥ चौपाई ॥ “नारिस्वभाव स
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वि०.४
विचारमाला. त्य कवि कहहीं, अवरण आठ सदा उर रहहीं । साहस अनृत चपलता माया, भय अविवेक अशौच अदाया।" "कोटि वन संघात जुकरिये, सबको सार खींच इक धरिये तिनके हिय सम सो न कठोरा, ऋषि मुनिगण यह देत ढंढोरा ॥" याते अनिकी न्याई दाहका हेतु जानकर ताका त्याग कर ॥ ५॥
ननु जैसे सर्प विछु आदिक स्पर्शसे अनर्थकर होते हैं, तैसे स्त्रीभी स्पर्शद्वारा अनर्थका हेतु है, चिंतनध्यानादिकों कर नहीं ? यह आशंका कर कहे हैं:दोहा-अहिविष तन काटे चदै,यह चिंतक्त चढ़ि जाय ॥ ज्ञान ध्यान पुनि प्राण हूं, लेत मूल्युत खाय॥६॥
टीका:-यद्यपि सर्पका विष, स्पर्श कियेसे चढ़े है तथापि यह कामरूप विष, स्त्रीके चिंतनमात्रसे शरीरमें. प्रवेश करे है। याते चिंतनकू भी मैथुन कहा है औ. स्पर्श कियसे तो शास्त्रज्ञानकू दूर करे है । सोई कहा
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वि०.४.
ज्ञानसाधना है-"जब पंडित पढ़ि तियपै ढिसरे, उक्ति युक्ति सबही तब विसरे" ॥ किंवा वित्तकी एकाग्रता अर्थ जो ध्येयाकार वृत्तिरूप ध्यान आश्वास इनकू विचारसहित दूर करे है । मैथुन कियेसे श्वास अधिक टूटे है इही प्राणका खाणा है ॥६॥
(४२) या स्त्रीचिंतनकू मैथुनरूप कहीं कहा हैं ? या.आकांक्षके होयां कहै हैं:दोहा-मैथुन अष्ट प्रकार जो,अनाथ कह्यो श्रुति चाहि ॥इनते निजविपरीत जो, ब्रह्मचर्य कहि ताहि ॥७॥
टीकाः-वक्ष्यमाण दोहेमें कहणा जो है अष्टमैथुन सो श्रुतिमें देखकर कहा है । इस अष्ट प्रकारके प्रकारका मैथुनसे जो विपर्यय है स्त्रीके श्रवण स्मरणा दिका त्यागरूप, सो ब्रह्मचर्य कहिये है॥७॥
सो अष्ट प्रकारका मैथुन कौनसा है ? तहां सुनोःदोहा-सरवन सिमरन कीरतन, चितवन
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विचारमाला. वि० ४. बात इकता दृढ संकल्प प्रयत्न तन,प्रापतिअष्ट कहंत ॥ ८॥
टीकाः-स्त्रीके सौंदर्यादि गुणोंका श्रवण औ कदाचित् अनुभव कियेका स्मरण औ हर्षपूर्वक तिनका कथन औ तिनका चिंतन औ एकांत स्थलमें स्त्रीसे संभाषण औं ताकी प्राप्तिका दृढ संकल्प, पुनः ताकी प्राप्ति अर्थ प्रयत्न औ तासे संभोगः यह अष्ट प्रकारका मैथुन कहा है ॥ ८॥
(४३) इस रीतिसे स्त्रीमें दूषण कहकर,अब पुत्रमें दूषण दिखावै हैं:दोहा-सुत मीठी बातां कहै, मनहुमाहिनीमंत ॥ सुनि सुनि आनंद पावहि, वश होत मूढ जग जंत ॥९॥
टीकाः-पुत्र जो मधुर तोतले वचन कहे है, सो मानो चित्तके मोहित करणेवाले मोहिनी मंत्र हैं । तिनोंकू पुनः पुनः श्रवण करके जे आनंदमन होके ताके वश होवे हैं ते पुरुष मूढ हैं । सोई कहा है:
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वि० ४. ज्ञानसाधन. ॥ दोहा ॥ "कर विचार यों देखिये, पुत्रसदा दुख रूप ॥ सुख चाहत जे प्रतते, ते मूढनके भूप” ॥९॥
पुत्रमें आसक्त पुरुषको मूढ कहा तामें हेतु कह्या चाहिये ? ऐसे कहो, तहां सुनोःदोहा-काज अकाज लयोनही, गह्यो मोह दृढ बंधा॥ सुगुरु खोज मग नाचह्यो, वह्यो सिंधु मति अंध ॥१०॥ टीका:-जाते पुत्रमें आसक्तिरूप दृढ बंधन करवंधायमान होके जा पुरुषने सुष्ठु गुरुका अन्वेषण (खोज) करके, मेरे ताई मनुष्य शरीर पाइकै क्या कर्तव्य है ऐसे नहीं जान्या औ मोक्षके मार्ग तत्त्वज्ञानकू संपादन नहीं किया औ विवेकसे रहित होकर जन्ममरणरूप संसारसमुद्रमें निमम हुआ है, ताते सो पुरुष मूढ है । सोई कहा है:-"निद्रा भोजन भोग भय, ए पशु पुरुष समान ॥ नरन ज्ञान निज अधिकता, ज्ञान विना पशुजान " ॥१०॥
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.७० .
विचारमाला.
वि०.४. ..
(.४४ ) इस रीतिसे पुत्रमें दूषण दिखाइके गृहमें दूषण दिखावे हैं:सोरठा-अंधकूपसम गेह, पच्यो नजान्यो मरम शठ॥ बँध्यो पशुवत नेह, सुत त्रिय क्रीडामृग भयो॥ ११॥
टीकाः-जलसे रहित बनके कूपकी न्याई दुःख•दाई जो गृह, ताके भरणमें प्रयत्नवान हुआ औ गृहमें । . जो सुतदारादि तिनमें स्नेहरूप रज्जुकर बंधायमान हुआ, तिनकी क्रीडाका मानो मृग भया है ! औ जैसे कोई पुरुष अपने आल्हादके अर्थ गृहमें प्रीति करे हैं तैसे ये सुत दारा आदि अपने सुख अर्थ मेरेमें प्रीति. करे हैं या मर्मकू नहीं जाने है; याते शठ है ॥ ११ ।।
(४५) अब द्रव्यमें दूषण दिखावै हैं:दोहा-द्रव्य दुखद तिहुं भांति यह,संपति मानत. क्रूर॥ बिसयो आत्मज्ञान धन, सब सुख संपति-मूर ॥ १२॥ ..
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ज्ञानसाधन.
वि०'४.
टीका:-सुत, दारा, गृह इन तीनोंकी न्याई दुःखदाई जो धन ताकू जो संपत्ति माने है, सो पुरुष क्रूर कहिये झूठा है; काहेते जा धनके संपादन कर आपने आत्माका ब्रह्मरूपतासे जो ज्ञानरूप धन सो विस्मरण भया है । सो ज्ञान कैसा है ? सब सुख कहिये ब्रह्मसुख ताकी संपत्ति कहिये प्राप्तिका हेतु है ॥ १२॥
धन दुःखका हेतु किस प्रकारसे है ? ऐसे कहो तहां सुनोःदोहा-बहु उद्यम प्राणीकर,अति क्लेशता हेतु ॥ जुरे तु रच्छी निपट दुख, जाइ तु प्राणसमेत ॥१३॥
टीका:-धनकी प्राप्ति अर्थजो पुरुष कृषिवाणिज्यादि बहुत उपाय करे हैं, तिनकर तिनकू अति क्लेश होवै है याते संग्रहकालमें दुःखदाई है । औ किसी पुण्यवशते इकत्र हो जावै तो नृप चौर अग्न्यादिकोते रक्षा करने में अति क्लेश होवै है औ नृप चोर अग्न्यादि निमित्तते
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७२ विचारमाला. वि० ४. दूर होजावै तो प्राणवियोगके समान दुःख होवे है; जाते धन, पुरुषका बाह्य प्राण है । सोई पंचदशीमें कहा है:"अर्थोके एकत्र करनेमें क्लेश है, तैसे रक्षा करने में औ नाशमें औ खरचनेमें क्लेश है, ऐसे क्लेश करनेवाले धनौकू धिक्कार है। ॥ १३ ॥
(४६) पूर्व एकादश दोहोकर कहे अर्थकू दृष्टांत हित एक दोहेकर कहे हैं:दोहा-ताते इनको संग तूं, छाड कुशल जिय मान॥मानो विषते सर्पते, ठगते । छुट्यो निदान ॥१४॥
टीका:-जाते सुत, दारा, गृह, धन, उक्त रीतिसे दुःखदाई हैं, तात तूं इनके संबंधळू त्याग करि आफ्ना कल्याण निश्चय कर । यद्यपि कल्याण नाम सुखका है सो इष्टकी प्राप्तिसे होवै है; तथापि अनिष्टको निवृत्तितेभी होवे है । यामें दृष्टांत कहै हैं। जैसे कोई बालक विष सर्प उगके वश हुआ किसी पुण्यवशतें छूटके आपको सुखी माने तदत ॥ १४॥ .
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ज्ञानसाधन.
वि० ४.
(४७) पूर्व तृतीये दोहेके प्रथम पादमें "जगतमें आसक्तिका त्याग कर” यह कहा तामें हेतु कहे हैं:दोहा-जगत् खेदमें परे जिन, केवल दुखतामाहि ॥ सत्य सत्य पुनसत कहूं, सुख स्वप्नेह नाहि ॥१५॥
टीका:-हे शिष्य ! पूर्व उक्त जगत्का परित्याग कर, तामें आसक्ति मत कर, काहेते तामें केवल क्लेशही है।इस अर्थकू प्रतिज्ञाकर कहे हैं,सत्य इत्यादिपदोंकर१५ । (४८) अब श्रोताकी बुद्धिमें अर्थके आरूढ होने अर्थ, जगत्को समुद्रके रूपालंकारसे कहे हैं:दोहा-जग समुद्र आसक्ति जल, कामादिक जलजंत ॥ भँवर भरम तामें फिरें, दुख सुख लहर अनंत ॥ १६ ॥ चिंता वड़वा अग्नि जहँ, तृष्णा प्रबल समीर॥ जिहिं जहाज या पयो,तिहिं किम धीर समीर ॥ १७॥
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विचारमाला..
७४
वि०४. टीका:-जिस पुरुषका चित्तरूपी जहाज या जगतुरूप समुद्रमें पड़ा है ताके अंतःकरणमें धैर्यादि दैवीसंपदके गुण कैसे उदय होवै । अन्य स्पष्ट ॥ १७॥
(४९) पूर्वोक्त जगतमें आसक्ति किस हेतुते होव है ? या आकांक्षाके होयां, शरीरमें आत्म अभिमानते होवे है, यह वार्ता सदृष्टांत दो दोहों कर कहे हैं:
दोहा-अपनो चित दुसरा भयो, पर अवगुण दर संत ॥ दृष्टिदोषते प्रकट ज्यों, बिव शशि गगन लहंत ॥१८॥
टीका:-जैसे अपने चित्तमें दुराशतारूप दोषकर अन्य पुरुषनिष्ठ दूषण प्रतीत होवै हैं औ नेत्रोंमें तिमिरादि दोषकर आकाशमें दो चंद्र प्रसिद्ध प्रतीत . होवे हैं ॥१८॥ . इस रीतिसे दृष्टांतकर कहे अर्थकू दार्टीतमें जोड़े हैं:दोहा-तातेंतन अभिमान ताजि, अजर.
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'वि०.४.
ज्ञानसाधन
पासि बड़ आहि ॥ ज्ञान लोप संसारकर, । भूल न गहिये ताहि ॥१९॥
टीका:-उक्त दृष्टांतोंकी न्याई शरीरमें आत्म अ. भिमानकर जगतमें आसक्ति होवै, ताते ता अभिमानका परित्याग कर । यद्यपि चिरकालकी होनेते अभिमानरूप पासी अजर है तथापि ज्ञानकर ताका बाध निश्चयरूप लोप होवै है,तातेसो तू कर । इस रीतिसे लोप किये पुनः संसारमें भूलकरभी आसक्ति होवै नहीं।॥१९॥ । (५०) विषवत विषय विसार यह पूर्व कह्या, तामें हेतु कहे हैं:दोहा-सुख ब्रह्मा इंद्रादिके, श्वानविष्ठ-. वत त्याग ॥ नाममात्र सुख अवनिके, भूल न इन अनुराग ॥२०॥
टीकाः-ब्रह्मा औ इंद्रादि देवनके जो शब्दादि विषय हैं, सो कूकरके विष्ठावत् नीरस हैं; तिनमें सुख नही; ताते तिनका परित्याग कर। औ पृथ्वीके शब्दादि.
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विचारमाला.
वि०४. विषयोंमें सुख संज्ञामात्र है। जैसे किसी जन्मांध पुरुषका कमलनयन नाम कल्पे, सो निरर्थक कथन मात्र है। ताते हे शिष्य ! इन-पृथ्वीके शब्दादि विषयोंमें भूलकरभी प्रीति मत कर । ननु विषयोंमें सुख नहीं, यह तुमारी कपोलकल्पना है, सो शंका बने नहीं: काहेते युक्ति प्रमाणकर या अर्थकी सिद्धि होवे है । जो कहो युक्ति प्रमाण कौन है ? तहां सुनोः-जो विषयमें आनंद होवै तो, एक विषयसे तृप्त जो पुरुष ताकू जब दूसरे विषयकी इच्छा होवै तबभी प्रथम विषयसे आनंद हुआ चाहिये।
औ होवै नहीं है, याते विषयमें आनंद नहीं। किंवाःजो विषयमें ही आनंद होवै तो, जा पुरुषका प्रियपुत्र अथवा और कोई अत्यंत प्यारा जो अकस्मात बहुतकाल पीछे मिल जावै तब वाकू देखतेही प्रथम जो. आनंद होवै सो आनंद फेर नहीं होता,सो सदाही हुआचाहिये. काहेते आनंदका हेतु जो पुरुष है सो वाके समीप हैं, याते पदार्थमें आनंद नहीं । किंवाः-जो विषयमें आनंद होवै तो, समाधिकालविषे जो योगानंदका भान होवैसो
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वि०.४.
ज्ञानसाधन.
न हुआ चाहिये, काहेते समाधिमें किसी विषयका संबंध नहीं है, याते विषय में आनंद नहीं । इत्यादि युक्ति है । औ वेदमें यह लिखा है :- " आत्मस्वरूप आनंदकं लेके सारे आनंदवाले होवे हैं, " ननु विषयों में आनंद नहीं है तो भान क्यूं हों हैं ? तहां सुनोः - विषय उपहित चेतन स्वरूप आनंदकी पुरुषकूं विषय में प्रतीति हो है । ननु विना होइ वस्तुकी प्रतीति होवे नहीं औ चेतनस्वरूप नित्य आनंदकी विषयमें अनिर्वचनीय उत्पत्ति हो, यह कहना बने नहीं औ अन्यदेश में स्थित विषयकी अन्यदेश में प्रतीति वा अन्यवस्तुकी अन्यरूपते प्रतीतिरूप अन्यथा ख्यातिका अंगीकार नहीं; याते विषय उपहित चेतनस्वरूप सुखकी विषय में प्रतीति होवे है, यह कहना बनै नहीं ? सो शंका भी बने नहीं: - काहेते यद्यपि अन्यथाख्यातिका सिद्धांत में अंगीकार नहीं, तथापि अधिष्ठान औ आरोप्य जहां एकवृत्तिके विषय हो, तहां अन्यथाख्याति ही मानी है । तथाहि: - जैसे रक्तपुष्प संबंधी स्फटिकरूप अधिष्ठान औ ला
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विचारमाला.
वि० ४.
लीरूप अभ्यस्त दोनों एक वृत्तिके विषय हैं, तहां स्फटि कमें रक्तता की प्रतीति अन्यथाख्याति से होवे है ! तैसे: इहां सिद्धांत में अन्यथाख्यातिही अंगीकार करी है । औ अन्यथाख्यातिमें सर्वथा विद्वेष होवै तो, विषय उपहित आनंदका विषयमें अनिर्वचनीय संबंध उपजे है । विषय उपहित आनंदका स्वरूपसंबंध चेतन में है, ताकी विषयमें अनिर्वचनीय उत्पत्ति होने है, याते इहां अनिर्वचनीय ख्यातिही है | अरु जो कहे, विषया। कार वृतिसे विषय उपहित चेतन स्वरूपानंदका लाभ होवै तो, मार्ग में वृक्षाकार वृत्तिसे तथा सर्वज्ञेयाकार वृत्तिसे ज्ञेय उपहित चेतनस्वरूपानंद का लाभ हुवा चाहिये ? सो बने नहीं: - काहेते अभिलषित विषयाकार वृत्तिसे विषय उपहित चेतन स्वरूपानंदका भान होवै है, अन्यका नहीं ॥ २० ॥
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(५१) ननु विषयों में सुख नहीं तो, पुरुषोंकी प्रवृत्ति क्यों हो है ? या शंका के होयां, विचार विना होवे है औ प्रवृत्तिसे प्रत्युत क्लेशही होवे है, यह अर्थ सहटांत तीन दोहोंकर दिखावै हैं:
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ज्ञानसाधनः .
वि०.४. दोहा-धायो चात्रिक धूमलहि स्वातिबूंदको मानि॥ मूरख पो विचार बिन - भई दृगनकी हानि ॥२१॥
टीकाः-जैसे कोऊ चातक पक्षी, दूरसे धूमकू देखकर तामें मेघबुद्धिसे स्वाति बूंदका निश्चय करके, सो मूर्ख पक्षी विचारसे विना ता धूममें प्रवेश करे तो बूंदका अलाभ औ नेत्रोंकी हानि होवै है ॥ २१ ॥
अन्य दृष्टांतः'दोहा-नारि पराई स्वप्नमें, भुगती अति मुख पाय॥ धर्म गयो केंद्रपगयो, अशुचि भयो रुखसाय ॥ २२॥
टीकाः-जैसे किसी विचारशून्य पुरुषने परस्त्री वा स्वप्नस्त्री अतिसुख मानके भोगी, ताते संतानका अलाभ औं धर्मकी हानी होवे हैं । कंद्रप गयो कहिये वीर्यकी हानी अरु खसाय कहिये वीर्यपानते. अशुचि होवे है ।। २२॥
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विचारमाला. वि० ४.. ... , अन्य दृष्टांत कहे हैं:-. . दोहा-चोग देषि ज्यू परत खग, आप बंधावत जार। ऐसे सुखसो जानि जग,
वश भये हीन विचार ॥२३॥ - टीका:-जैसे विचारशून्य पक्षी, जलवाले स्थानमें चोगकू देखके तृप्तिके अर्थ प्रवृत्त होवै, तहां तृप्तिका अलाभ होव है औ प्रत्युत अपने आपके जालमें बंधायमान करै है, इस रीतिसे दृष्टांत कहकर, अब दार्टात कहे हैं:सो पूर्वोक्त विषय, सुखरहित है; विचारशून्य पुरुष तिनके वश होयके केवल दुःखहीको अनुभव करे हैं ॥२३॥
(५२ ) अब तिन विचारशून्य विषयी पुरुषोंकी निर्लज्जताको, श्वान दृष्टांतसे प्रगट करे हैं:दोहा-श्वान स्वतियको संगकरि, रहत. घरी उरझाय॥ जग प्रानी ताको हसैं अपनो जन्म विहाय॥२४॥ टीका:-कूकर जो अपने पशु स्वभावसे स्वकूक- .
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ज्ञानसाधने.
वि० ४. रीसे ग्राम्यधर्म करिके एक घटिकाभर फस रहे हैं, ताळू जो विचारशून्य जगतके जीव हसे हैं, सो तिनकी निर्लजता है, काहेते ऐसे विचार नहीं करे हैं, जो यह श्वान षट्मास पश्चात एकवार संभोग करनेते क्लेशको अनुभव करे हैं, हमारा तो इस कर्ममें जन्म व्यतीत होवै है, हमको परिणाममें कितना क्लेश होवेगा ॥ २४ ॥
(५३) औ जो कहो; पूर्वोक्त विषयोंके त्यागमें कौन प्रमाण हैं तहां सुनोः यद्यपि श्रुति स्मृतिरूप प्रमाण बहुत हैं तथापि ज्ञानी अज्ञानीके वैराग्यके भेद दिखावणे अर्थ महात्माका आचाररूप प्रमाण कहे हैं:दोहा-अनाथ बिसारे विषयरस, संतन जान मलीन॥ ता उचिष्टसों रति करै, कामी काक अधीन ॥ २५॥
टीका:-स्वामी अनाथजी कहे हैं:-संतोंने विषयाँको अविद्याके कार्य औ अनित्यता आदि दूषणोंसहित जानकर त्यागे हैं औ जो पुरुष प्रथमभुक्त औ त्यक्त पदार्थोंसे प्रीति करै हैं औ कामी हुए तिनके आधीन
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विचारमाला. वि० ४. होवै हैं, सो पुरुष काक कहिये कौवा जैसे पक्षियोंमें नीच है तैसे अधम हैं. भाव यह है: अज्ञानीको जो वैराग्य होवै है सो विषयोंमें दोषदृष्टिसे होवै है, सो कालांतस्में पुनः विषयों में सम्यक् बुद्धिसे दूर होवै है । जैसे मैथुनके अंतमें सर्वपुरुषोंको स्त्रीमें ग्लानि होवै है औ कालांतस्में शोभन बुद्धि हो है, याते अज्ञानीका वैराग्य मंद है औ ज्ञानवानको जो वैराग्य होवै है सो विषयों में दोषदृष्टि औ मिथ्यात्व निश्चयपूर्वक होवै है, याते त्यक्त विषयोंको पुनः ग्रहण करे नहीं । जैसे अपने वमनको) फिर पुरुष ग्रहण नहीं करता तैसे। याते ज्ञानीका वैराग्य दृढ़ है ॥ २५ ॥ __(५४ ) इस रीतिसे दोषदृष्टिरूप वैराग्यका हेतु
औ त्यागरूप वैराग्यका स्वरूप कहा, अब वैराग्यका फल कहे हैं:दोहा-जगडंबरसों जग जहां,उपजै निज निरवेद ॥ पाक कांचरी सर्प ज्यों, छुटे सहज जग खेद ॥ २७॥
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वि० ४.
ज्ञानसाधन.
टीकाः -जहां पर्यंत जगतरूप आडंबर है, अर्थ यह जो प्रत्यक्ष प्रमाणके विषय या जगतमें औ शब्दादि प्रमाणजन्य ज्ञान के विषय स्वर्गादि जगतमें, जब पुरुषको वैराग्य उत्पन्न होवै, तब अनायासतेही ज्ञानद्वारा जन्ममरणरूप खेदकी निवृत्ति होते है । जैसे पकी त्वचाको अनायासः सर्प त्याग है तैसे ॥ ६ ॥
(५५) ज्ञानके अधिकारीमें एक वैराग्यही नहीं होवै है, किंतु अपर साधन भी होते हैं, यह कहे हैं:.' दोहा-पाप छीन तप दान बल, हृदय
शांत गतराग ॥ विषय वासना त्याग करि, भयो मुमुक्षु बड़भाग ॥२७॥
टीकाः-जो पुरुषने दान बल कहिये ईश्वरार्थ शुभ कर्मोंकर पाप निवृत्त कीये हैं, अर्थात् जो शुद्ध हृदय है औ उपासनारूप तपके बलसे शांत हृदय कहिये एकाग्रचित्त है औ गतराग कहिये वैराग्यसंयुक्त है औ विषयोंकी वासना त्यागकर अर्थात् षट् संपत्तिसंयुक्त होकर जो बड़े भाग्यवाला अविद्या ततकार्यरूप बंधकी
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विचारमाला. निवृत्ति औ परमानंदकी प्राप्तिरूप मोक्षकी इच्छावाला है। इहां विवेकका अध्याहार करणा । इस रीतिसे शुछहृदय औ एकाग्रचित्त औ साधनचतुष्टय संपन्न जो पुरुष सो तत्त्वज्ञानका अधिकारी है ।। २७ ।। (५६) अब ज्ञानके अधिकारीको कर्तव्य कहे हैं:दोहा-सो अधिकारी ज्ञानको, श्रवण ज्ञानमय ग्रंथ ॥ सो तबलगि जबलगि भलै, समझै पंथ अपंथ ॥२८॥
टीका-सो अधिकारी पुरुष पलिंगोंसे वेदांतवाक्योंका तात्पर्य निश्चयरूप श्रवण करे । सो षट्लिंग यह हैं:-उपक्रम उपसंहारकी एकरूपता (१) अभ्यास [२] अपूर्वता (३) फल [ ४ ] अर्थवाद (५) उपपत्ति [६] अब इनके अर्थ सुनोःजो अर्थ आरंभमें होवै सोई समाप्तिमें होवै, तहां उपक्रम उपसंहारकी एकरूपता कहिये है । जैसे छां. दोग्यके षष्ठाध्यायके उपक्रम कहिये आरंभमें अद्वि
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वि० ४.
ज्ञानसाधना
तीय ब्रह्म है औ उपसंहार कहिये समाप्तिमें अदितीय ब्रह्म है (१) पुनः पुनः कथनका नाम अभ्यास है । छांदोग्यके षष्ठ अध्यायमें नववार तत्त्वमसि वाक्य है, याते अद्वितीय ब्रह्ममें अभ्यास है (२) प्रमाणांतरसे अज्ञातताको अपूर्वता कहे हैं । उपनिषद्प शब्द प्रमाणसे औ प्रमाणका अद्वितीय ब्रह्म विषय नहीं, याते अद्वितीय ब्रह्ममें अज्ञाततारूप अपूर्वता है
(३) अद्वितीय ब्रह्मके ज्ञानः मूलसहित शोक , मोहकी निवृत्तिरूप फल कह्या है [४] स्तुति अथवा निदाका बोधक वचन अर्थवाद वाक्य कहिये है । अद्वितीय ब्रह्मबोधकी स्तुति, उपनिषदमें स्पष्ट है [५] कथन करे अर्थके अनुकूल युक्तिको उपपत्ति कहे हैं। छांदोग्यमें सकल पदार्थों का ब्रह्मसे अभेद कथनके अर्थ कार्यका कारणसे अभेद प्रतिपादन, अनेक दृष्टांतोंसे कह्या है (६)! इस रीतिसे पलिंगोंसे सकल वेदांतनका तात्पर्य जानिये है । सो श्रवण, ज्ञानमय ग्रंथ जो उपनिषद् ग्रंथ हैं तिनसे सिद्ध होवे है । तिनको श्रवण
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विचारमाला. कि. ४. करै । सो तिनको तवलग श्रवण करै, जबलग श्रवणका फल प्रमाणगत संशयकी निवृत्ति होवै । सो फल यह है:पंथ कहिये वेदांतवाक्य अद्वितीयब्रह्मके प्रतिपादक हैं अपंथ कहिये अन्य स्वर्गादि अर्थके प्रतिपादक नहीं. इस रीतिसे समझै कहिये निश्चय करै ॥ २८ ॥ __यदि कहो, अद्वितीय ब्रह्ममैं वेदांतवाक्योंके तात्पर्यका निश्चय पलिंगोते. होवे है, परंतु ब्रह्मात्माका अभेद निश्वय काहेते होवे हैं ? तहां सुनोःदोहा-तत्त्वमसि अहंब्रह्मास्मि, इत्यादिक महावाक्य ॥ गुरुमुख श्रवण करे भले, सारासार हताक ॥ २९॥
टीकाः-गुरुमुखसे तत्त्वमसि महावाक्यके अर्थ श्रवण करणेते "अहं ब्रह्मास्मि " मैं ब्रह्म हूं यह ज्ञान होवै है। सो या रीतिसे होवै हैः-तत्त्वमसि या वाक्यमें तत्, त्वम्, 'असि, ये तीन पद हैं, तिनमें प्रथम पदका वाच्य कहे हैं:-माया उपाहत जगतका कारण, सर्वज्ञतादि
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वि०.४. ज्ञानसाधन.
७. धर्मवान्, परोक्षताविशिष्ट, सत्य ज्ञान अनंतस्वरूप जो ईश्वर, चेतन, सो ततपदका वाच्य है । अब त्वंपदका वाच्य कहे हैं जो अंतःकरणविशिष्ट, अहंशद औ अहंवृत्तिकी विषयतासे प्रतीत होवै है, सो जीव चेतन त्वंपदका वाच्य है औ असिपद दोनोंकी एकताका बोधक है । अब वाक्यार्थ कहे हैं। जो सर्वज्ञतादि गुणवान् प. रोक्ष ईश्वर चेतन सो अंतःकरणविशिष्ट अल्पज्ञताआदि धर्मवान नित्य अपरोक्ष तु है यह कहना विरुद्ध है बने । नहीं. काहेते विरुद्ध अर्थमें वक्ताका तात्पर्य होवे नहीं, याते सार असार हताक कहिये ईश्वर जो जीव ईश्वरका स्वरूप तामें सार जो चेतनभाग ताकू एक जान । महावाक्योंमें लक्षणा अंगीकार करी है, याते लक्षणाका हेतु स्वरूप कहे हैं:-वक्ताके तात्पर्यकी अनुपपत्ति लक्षणाका बीज है । नैयायिक अन्वयकी अनुपपत्ति लक्षणाका बीज कहे हैं,सो बने नहीं: काहेते यह तिनका अभिप्राय है.
जहां वाक्यमें स्थित पदोंके अर्थोंका परस्पर संबंध . न बने तहां लक्षणा होवै है जैसे गंगायां ग्रामः' या
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विचारमाला.
वि० ४.
46.
वाक्यमें स्थित जो गंगा औ ग्रामपद तिनके अर्थ जो नगर औ नंदीका प्रवाह, तिनका परस्पर संबंध बने नहीं याते लक्षणा मानी है । या नैयायिक उक्तिका 'यष्टी: प्रवेशय ' या वाक्यमें व्यभिचार है : काहेते भोजनके समय उत्तम पुरुषने अन्य पुरुषको कहा 'यष्टिका प्रवेश करावो' इहां यष्टिपदका अर्थ जो दंड ताका प्रवेश पदार्थसे संबंध संभवैभी है, तथापि वक्ता के तात्पर्यके अभावते लक्षणा होवै है । याते तात्पर्य अनुपपत्तिही लक्षणा में बीज है औ लक्षणाके ज्ञानमें शक्यका ज्ञान उपयोगी है, काहेते शक्यसंबंध लक्षणाका स्वरूप है, शक्य जाने बिना शक्यसंबंधरूप लक्षणका ज्ञान होवै नहीं, याते शक्यका लक्षण कहे हैं: - जा पदमें जा अर्थकी शक्ति होवै ता पदका सो अर्थ शक्य जान । अब लक्षणाका स्वरूप कहे हैं:शक्यका जो लक्ष्यार्थसे संबंध, सो लक्षणांका सामान्य लक्षण है । अब लक्षणाके जहती आदि भेद औ तिनके लक्षण कहे हैं: - वाच्यार्थका परित्याग करके .
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वि० ४.
ज्ञानसाधन.
८९
वायार्थका संबंधी जो अन्य अर्थ तामें जो पदका संवध, सो जहती लक्षणा कहिये है । जैसे " गंगा में ग्राम है " या वाक्यमें गंगापदका वाच्य जो प्रवाह तांकूं त्यागिके ताका संबंधी जो तीर तामें गंगापदकी लक्षणा है । अथ अजहती लक्षणाः- वाच्यर्थको न त्यागि के वाच्यार्थका संबंधी जो अन्य अर्थ तामें जो पदका संबंध, सो अजहती लक्षणा कहिये है । 'यथा काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' किसीने कहा 'काकते दधिकी रक्षा करना, सो मार्जारादिकोंते संरक्षण विना दधिकी रक्षा वने नहीं, याते काकपदका शक्य जो वायस पक्षी, ताके संबंधी जो दधि उपघातक मार्जारादि, ता काकपदकी लक्षणा है । अथ भागत्यागलक्षणाका स्वरूपः - शक्य अर्थके एक भागका परित्याग करिके शक्य अर्थके एक भाग में जो पदका संबंध सो भागत्याग लक्षणा कहिये है | जैसे प्रथम दृष्ट देवदत्तकं अन्य देशमे देखकर 'कहे, ' सो यह देवदत्त है'. तहां भागत्याग लक्षणा है; काहेते परोक्षदेश अतीत काल सहित देवदत्तशरीर सो
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विचारमाला. .. वि०४: पदका अर्थ है, समीप देश औ वर्तमानकालसहित देवदत्तशरीर यह पदका अर्थ है; अतीतकालसहित अन्यदेशसहित जो वस्तु सोई वर्तमानकाल औ समीपदेशसहित है, यह समुदायका वाच्य अर्थ है, सो संभव नहीं: काहेते अतीतकाल औ वर्तमानकालका विरोध है, तथा अन्यदेशका औ समीपदेशका विरोध है, याते. परोक्षदेश अतीतकालरूप एक भागका त्याग करके एक भाग देवदत्त शरीरमात्रमै सो पदकी लक्षणा औ समीपदेश औ वर्तमानकालरूप एक भाग त्याग करके, एक भाग देवदत्त शरीरमात्रमें यह पदकी लक्षणा है। या रीतिसे लक्षणाके तीन भेद हैं। तिनमेंसे महावाक्यमें जहती अजहती संभव नहीं औ भागत्याग या रीतिसे हैः-पूर्वोक्त वाक्यार्थके विरोधते तत्पदके वाच्यमें जो माया औ मायाकृत सर्वशक्ति सर्वज्ञता आदि धर्म, इतने वाच्य भागकू त्यागके, चेतनभागविषै तत्पदकी भागत्याग लक्षणा है । तैसे त्वंपदके वाच्यमें जो अविद्या अंश औ अविद्याकृत अल्पशक्ति अल्पज्ञता आदिधर्म,ताईं.
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वि० ४. ज्ञानसाधन. त्यागके चेतनभागमें त्वंपदकी भागत्याग लक्षणा है। इस रीतिसे भागत्याग लक्षणाते ईश्वर औ जीवके स्वरूपमें लक्ष्य जो चेतनभाग तिनकी एकता तत्त्वमसि महावाक्य बोधन करे हैं । मूलमें आदिपदसे ग्रहण कीये जो 'अहं ब्रह्मास्मि,' 'अयमात्मा ब्रह्म,' 'प्रज्ञानमानंदं ब्रह्म, 'ये तीन महावाक्य, तिनमेंभी यही रीति. जान लेनी ॥ २९॥
(५७) अब मननका स्वरूप औ फल कहे हैं:दोहा-जग प्राणी विच्छेपचित, तजौ दूर तिनसंग ॥ बैठि इकंत स्वतंत्र है, करै मनन सर्वंग ॥३०॥
टीका:-यद्यपि महावाक्योंसे अभेदनिश्चयते. पश्चात् कर्तव्य नहीं, तथापि पूर्वोक्त रीतिसे कहे अथमें जाळू संशय होवै, सो जगत्में विक्षिप्तचित्त पुरुषोंका संग दूरते त्याग कर, एकांतस्थानमें स्थित होइ करके औ सर्व ओरते स्वतंत्र हाइके, जीवब्रह्मके अभेदकी साधक औ भेदकी बाधक युक्तियोंसे अद्वितीय
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विचारमाला. वि०. ४. ब्रह्मका चिंतनरूप मनन करे । सो युक्तियां यह हैजैसे सच्चित् आनंद लक्षण श्रुतिमें आत्मा कहा है, तैसेही सचित् आनंद लक्षण ब्रह्म कहा है, याते ब्रह्मरूप आत्मा है। किंवा:-ब्रह्म नाम व्यापकका है। देशते जाका अंत नहीं होवै सो व्यापक कहिये, ताते जो आत्मा भिन्न होवै तो देशते अंतवाला होगा। जाका देशते अंत होवै ताका कालतेभी अंत होवै है यह नियम है, याते आत्मा अनित्य होवैगा । जाका कालते अंत होवै सो अनित्य कहिये है। याते ब्रह्मसे भिन्न आत्मा नहीं। किंवाः-आत्मासे भिन्न जो ब्रह्म होवै तो, सो अनात्मा होवैगा, जो अनात्मा घटादिक हैं सो जड़ हैं, याते आत्मासे भिन्न ब्रह्मभी जड़ही होवैगा। किंवा:-अनुमानरूप युक्ति कहे हैं:-"जीवो ब्रह्माभिन्नः चेतनत्वात् यत्र यत्र चेतनत्वं तत्र तत्र ब्रह्माभेदः यथा ब्रह्मणि"। जो वादी यामैं यह शंका करे कि:-जीवरूप पक्षमें चेतनत्वरूप हेतु तो है, ब्रह्माभेदरूप साध्य नहीं ? या शंकाका तर्कसे प्रहार करणा,
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वि०४.
ज्ञानसाधना
अनिष्ट आपादनका नाम तर्क है । सो यह है:-जीवरूप पक्षमें चेतनत्वरूप हेतु मानके ब्रह्माभेदरूप साध्य नहीं माने तो ब्रह्मके अद्वितीयताकी प्रतिपादक 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' या श्रुतिसे विरोध होवैगा श्रुतिसे विरोध आस्तिक अधिकारीकू इष्ट नहीं, या अनिष्ट आपादनरूप तर्कके भयते ब्रह्माभेद रूप साध्यका अभाव वादी कहे नहीं । इस रीतीसे
शंका निवृत्त होवै है । इत्यादि युक्तियोंसे मनन होवै । है। मननसे निवर्तनीय संशय शास्त्रांतरमें इस रीतिसे
कहा हैः-संशय दो प्रकारका है, एक प्रमाणगत संशय है द्वितीय प्रमेयगत संशय है । प्रमाणगत संशय पूर्व कहा है । प्रमेय संशयभी आत्मसंशय औ अनात्मसंशय भेदसे दो प्रकारका है। अनात्मसंशय अनंतविध है। ताके कहनसे उपयोग नहीं। आत्मसंशयभी अनेक प्रकारका हैः-आत्मा ब्रह्मसे अभिन्न है अथवा भिन्न है, अभिन्न होवै तोभी सर्वदा अभिन्न है अथवा मोक्षकालमेंही अभिन्न होते है, सर्वदा अभिन्न नहीं, सर्वदा अभि
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९४
विचारमाळा.
वि० ४.
न होवे तोभी आनंदादि ऐश्वर्यवान् है, अथवा आनंदादिरहित है, आनंदादिक ऐश्वर्यवान होंवे तोभी आनंदादिक गुण है अथवा ब्रह्मात्माका स्वरूप हैं; इसते आदि लेके तत्पदार्थाभिन्न त्वंपदार्थविषे अनेक प्रका रका संशय है | वैसे केवल त्वपदार्थगोचर संशय भी आत्मगोचर संशय है: - आत्मा देह आदिकोंते भिन्न है
こ
वा नहीं, भिन्न कहै तोभी अणुरूप है वा मध्यम परिमाण हैवा विभु परिमाण है, विभु कहै तो भी कर्ता है अथवा अकर्ता है, अकर्ता है तोभी परस्पर भिन्न अनेक हैं अथएक है; इस रीति के अनेक संशय केवल त्वंपदार्थ -
: गोचर हैं । तैसे केवल तत्पदार्थ गोचर भी अनेक प्रका रके संशय हैं: - वैकुंठादि लोक विशेषवासी ईश्वर परि च्छिन्न हस्तपादादिक अवयवसहित शरीरी है अथवा शरीररहित विभु है, जो शरीरहित विभु है तो भी परमाणु आदिक सापेक्ष जगतका कर्ता है अथवा निरपेक्ष कर्ता है, परमाणु आदिक निरपेक्ष कर्ता कहे तो भी केवल कर्ता है अथवा अभिन्न निमित्तोपादानरूप कर्ता है जो अ
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ज्ञानसाधन.
वि० ४. भिन्न निमित्तोपादान. कहै तोभी प्राणिकर्मनिरपेक्ष कत्र्ता होनेते विषमकारिता आदिक दोषवाला है अथवा प्राणिकर्म सापेक्ष कर्ता होनेते विषमकारिता आदिक दोषरहित है; इसते आदि अनेक प्रकारके तत्पदार्थगोचर संशय हैं । सो सकल संशय प्रमेयसंशय कहिये हैं। तिनकी निवृत्ति मननसे होवै है॥३०॥
अब पूर्व कहे फलकू पुनः स्पष्ट कर हैं:दोहा-नितप्रति करत विचारकै, स्थिरता पावै चित्त ॥बोध उदय छिन छिन करे, जान्यो नित्य अनित्य ॥ ३१॥ .
टीका:-नित्यप्रति युक्तियोंसे ब्रह्मके चिंतनरूप विचारके किये प्रतिक्षण बोधकी निःसंदेहता होवे है, ताते ब्रह्मात्माका अभेदरूप जो प्रमेय तामें चित्तकी स्थिति होव है, काहेते जिसने ऐसे जाना है।-नित्य कहिये ब्रह्मात्माका नित्यही अभेद है औ अनित्य कहिये बमात्माका भेद उपाधिकृत होनेते अनित्य है औ नित्य अर्थमेंही मुमुक्षुकी स्थिति होवै है यह नियम है।॥ ३१ ॥
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विचारमाला.
वि० ४.
(५८) अब जगत सत है, आत्मा कर्ता भोक्ता है, औ ब्रह्मात्मका भेद सत्य है, इस विपरीत ज्ञानरूप विपर्ययके हुए कर्तव्य कहे हैं:
दोहा - शुद्ध स्वरूप प्रकाश में, कछु प्रवेशता होइ ॥ साधन पाई प्रौढ़ता, निदिध्यासन कहि सोइ ॥ ३२ ॥
९६
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टीका:-- यद्यपि श्रवण मननरूप साधनकी दृढ़तासे प्रमेय औ प्रमाणगत संशय तो संभव नहीं तथापि पूर्व अभ्यस्त वासना के वशते प्रकाशरूप प्रत्ययकूं आत्मामें जाको कर्तृभोक्तृत्वकी प्रतीतिरूप विपर्यय हो सो पुरुष अनात्माकारवृत्तिरूप व्यवधान रहित ब्रह्माकार - वृत्तिकी स्थितिरूप निदिध्यासन करे ॥ ३२ ॥
[ ५९ ] अब निदिध्यासनका अवांतर फल कहे हैं :-- दोहा - कामादिक समता उदै, भये सु याहि प्रकार || निशि आगम प्राणी हैं सबै, होत अल्प संचार ॥ ३३ ॥
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ज्ञानसाधना
टीकाः-व्यवधानरहित ब्रह्माकार वृत्तिरूप समताके उदय भयां जो फल होवै सो कहे हैं: जौनसीयां कामक्रोधरूप वृत्तियां पुरुषके हृदयमें पूर्व निरंतर होतीयां थीयां सो निदिध्यासनके कीये कदाचित होवै हैं । दृष्टांतः-जैसे रात्रिके आगमनसे पुरुषोंका गमनागमनरूप संचार स्वल्प होवै है तैसे ॥ ३३ ॥
(६०) अब संशय विपर्ययसे रहित तत्त्वज्ञानके उदय भये कर्तव्यका अभाव कहे हैं:दोहाः-शनैः शनैः साक्षातता, उदय भई
जव जाहि ॥ है नाहीं शुभ अशुभ सुख, .. ' दुख नहीं दरसै ताहि ॥३४॥ टीका:-श्रवण मनन निदिध्यासनके करते हुए जब जिस महात्माकू तत्त्वज्ञान उदय भया, तब ताकू . विधि निषेध नहीं है । सोई कहा है:-"निबैगुण्यमामें जो विचरता है, ताको को विधि है को निषेध है" औ ताकू सुख दुःखभी अपने आत्मामें प्रतीत होवै
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विचारमाला. वि०४. नहीं । यद्यपि अहं सुखी अहं दुःखी यह अहंकार विद्धानमें भी प्रतीत होवै है? तथापि अहंशब्दके तीन अर्थ हैं:एकमुख्य अर्थ औदो अमुख्य हैं। पदकी शक्तिवृत्तिकर जो प्रतीत होवै सो मुख्य अर्थ कहिये है औ लक्षणा कर प्रतीत होवै सो अमुख्य कहिये है । तथाहिः-आभास सहित कूटस्थ अहंशब्दका मुख्य अर्थ है, या अर्थमें अहंशब्दकू मूढ पुरुष जोड़ते हैं औ अंतःकरणसहित आभास अरु कूटस्थ ये दोनों भिन्न भिन्न अहंशब्दके अमुख्यार्थ हैं। इनमें लौकिक शास्त्रीय व्यवहारमें अहंशब्दकों) विवान क्रमकर जोड़ते हैं । “अहं गच्छामि अहं तिठामि अहं सुखी अहं दुःखी " या लौकिक व्यवहारमें अहंशब्दकू विद्वान् साभास अंतःकरणमें जोड़ता है। " असंगोऽहं चिदात्माऽहं " या शास्त्रीय व्यवहारमें अहंशब्दकू विद्धान कूटस्थात्मामें जोड़ता है । यद्यपि साभास अंतःकरण अध्यस्त है, सो सुख दुःखका आश्रय बने नहीं, काहेते जो अध्यस्त होवै सो अन्यका आश्रय होव नहीं यह नियम है। जैसे रज्जुमें अध्यस्त
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ज्ञानसाधन.
वि० ४. सर्प, अपनी गमनादि क्रियाका आश्रय बनै नहीं तैसें; तथापि अज्ञान तो शुद्धचेतनमें अध्यस्त है औ अज्ञान उपहि में अंतःकरण अभ्यस्त है, . अंतःकरण उपहित जीव साक्षीमें सुखदुःखादि अध्यस्त हैं । इस रीतिसे अध्यस्त जो धर्मादिक तिनका अधिष्ठान आत्मा है । अ. ध्यासके अधिष्ठानपनेका अंतःकरण उपाधि है, याते साभास अंतःकरणके धर्म है यह कहा, धर्मादिक अंत:करणके धर्म होवें अथवा अंतःकरणविशिष्ट प्रमाताके धर्म हो अथवा रज्जु सर्प स्वप्नपदार्थोंकी न्याई किसीके धर्म न होवें, सर्व प्रकारसे आत्माके धर्म नहीं; याते विद्वान्कू सुख दुःख आत्मामें प्रतीत होवै नहीं, यह कहा ॥ ३४॥
(६१) ग्रंथ अभ्यासका फल कहे हैं;दोहाः-चली पूतरीलवणुकी,थाह सिंधुको लैन॥अनाथ आप आपैभई, पलटि कहै को बैन ॥३५॥ टीकाः-जैसे कोई पुरुष लवणकी प्रतरीकू रसीसे .
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वि० ५, :
विचारमाला. बांधके समुद्रके जल मापणे अर्थ फेंके, सो जलरूप हो ई पुनः जलसे बाहीर नहीं आवैहै; तैसे या ग्रंथके अभ्यास कीयेतै ज्ञानद्वारा ब्रह्मकुं प्राप्त होईके पुनः जीवभावकू प्राप्त नहीं होते है । यह गीतामें कहा है: 'यद्गत्वा न निवर्तते ।' जिस ब्रह्ममें प्राप्त होके पुनः नहीं निवृत्त होवै हैं, । यद्यपि मूलमें दाात नहीं, तथापि दृष्टांत के बलते ताकी कल्पना करी है ॥ ३५ ॥ दोहा-अलं तुरिय विश्राम यह, साधन ज्ञान अलाप ॥ पढ़े याहि अनयासही, लखे ब्रह्म चिद आप॥३६॥ इति श्रीविचारमालायां ज्ञानसाधनवर्णनं नाम
चतुर्थविश्रामः समाप्तः ॥ ४॥ .
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इ० ५, .. जगदात्मवर्णनं.
अथ जगदात्मवादनाम · पंचमविश्रामप्रारंभ ।
(६२) शिष्य उवाच । दोहा-साधनं ज्ञान लयो भलै, भगवन तुम प्रसाद ॥किह प्रकारआत्मा जगत, मोमन अधिक विषाद॥१॥
टीका:-अर्थ स्पष्टभाव यह है' हे भगवन आस्मामें जगत सत्य है अथवा असत्य है, सत्य कहो तो ब्रह्मज्ञानसे ताकी निवृत्ति नहीं चाहिये औ असत्य कहो तो प्रतीत हुआ नहीं चाहिये ? इस आकांक्षाके भयां; द्वितीयपक्षकू अंगीकार कर कहे हैं ।। १ ।।
(६३) श्रीगुरुरुवाच । दोहा-अहो पुत्र कीजै नहीं, रंचक ऐसो भर्म॥कहां जगत ईश्वर कहां, यह सब मनके धर्म ॥२॥ टीकाः-हे शिष्य ! आत्मामें जगत सत्य है ऐसा
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१०२
विचारमाला.
वि० ५.
भ्रम भूल करभी नहीं करना, काहेते जगत स्वरूपते हैही नहीं तो तामें सत्ताका ज्ञान कैसा होवे । जाते कार्यरूप जगतका अभाव है, तामें ताका कर्ता ईश्वर कहां है । ईश्वर जीव दोनों कल्पित हैं, यह पंचदशी में कहा है: - 'माया आभास करके जीव ईश्वर दोनोंको करे है, या श्रुतिके श्रवणते, तिन दोनोंने सर्व प्रपंच कल्प्या है, कल्पित वस्तु अधिष्ठानमें अत्यंत असत होवे है, याते जगत औ ईश्वरका अभाव कहा है, इनमें प्रतीति मन, कृत है ॥ २ ॥ दोहा - राग द्वेष मनके धरम, तूं तो मन नहि होइ ॥ निर्विकल्प व्यापक अमल, सुखस्वरूप तू सोइ ॥ ३ ॥
टीका: - जैसे जगतमें सत्ता प्रतीति मनका धर्म है, तैसे तामें राग द्वेषभी मनके धर्म हैं, सो मन तू नहीं । जो कहै मनसे भिन्न मेरा क्या स्वरूप है ? तहां सुन ! निर्विकल्प कहिये तर्क से रहित व्यापक, मलरहित, सुखस्वरूप जो चेतनब्रह्म, सो तू है ॥ ३ ॥ पूर्व शिष्यने
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वि० ५.
जगदात्मवर्णन.
१०३.
कहा जगत् असत् होवै तो प्रतीत न हुआ चाहिये याका उत्तर कहे हैं:
दोहा - जग तो तू जगतमें, याँ लहि तज हंकार | मैं मेरो संकल्प तजि, सुखमय अवनि विहार ॥ ४ ॥
टीका :- यह जगत् संपूर्ण तेरे स्वरूपमें कल्पित है । जाते कल्पितकी प्रतीति अधिष्ठान बिना होवे नहीं. ताते जगत् में अधिष्ठानरूपतें तूही स्थित है ऐसे जान• कर, मैं कर्ता भोक्ता हूं अरु यह वस्तु मेरी है और मैं संकल्पका कर्ता हूं या परिच्छिन्न अहंकारकूं त्यागकर शांतचित्त हुआ प्रारब्धके अनुसार पृथ्वीपर चेष्टा कर ॥४॥
औ जो कहो मिथ्या जगतकी प्रतीति कर तत्त्वज्ञानकी हानि होंवेगी ? तहां सुनो:
दोहा - अज्ञान नींद स्वप्नो जगत, भयो सुखद कहें त्रिस्य ॥ ज्ञान भयो जाग्यो जबे, दृष्टा दृष्टि न दृश्य ॥ ५ ॥
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विचारमाला.
वि० ५. टीका:-जैसे निद्रा समय स्वप्न जगत कहूं सुखदायी प्रतीत होवे है,कहूं दुःखप्रद प्रतीत होवे है,परंतु जब पुरुष जाग्या तव स्वप्न जगतकी स्मृति कर जाग्रत् बोधकी हानि होवै नहीं; तैसे अज्ञानरचित दृष्टादृष्टि दृश्यरूप जगत तत्त्वज्ञानके हुए प्रतीतभी होवे है. तोगी ताकर ज्ञानका बाध होव नहीं। यह पंचदशीमें लिख्या है.-"बोधकर मारे हुए अज्ञान तत्कार्यरूप शव, स्थितभी हैं तथापि बोधरूप चक्रवर्ती राजाकू तिनोंते भय नहीं; प्रत्युत तिस कर्ताकी कीर्ति होवे है॥ ५॥
(६४) अरु जो कहो, पूर्व रीतिसे बोधकी हानि काहेते नहीं होवै है ? तहां सुनोःदोहा-क्षुधा पिपासा शोक पुन, हरष जन्म अरु अंत ॥ये पट उर्मी धर्म तन, आत्मा रहित अनंत ॥६॥
टीका:-ये षट् उर्मी स्थूल सूक्ष्म शरीरका धर्म हैं। क्षुधा पिपासा प्राणके धर्म है, शोक हर्ष मनके धर्म हैं, जन्म मृत्यु स्थूलशरीरके धर्म हैं, औ अनंतात्मा
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वि० ५. . जगदात्मवर्णन. १०६ इन षट् उर्मीते रहित विद्वानकू प्रतीत होवै है, याते आत्माका असंग ब्रह्मरूपसे जो ज्ञान सो निवृत्त होवै नहीं । देशकालवस्तुकृत परिच्छेदते रहितको अनंत कहे हैं। ब्रह्मरूप आत्मा श्रुतिमें व्यापक कहा है, याते देशकृत परिच्छेदते रहित है औ अनित्य वस्तुका कालते अंत होवै है आत्मा नित्य है. याते कालकृत परिच्छेदते रहित है औ आत्मा सर्वरूप है, याते वस्तुकृत परिच्छेदते रहित है। परिच्छेद नाम अंतका है ॥६॥
अबप्रसंग प्राप्त केवल स्थूलशरीरके धर्म दिखावै हैं:दोहा-जन्म अस्ति अरु वृद्ध पुनि, विप्रनम छय तननाश ॥षट् विकार ये देहके, आत्मा स्वयंप्रकाश ॥७॥
टीका:-अर्थ स्पष्ट ॥७॥ हे भगवन् ! मैं जन्मता मरता हूं इस रीतिसे जन्मादि षट्विकार मुझमें प्रतीत होते हैं, आप कैसे इनका निषेध करो हो ? तहां गुरु कहे हैं:दोहा:-चिदाकाश अद्वय अमल, शांत
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विचारमाला. वि०.५.. एकतव रूप ॥ जन्म मरण कित संभवै, कित हंकार अनूप ॥८॥ टीका-हे शिष्य ! जो चेतन आकाश द्वैतते रहित औ मलते रहित औ सृष्टि आदिकोंके क्षोभते रहित औ सजातीय विजातीय स्वगत भेदरहित एक चिद् वस्तु है, सो तेरा आत्मा है, तामें जन्ममरणका संभव कैसे होवै औ उपमासे रहित तेरे आत्मामें मैंजन्मता मरता हूं यह अहंकार कैसे संभवै ? इहां जन्ममरणके निषेधते समग्र विकारोंका निषेध कीया ॥ ८॥
हे भगवन् ! ए षटूविकार स्थूल देहके धर्म हैं, मेरे नहीं, परंतु मैं सुखी मैं दुःखी या रीतिसँ सुख दुःखकी प्रतीति मेरे आत्मामें होवे है, याते मैं भोक्ता हूं ? तहां गुरु कहे है:दोहा-विषय भोग मुस्थान तन, साधक इंद्रिय जोय ॥ याही भोक्ता बुद्धि मन, तू न चतुष्टय होय॥९॥ . ...
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वि० ५. जगदात्मवर्णन. १०७
टीकाः-शब्दादि पंचविषयरूप भोग्य है औ तिनके भोगनेका स्थान स्थूल शरीर है औ भोक्ताके प्रति तिन भोगोंके निवेदन करनेवाले चक्षुरादि इंद्रिय हैं औ मन बुद्धि उपलक्षित लिंगशरीररूप भोक्ता है, तू इन साँका प्रकाशक चिदात्मा इनते भिन्न है, याते भोक्ता नहीं ॥९॥
औ जो कहो बाधित अनुवृत्तिकर प्रतीयमान जो आत्मसंबंधी स्थूल सूक्ष्म शरीर, तिनमें पुनः आत्मप्रतीति होवैगी ? यह आशंका कर, आत्मा अनात्माके सादृश्यके अभावते होवै नहीं, यह कहे हैं:दोहाः-कारण लिंग स्थूल तन,मन बुधि इंद्रिय प्राण ॥ ए जड़ तोहिं लहैं नही,तू चैतन्य प्रमाण ॥१०॥
टीका:-अनिर्वचनीय अनादि अविद्यारूप कारण शरीर औ दश इंद्रिय औ पंच प्राण औ मन अरु बुद्धि ए सप्तदश अवयवरूप लिंगशरीर औ अन्नमयकोशरूप स्थूलशरीर ये तीनो शरीर तेरा सादृश्यकू पावे नहीं ।
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१०८
विचारमाला. वि० ५. जाते यह जड है औ तू चैतन्य है; याते सोदृश्यक अभावते पुनः इनमें आत्मप्रतीति होवै नहीं। जो कहो . आत्मा चैतन्य है यामें क्या प्रमाण है ? तहां सुनोः“य एष हृद्युतज्योतिः पुरुषः " यह श्रुति प्रमाण है यह सर्वके अपरोक्ष हृदयके अंतर पुरुष प्रकाशरूप है' १० .(६५) ननु अनात्मामें आत्मप्रतीति ज्ञानवानकू मत होवै, परंतु आत्मामें त्रिते शरीररूप अनात्मा कौन संबंधकर प्रतीत होवै है यह कहो ? तहां सुनोः- . दोहा-एक तंतुमे त्रिगुणता,उरझि ग्रंथि बहुभाय॥ ऐसे शुद्ध स्वरूप में, अनाथ : जगत दरसाय ॥११॥
टीका:-जैसे एक तंतूमें प्रथम तीन तागे बनायके पुनः तिनकू उरझायके ग्रंथि कहिये मणके बनावै हैं, सो मणके जैसे ना तंतुमें कल्पित संबंधसे प्रतीत होवे हैं, तैसे शुद्धदात्मामें त्रिते शरीररूप जगत कल्पित तादात्म्य संबंधसे प्रतीत होव है ॥ ११ ॥ · .. (६६) ननु लिंगशरीरादिरूप उपाधि तो मि
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वि० ५. जगदात्मवर्णन १०९ थ्या संबंधसे प्रतीत होते, परंतु तामें आभास तो सत्य है? तहां सुनोःदोहा-वसनपुतरी बसनमय,नानाअंगअनूप॥ एक तंतु विन नहिं बियो, त्यों सब शुद्ध स्वरूप ॥ १२॥
टीका:-नाना करचरणादि अंगोंसहित वस्त्ररूप मूर्ति औ ताके शरीरपर श्वेत पीतरूप वस्त्र हैं, सो दोनों तंतुमें कल्पित हैं, काहेते विचार किये तंतुसे भिन्न प्रतीत होवें नहीं, तैसे सब कहिये त्रिते शरीर
औ आभास, कल्पित होनेते शुद्ध स्वरूप आत्मासे अतिरिक्त नहीं ॥ १२॥
ननु-ऐसे है तो पदोंसे हर्ष शोक क्यू होवै है ? ए शंकाकर विचार विना होवै है, यह कहे हैं:दोहा-देखि खिलौने खांडके,आनंदभयो मनमांहि ॥चाह करी जब वस्तुकी,तब सबलय हुइ जांहि ॥१३॥
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११० विचारमाला.
टीका---गजस्थादिरूप खिलौन्योंकू देखकर बिना विचारसे पुरुषके चित्तमें आनंद होवै है, पुनः ए खांड- . ही है ऐसा विचार कियेसे खांडमें लय हुए खिलौने आनंदके जनक होवें नहीं; तैसे विचार विना देहादि । पदार्थ आनंदकर होवै हैं विचारकर आत्मवस्तुरूप अधिठानकू जब जान्या तब अध्यस्त पदार्थ सर्व अधिष्ठानमें .. लय हुए आनंदके जनक हो नहीं ॥ १३ ॥
( ६७ ) अब अधिष्ठानज्ञानशून्य पुरुषोंकी निंदा करे हैं:दोहा-लयो न शुद्ध स्वरूप जिन,कहा लह्यो तिन कर॥शाखा दलसींचत रह्यौं, जो नहिं सीच्यो मूर ॥ १४॥ .
टीका:-जिन पुरुषोंने निरावरण ब्रह्मरूप अधिष्ठानळून जानके यज्ञादि काँमें वा ब्रह्मभिन्न देवनकी उपासनामें निश्चय किया, तोतिन पुरुषोंने क्या.निश्चय । किया ! जाते कर्मउपासनाका फल कृषि आदिकोंकी ..
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वि० ५०
जगदात्मवर्णन.
१११
न्याई विनाशी कहा है । जो कहो ब्रह्मकूं सर्वरूप होनेते ब्रह्मादि देवभी ब्रह्मरूपही हैं, याते देवनकी उपासनाका निषेध वने नहीं; तथापि अविद्या तत्कार्यकी निवृत्ति औ आनंदावाप्तिरूप मोक्ष. शुद्धब्रह्मके ज्ञानतेही होवे हैं, यह पंचदशी में लिख्या है । तामें दृष्टांत कला है: - जैसे पुरुषको वृक्षके मूलमें जलका न सिंचन करके, शाखा औ पत्तों में जल सिंचनते फलकी प्राप्ति होवे नहीं ॥ १४ ॥
( ६८ ) ननु देवादिरूप जगत् ब्रह्ममें स्वाभा - विक प्रतीत होवे है, वा नैमित्तिक है, स्वाभाविक कहो तो, निवृत्त न हुआ चाहिये औ निवृत्त होवे है, याते नैमित्तिक है, यह कहो सो निमित्त कौन है, यह कह्या चाहिये ? तहां सुनो:दोहा - जैसे
सांचे में पयो, होत कनक बहुअंग ॥ नानावत यों ब्रह्ममें, लै उपाधिको संग ॥
१५ ॥ टीका:--जैसे सूपेके संबंधसे कटकादिरूप नानात्व
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११२
विचारमाला. वि० ५. कंचनमें प्रतीत होवै है, तैसे ब्रह्ममें नानात्वकी प्रतीति मायारूपं उपाधिके संबंधसे होवै है ।। १५॥ ..
(६९) ननु यह कहने में परिणामवाद प्रतीत होवै है, काहेते पूर्वरूपकू त्यागके रूपांतरकी प्राप्तिा परिणाम कहे हैं । जैसे शीतरूप उपाधिके संबंधसे । दुग्धरूपताकू त्यागिके दुग्ध दधिरूप- होवे है। तैसे ब्रह्मभी मायारूप उपाधिके संबंधतें ब्रह्मभावळू त्यागिके जगतरूप परिणामको प्राप्त होवै,तो दुग्धादिकोंकी न्याई विकारी हुआ चाहिये? यह शंका सिद्धांतके अज्ञानते होवै है, काहेते सिद्धातमें विवर्तवाद अंगीकार किया है। पूर्वरूपकुं न त्यागके रूपांतरकी प्राप्तिकू विवर्त कहे हैं। ब्रह्म, अपने सत्यादि लक्षणरूप स्वरूपकून त्यागके आकार शादि जगत्स्वरूपसे प्रतीत होवै है, या अर्थके साधक दृष्टांतोंकू पंच दोहोंकर कहे हैं:- . . . दोहा-मृदविकार मृदमय सकल, हिम. .. विकार हिम जान ॥ तंतु विकार सु तंतु .. ही, यो आतम जग जान ॥ १६॥देखि
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वि० ५. जगदात्मावर्णन रज्जुमें सप्ता, ठूठ चोरके भाय ॥रजत विचाो शुक्तिमें, आयो. मन ललचाय ॥ १७॥ भयो बघूरा वायुमें, अग्नि चिनग बहु अंग ॥ बीजाहिम, तरुवर यथा, जलनिधि मध्य तरंग॥ १८॥ मिश्रीकी तूंबी रची, रंगरूप ता माहि ॥ . खान लग्यो जब भर्म तजि, सो तब कखी नाहि ॥ १९॥ पावकमें दीपक घने, नभमघट मठ नाम॥नीरमांझओराभयो,यों जग आत्माराम ॥२०॥
टीका:-पांच दोहोंका अर्थ स्पष्ट भाव यह है:जैसे घटादि मृदादिकोंका विवर्त होनेते मृदादिरूप हैं, तैसे सर्व जगत् ब्रह्मका विवर्त होनेते ब्रह्मरूप है१६-२० दोहा-सत्य कहों तो है नहीं, मिथ्या कहाँ तु आहि ॥ कह अनाथ आश्चर्य महा, अकह कह कहिय काहि ॥२१॥
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- विचारमाला.
वि०. ५०.
टीका:- पूर्वोक्त विवर्तरूप जगत, सत्य कहे तो बनै नहीं, काते तीन कालमें जाका बाध न होवे सो सत्य कहिये है । प्रपंचका अधिष्ठानं ज्ञानते बाघ निश्वय होवे है, याते मिथ्या कहना संभव है । मिथ्या कोही अनिर्वचनीय कहे हैं । जो किसी वचनका विषय न होवे ताको अनिर्वचनीय नहीं कहे हैं, किंतु सत्य असत्यते विलक्षणका नाम अनिर्वचनीय है । रूपवान् औ प्रातीतिक सत्ताका आश्रय सत्य विलक्षण शब्दका अर्थ है औ असविलक्षण कहिये बाधके योग्य ऐसा घटादि सर्व प्रपंच है। जो कहो अधिष्ठानका स्वरूपभी का चाहिये तहां सुनोः - सो आश्वर्यरूप है, काहेते सर्व प्रकाशता हुआ भी आप किसीका विषय होवे नहीं याते वाणीकर कह्या जावै नहीं ॥ २१ ॥
११४
सोरठा - भयो सु पंचम शांत, जगदात्मक एकत्व कहि ॥ पढे होड छत भ्रांत जगदात्मा चिद एक लहि ॥ २२ ॥ इति विचारमालायां जगदात्मवर्णनं नाम पंचमविश्रामः समाप्तः ॥ ५ ॥
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जगन्मिथ्यावर्णन,
अथ जगन्मिथ्यावर्णनं नाम षष्ठविश्रामप्रारंभः ।
( ७० ) अब षष्ठे विश्राम में जगत्का अत्यंताभाव दिखायबे अर्थ, प्रथम शिष्यका प्रश्न लिखे हैं:शिष्य उवाच. दोहा - भो भगवन् मोमन भयो, संशय देह निवार | जग मिथ्या किहि विध कह्या, मोप्रति कहो विचार ॥ १ ॥
वि० ६.
११५
टीका:- हे भगवन् ! पूर्व आपने जगतकं मिथ्या जिस रीति से कहा है, यह अर्थ मेरी बुद्धिमें आरूढ भया नहीं यातें मेरे चित्तमें संदेह है ताकी निवृत्ति अर्थ आप पुनः सो विचार कहो जाते संदेह दूर होवै ॥ १ ॥
( ७१ ) अब शिष्य के संदेह दूर करणे अर्थ, विदानको दृष्टिमें अविद्या तत्कार्यरूप जगत अत्यंत असत्य है यह कहै हैं, काहेते यह शास्त्र में कहा
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११६ विचारमाला. वि० ६. है:-गुरुमुखात तत्त्वमस्यादि महावाक्यके श्रवण कीये उदय भयी जो ब्रह्माकारवृत्ति, ता वृत्तिके उदयमात्रते ही कार्यसहित अविद्या न पूर्व थी, न अब है, न भविव्यत् होगी, यह तिस विद्वान्कू प्रतीत होवै है; या अर्थके साधक दृष्टांतोंकू कहे हैं:- ॥ श्रीगुरुरुवाच ॥ जग मिथ्या दरसावत हैं:दोहा-शीतल जल मृगतृष्णको, गगन कमलकी वास ॥ सुंदर अति वंध्यासुवन, ऐसे जगत प्रकास ॥२॥
टीका:-जैसे वासिष्ठमें मूर्ख बालककी प्रसन्नता : अर्थ धात्रीने भविष्यत् नगरकी कथा श्रवण करवाई
है, तैसे किसीने कहा मरुस्थलका जल अति शीतल है औ आकाशके कमलमें अति सुगंध है औ वंध्याका पुत्र वस्त्रोंभूषणोंके सहित सुंदर स्वरूपवान है। हे शिष्य ! ए पदार्थ जैसे अत्यंत असत भी अर्थाकार प्रतीत होवै हैं तैसे अत्यंत असत् जगत अर्थाकार प्रतीत
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वि० ६. जगन्मिथ्यावर्णन ११७ होवै है ॥२॥ पूर्वोक्त अर्थके साधक दृष्टांतोंको सप्त दोहोंकर कहे हैं:दोहा-ज्यों नभमें कल्पी घनी, पूतरि विविध अनेक ॥ करत युद्ध अतिक्रोधयुत, ऐसो जगत विवेक ॥३॥ अनाथ स्वप्न काहू नहीं, दिसनविष भ्रम होय॥ पूरव तज पश्चिम गयो, तिहि विषाद जग सोय॥४॥ रविकी रश्मि समेटिकेकरी गुंथ रचि माल ॥ पहिरे वंध्याको सुवन, शोभा बनी विशाल ॥५॥ ससे शृंगको धनुष करि, गगनपुरुष लियजाय॥देखि माल लालच लायो, पुन पुन मांगत ताय ॥६॥ वामांगत वह देत नहि, बढ़ी परस्पर रार॥ना कछु भयो न है कछ, ऐसो जगत विचार ॥७॥ गगन
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विचारमाला.
वि०६
११८ सिंधुकी लहरि ले, आन बनायो धाम॥ ऐसे पूरण ब्रह्ममें, देखि जगत अभिराम ॥ ८॥ मृगतृष्णाको नीर लै, सींच्यो नम अंभोज ॥ ता सुगंध आई सरस,आहि जगत यह खोज॥९॥ टीकाः-अर्थ स्पष्ट । भाव यह है:-जैसे आकाशादिकोंमें पुरुषकल्पित पुतली आदि पदार्थ अत्यंत असत हैं, तैसे ब्रह्ममें आकाशादि प्रपंच अत्यंत असत्य है ॥ ३॥ ४॥५॥६॥७॥८॥९॥ __ (७२) अब स्थूणाखनन न्यायकर पूर्वोक्त अर्थके दृढ करनेको, तामें शिष्य शंका करे है,
शिष्य उवाच । . दोहा-जगत जगत सबकोई कहै, अरु पुनि देखिय नैन ॥ सो मिथ्या किहि विध कहो, आरत जन सुखदैन ॥१०॥ टीकाः-हे आरतजनोंकू सुख देनेवाले श्रीगुरो !
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वि० ६.
जगन्मिथ्यावर्णन.
संपूर्ण श्रुति स्मृति वचन जगतका सद्भाव कहे हैं। पुनः प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकरभी जगत प्रतीत होवै है, आप जगत्कं अत्यंत असत्य किस रीतिसे कहो हो । जो जगत् अत्यंत असत्य होवै तो उत्पत्ति प्रतिपादक 'यतो वा इमानि भूतानि जायते, तस्मादा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः' इत्यादि वाक्य हैं, वे विषयके आभावते व्यर्थ होवेंगे जाते निश्चय करके ये भूत उत्पन्न होवे हैं,
ब्राह्मणप्रतिपाद्य वा मंत्रप्रतिपाद्य आत्माते आकाश उत्पन्न होते है, ' यह तिनका अर्थ है । प्राप्त सत वस्तुका निषेध होवे है, जगत अत्यंत असत होवे तो निषेधप्रतिपादक 'तरति शोकमात्मवित् ' इत्यादि वाक्य भी व्यर्थ होवेंगे औ कार्यके अभावते कारणरूप ईश्वरका अंगीकारभी निष्फल होवैगा; इत्यादि अनेक शंका मेरे ताई होवै हैं सो आप निवृत्त करो ॥ १० ॥
(७३) जगतका अत्यंताभावरूप जो उत्तम सिद्धांत . ताको हृदयमें धरके गुरु, जगतका अनिर्वचनीयत्व दिखावते हुए शिष्यकी शंकाका समाधान करे हैं दोदोहोकरः-श्रीररुरुवाच ।
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१२० विचारमाला. वि. ६. दोहा-रज्जु देखि प्राणी घने,कल्पें बहुत प्रकार ॥ को तरुजर को सरप कहि को कहि पुहमिदरार ॥ ११॥ शुक्ति निरखि बहु भेदलहि, प्राणी कल्पे ताहि ॥ को भोड़र को रजत कहि, को कहि कागद. आहि॥ १२॥
दो दोहोंकी एकठी टीकाः हे शिष्य ! जैसे रज्जुका सामान्यरूप इदंताको देखके बहुत पुरुष बहुत अनिर्व, चनीय पदार्थोकी कल्पना करे हैं। कोई कहै है यह वृक्षकी जड़ है, कोई सर्प कहे है, काहूको पृथिवीकी रेखा प्रतीत होवै हे । शुक्तिके सामान्य इदम् अंशको देखके स्वस्वसंस्कारके अनुसार अनेक पदार्थोंकी कल्पना करे हैं: कोई अवरक कल्पे है, कोई रजत, कोई कागदकी कल्पना करे है। यह सर्प रजतादि समग्र पदार्थ अनिर्वचनीय उत्पन्न होवे हैं । अनिर्वचनीय ख्यातिका संक्षेपते यह प्रकार है:-सर्प संस्कार सहित पुरुषके दोषसहित नेत्रका रज्जुसे संबंध होवै है औ
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वि० ६. जगन्मिथ्यावर्णन. रज्जुका विशेष धर्म रज्जुत्व भासे नहीं औ रज्जुमें जो मुंजरूप अवयव हैं सो भासे नहीं, किंतु रज्जुमें सामान्यधर्म इदंता भासे है । तैसे शुक्तिमें शुक्तित्व औ नीलपृष्ठता त्रिकोणता भासे नहीं, किंतु सामान्य धर्म इदंता भासे है; याते नेत्रद्वारा अंतःकरण रज्जुको प्राप्त होइके इदमाकार परिणामको प्राप्त होवै है; ता इदमाकार वृत्ति उपहित चेतननिष्ठ अविद्याके सर्पाकार औ ज्ञानाकार दो परिणाम होवे हैं । तैसे दंडसंस्कारसहित । पुरुषके दोषसहित नेत्रका रज्जुके संबंधसे जहां वृत्ति होवै तहां दंड औ ताका ज्ञान अविद्याके परिणाम होवे हैं। मालासंस्कारसहित पुरुषके सदोष नेत्रका रज्जुसे संबंध होइके इदमाकार वृत्ति होवे, ताकी वृत्ति उपहित चेतनमें स्थित अविद्याका माला औ ताका ज्ञान परिणाम होते है। जहां एकरज्जुसे तीन पुरुषनके सदोष नेत्रनका संबंध होईकै सर्प दंड माला एक एकका तिन्हको भ्रम होवै तहां जाकी वृत्ति उपहितमें जो विषय उपज्या है सो ताहीको प्रतीत होवै है अन्य
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१२२ विचारमाला. वि०६, को नहीं । इस रीतिसे रज्जु शुक्ति आदिकोंमें सर्प रजतादि, औ तिनके ज्ञान अनिर्वचनीय उत्पन होवै हैं ॥ ११ ॥ १२ ॥
अब दृष्टांतकरि कहे अर्थको दार्टातमें जोड़े हैं:दोहा-पूरण अवय आत्मा, अव्यय अचल अपार ॥ मिथ्याही कल्प्यो घनो, तामें यह संसार ॥१३॥
टीकाः-व्यापक, द्वैतसे रहित, नाशते रहित, क्रि । यासे रहित, देशपरिच्छेदते रहित, जो आत्मा, ताके बोधअर्थ,श्रुतिने तामें यह नानारूप संसार मिथ्या कल्या है। मिथ्याको ही अनिर्वचनीय कहे हैं। या पक्षको अंगीकार कियेसे पूर्वोक्त सर्व शंका निवृत्त होवे हैं; काहेते अनिर्वचनीय जगत्की उत्पत्ति कथन संभव है, यातें उत्पत्तिबोधक वाक्य निष्फल होवै नहीं, तथा अधिष्ठान ज्ञानसे ताकी निवृत्ति भी संभव है, याते निवृत्तिबोधक वाक्य निष्फल होवै नहीं औं अनिर्वचनीय जगतकी
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वि० ६.
जगन्मिथ्यावर्णन.
१२३
अनिर्वचनीय कारणता के संभवते ईश्वरका अंगीकार बी
संभव है ॥ १३ ॥ दोहा - आन भिन्न नहिं तोयते, बुदबुद फेन तरंग ॥ याप्रकार संसार यह, शुद्ध स्वरूप अभंग ॥ १४ ॥
टीका :- बुदबुदे फेन लहरी यह जलते भिन्न सत्य नहीं, तैसे यह संसार भी शुद्धस्वरूप अधिष्ठान आत्माते भिन्नसत्तावाला नहीं; काहेते अध्यस्तकी सत्ता अधिष्ठानते भिन्न होवै नहीं, यह नियम है ॥ १४ ॥
(७४) ननु अधिष्ठानते अध्यस्तकी भिन्न सत्ता न होवै तो, देहादि अध्यस्त पदार्थों में गमनागमनादि व्यवहार न हुआ चाहिये ? यह आशंका कर कहे हैं:दोहा - पूरण आतममे जगत, कंचन मुहर प्रकार || अद्वय अमल अनूप अज, मुद्रा, नाम असार ॥ १५ ॥
टीका :- यद्यपि पूर्णात्मासे जगत अनन्यरूप भी
1
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विचारमाला
१२४
वि० ६. है तथापि जैसे कंचनमें अनन्यरूप मोहरते संख्या परिमाण त्याग आदानादि व्यवहारकी सिद्धि होते है तैसे आत्मासे अनन्यरूप देहादि व्यवहारकी सिद्धि होवे है । अन्य स्पष्ट ॥ १५॥
ननु अधिष्ठानसे अनन्यरूप देहादि पदाथोंसे व्यवहार सिद्धि होवै तो अधिष्ठान विकारी हुआ चाहिये ? सो शंका बने नहीं:- काहेते शुद्ध ब्रह्मरूप अधिष्ठानसे देहादिकोंका संबंध नहीं, यह कहे हैं:दोहा-काष्ठमें रहिटा भयो, रहिटामेंभयो फेर ॥ पोतूल ताफेरमें, भयो सूतकोढेर ॥ १६ ॥ वसन भयो तासूतमें, पूतरिवसन मझार॥ आपसमें पूतारि सबै, करत परस्पर रार॥ १७॥ काष्ठको अरु रारको, कहो कहा संबंध,तन विकारयों ब्रह्ममें, कल्पै प्राणी अंध॥१८॥
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वि० ६. जगन्मिथ्यावर्णन १२५
टीका:-तीन दोहोंका अर्थ स्पष्ट भाव यह है। जैसे काष्ठका औ वस्त्रमें पुतलियोंके युद्धका परस्पर कछु संबंध नहीं; तैसे काष्ठस्थानापन्न शुद्ध ब्रह्ममें, काष्ठमें चरखेकी न्याई कल्पित माया औं तामें कार्यकी अभिमुखतासे तमोप्रधानतारूप फेर औ तामें तूलस्थानीय पंच आकाशादि सूक्ष्म भूत, तिनते सूत्रस्थानीय पंच स्थूल भूत, तिनमें ताने पेटे स्थानी पचीस प्रकृति, तिनते चतुर्दश लोकरूप वस्त्र तामें पुतलियां स्थानी देव मनुष्यादि चार खानोंमें होनेवाले शरीर, तिन शरीरोंके जन्मादि विकार असंग ब्रह्ममें संभवॆ नहीं: जो कहो अज्ञानी तामें कल्पना करे हैं ! तहां सुनोःजैसे सूर्यमें उलूकर कल्पे अंधकारसे सूर्यकी क्षति नहीं, तैसे अज्ञोंकर कल्पित विकारोंसे ब्रह्मकी शुद्धता बिगरे नहीं ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८॥ _ (७५) ननु जगत् हैही नहीं तो अधिष्ठानज्ञानते निवृत्त क्यो होवै है ? तहां सुनोःदोहा-ब्रह्म रतन निर्माल निज, तामें
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विचारमाला. वि०६. . क्रांति अनंत ॥ है नहीं कहत नहीं बने, ऐसो जग दरसंत ॥१९॥ टीका-जैसे अमोलिक जो रत्नमणि, तामें जो अनंत कांति प्रतीत होवै हैंसो ता रत्नमणिते भिन्न हैही नहीं तो तिनकी निवृत्ति कहना कैसे बने । तैसे . ब्रह्ममें जगत हैही नहीं तो ताकी निवृत्ति कैसे कहैं। जो कहो वेदांतशास्त्रमें तत्त्वज्ञानसे जगतकी निवृत्ति कही है ? सो नित्य निवृत्तकी निवृत्ति कही है। जैसे र ज्जुमें सर्प नित्य निवृत्त है, तथापि ताके ज्ञानसँ नित्य । निवृत्त सर्पकी निवृत्ति होवै है ॥ १९ ॥
पूर्व कहे अर्थकू अन्य दृष्टांतकर दृढ करै हैं:दोहा-कहि अनाथ कासों कहों, आद्य मध्य अरु अंत ॥ज्यों रविमं नही पाइये, निशिवासरको तंत ॥२०॥
टीका:-स्वामी अनाथजी कहे है अधिष्ठान चेतनमें जगत् स्वरूपसे है नहीं तो, ताके उत्पत्ति औ
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वि० ७. शिष्यअनुभवर्णन. १२७ स्थिति औ नाश कैसे कहैं। जैसे सूर्यमें रात्रि औ दिनका स्वरूप नहीं पाईता तो, तिनकी उत्पत्ति आदिक कैसे बनै ॥ २०॥ दोहा-षष्ठम जगत असत कहत,भयोस अंतर ध्यान ॥ सहविलास अज्ञान हत, नष्ट होत जिमि ज्ञान ॥२१॥ इति श्रीविचारमालायां जगन्मिथ्यावणनं नाम
षष्ठो विश्रामः समाप्तः ॥६॥ अथ शिष्यअनुभवर्णनं नाम सप्तमविश्रामप्रारंभः ॥७॥ (७६) अब सप्तम विश्राममें गुरुके प्रति नमस्कार करके शिष्य, गुरुकृत उपकारको सूचन करता हुआ, गुरुद्वारा ज्ञात अर्थको प्रगट करे है:
शिष्य उवाच । दोहा-वारंवार प्रणाम मम, श्रीगुरुदीन. दयाल॥जगतभ्रम बहुनास्यो, सुनितव वचन रसाल॥१॥
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१२८. विचारमाला. वि० ७.
टीका:-हे दयालो श्रीगुरो ! करुणारसके सहित आपके वचनको श्रवण करके, जगतरूप भ्रम मेरा निवृत्त भया है, ताते आपके प्रति वारंवार मेरा नमस्कार है । ननु गुरुद्वारा अमोलक तत्त्वज्ञानको पाइकर कोई अपूर्व पदार्थ भेट धन्य चाहिये, केवल नमस्कार उचित नहीं ? सो शंका बने नहीं: काहेते या प्रपंचमें दो पदार्थ हैं, एक अनात्म पदार्थ है, अपर आत्म पदार्थ है । तिनमें अनात्म पदार्थ असत जड दुःखरूप हो। नेते अति तुच्छ है, देने योग्य नहीं, अपर जो आत्मपदार्थ है, सो गुरुके प्रसादते प्राप्त भया है, तामें प्रदानादिक्रियाके अभावते भी दिया जावै नहीं । याते नमस्कारही बने है ॥ १॥
पुनः गुरुकृत उपकारको शिष्य प्रगट करे है:दोहा-भो भगवन तुम मयाते, भयो विविगत संदेह ॥ शुद्ध स्वरूप लह्यो भले. विसयो देह अदेह ॥२॥
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वि० ७. शिष्यअनुभववर्णन
· टीका-हे भगवन् ! आपके प्रसादते प्रमाण प्रमे, यगत संदेहते रहित, सर्व विकारशून्य, चैतन्य, आनंदरूप, आत्माको भली प्रकार मैने जान्या हैं । जो पूर्व विस्मरण भया था। अब देहमें स्थित हुआभी देहसंबंधते रहित हूं. जैसे मथन कर दधिसे पृथकू किया नवनीत; तकमें स्थित हुआ भी तासे भिन रहे है ॥२॥
(७७) अब शिष्य, अपना अनुभव प्रगट करे है:दोहा-अज्ञ तज्ञ नहिं शुभाशुभ, नहिं ईश्वर नहिं जीव ॥ सत्य झूठ भोमें नहीं, अमल समल त्रिय पीव॥३॥
टीका:-हे भगवन् ! ना मैं अज्ञानी हूं, काहेते अज्ञान जाको होवै सो अज्ञ कहिये है औ ज्ञान जाको होवै सो ज्ञानी कहिये है। सो अज्ञानादि सप्त अवस्था आभासकी हैं, सो चिदाभासरूप जीव मैं नहीं, याते विधिनिषेध भी मुझपर नहीं । जीवत्वके अभावते मायामें आभासरूप ईश्वर भी मुझपर नहीं, काहेते सत्
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१३० विचारमाला.
वि०७ स्वरूप मुझमें मिथ्या पदार्थ कैसे बने? शुद्ध अंतःकरणा जिज्ञासु औमलिन अंतःकरणरूप विषयी भी मैं नहीं। औ स्त्री पुरुष भाव भी मुझमें नहीं, स्थूल शरीरका धर्म होनेते ॥३॥ ___ पुनः स्थूलशरीरनिष्ठ धर्मोंका आत्मामें अभाव दिखावै है:दोहा-आश्रम बरन न देव नर, गुरुसिख धर्म न पाप ॥ पूरण आत्मा एक रस, नहिं घट बढ़ माप अमाप ॥४॥ ।
टीकाः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, औ संन्यासः ए चतुर् आश्रम औ ब्राह्मणादि चार वर्ण, देवभाव औ मानुषभाव औ गुरुशिष्यभाव औ पुण्यपापरूप क्रिया, ए समग्र स्थूल शरीरका धर्म होनेते मुझमें नहीं; काहेते मैं पूर्णात्मा औ अविकारी हूं, वृद्धि औ क्षयसे रहित हूं औ हस्वदीर्घ भावते भी रहित हूं। यही ध्यानदीपमें कहा है:-" वर्णाश्रमादि धर्म, देहविषे मायाकर कल्पित हैं। बोधरूप आत्माके नहीं, यह विद्धानका निश्चय है"४
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शिष्यअनुभववर्णन.
१३१
अब सूक्ष्मशरीरादि प्रपंचका आत्मामें अभाव
दिखावे हैं:
दोहा - मन बुद्धि इंद्रिय प्राण नहिं, पंचभूत हू नाहिं ॥ ज्ञाता ज्ञान न ज्ञेय कछु, नहिं सब ई सबमाहिं ॥ ५ ॥ टीका:-मनआदि सप्तदश अवयवरूप लिंगशरीर औ आकाशादि पंचभूत औ साभास अंतःकरणरूप 'ज्ञाता औ अंतःकरणका परिणाम साभास वृत्तिरूप ज्ञान औ घटादि विषयरूप ज्ञेय, ए संपूर्ण मेरे आत्मामें वास्तव नहीं और मैं सर्वमें स्थित हूं । सो गीता में कहा है:- " योगकर जीत्या है मन जिसने, सो महात्मा, सर्व भूतों में अपने आत्माकूं स्थित देखता है औ सर्व भूतों को अपने आत्मामें अभिन्न देखता है " ||५|| सोरठा - मैं चैतन्य स्वरूप, इंद्रजालवत
.वि० ७.
जगत यह ॥ मैं तू कथा अनूप, यह वह कहत न संभवे ॥ ६ ॥
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वि०७.
।
१३२
.. विचारमाला. टीका-जाते मैं चैतन्यः आत्मा हूं औ यह जगत इंद्रजालकी न्याई मिथ्या है, ताते मैं पंडित हूं तू मूर्ख है, यह हमारा शत्रु है, वह मित्र है, यह जो उपमाते शुन्य जगत्संबंधी कथा है, सो मेरे आत्मामें कैसे बने । यह जगत इंद्रजालकी न्याई मिथ्या है, यह तृप्तिदीपमें कहा है:- " यह द्वैत अचिंत्यरचनारूप होनेते मिथ्या है " ॥६॥
पुनः आत्मामें देहादि पदार्थोंका अभाव कहे हैं:दोहा-देही देह न हौं कछु, मुक्तबद्ध नहिं । होय॥ यती न विषयी तप अतप,नाही एक न दोय ॥७॥ पूर्वपश्चिम उर्ध्व अध, उत्तर दच्छिन नाहिं ॥ लघु दीर्घ न्यारो मिल्यो, नहिं बाहिर नहिं माहिं ॥८॥ नहि उत्पत्ति न वृद्धि लय, रूप रंग रस भेद ॥ नहिं योगी भोगी नहीं, नहिं स्थीर नहिं खेद ॥९॥
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वि० ७. शिष्यअनुभववर्णन. १३३
टीका:-तीन दोहोंका अर्थ स्पष्ट भाव यह है:यद्यपि देहादि पदार्थ सर्वको अपने आत्मामें प्रतीत होवै हैं तथापि उत्तम भूमिकामें आरूढ विद्वानको अपने आस्मामें प्रतीत होवै नहीं ॥ ७ ॥८॥९॥ .
(७८) ननु एकही आत्मामें विदानते भिन्न अन्योंको देहादि प्रतीत होवै है, औ विद्वानको होवै नहीं यह कथन बनै नहीं ? तहां सुनोः
दोहा-मलिन नयनकरि देखिये, सब कछु 'सबहीभाय॥अमल दृष्टि जब रवि लह्यो, 'तब रविही दरसाय ॥१०॥
टीका:-जैसे जलादि उपाधि दृष्टिकर देखिये तब प्रतिबिंबताकर आदित्यमें अनेकता औ चंचलता आदि सर्व विकार प्रतीत होवै हैं जब उपाधिदृष्टिको त्यागके सूर्यकी ओर देख्या तब अद्वितीय प्रकाशरूप आ दित्यही प्रतीत होवै है ।। १०॥
अब दृष्टांतकर कहे अर्थको दाष्टर्टातमें, जोड़े हैं:
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१३४
विचारमाला.
वि० ७..
दोहा - ऊंच नीच निरगुण गुणी, रंक नाथ अरु भूप ॥ हूं घट बढ़ कासों कहूं, सब आनंदस्वरूप ॥ ११ ॥
टीका: - वर्णाश्रमकर यह ऊंच है, तथा यह नीच है, यह दैवी संपत्ति से रहित पामर है, यह उत्तम जिज्ञासु है, यह धनके अभाव कंगाल हैं, यह ग्रामाधीश हैं औ यह राजा हमारेकर पूज्य है, ऐसी प्रतीति अज्ञानरूप उपाधिके बलकर अज्ञों को होने है; परंतु निवारण आत्मा के साक्षात्कारवाला जो मैं, सो पूर्व उक्त रीति से किसके प्रति अधिक न्यून कहूँ; जाते सर्व मोकूँ आनंद स्वरूप प्रतीत होवे है । सो कहा है हरितत्त्वमुक्तावलि - में : - " परमात्मा के ज्ञान से देह अभिमान के निवृत्त भये, जहां जहां विद्वान का मन जावै, तहां तहां अद्वितीय ब्रह्मही देखे है " ॥ ११ ॥
जगतकी प्रतीतिमें मुख्य कारण अज्ञान कहा । अब अवांतर कारण मन कहे हैं:दोहा - मन उन्मेष जगत भयो, बिन उ
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वि० ७०
शिष्य अनुभववर्णन.
१.३.५
नमेष नसाय ॥ कहो जंगत कित संभवै, मनही जहां विलाय ॥ १२ ॥
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टीका :- मनके फुरनेसे जगत् प्रतीत होवे है औ मनके शांत भये जगत् प्रतीत होवै नहीं. जो कहो यह कैसे निश्चय होवे ? तहां सुनो:- जाग्रत स्वप्नमें मनके सद्भावतें स्थूल सूक्ष्म जगत प्रतीत होवे है औ सुषुप्ति में मनके विलयते जगत प्रतीत होवे नहीं. या अन्वयव्यतिरेक युक्तिसे जगत प्रतीतिमें मनकी कार
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णता निश्चय हों है। जहां ब्रह्मरूप ज्ञात अधिष्ठान में मनकाही अभाव निश्चय होवे है, तहां जगतकी प्रती - ति कैसे संभवे ॥ २२ ॥
(७९) पूर्व कहे अर्थको पुनः प्रगट करे है:दोहा - नहिं कारण नहिं कार्य कछु, नहिं न काल नहिं देश || शिव स्वरूप पूरण अचल, सजाति विजाति न लेश ॥१३॥ टीका:- कल्याणस्वरूप, विभु क्रियासे रहित मेरे
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विचारमाला.
वि०.७. आत्मामें, कार्यकारणभाव नहीं, काहेते मृत्तिकादिकोंकी न्याई कारण सावयवही, होवे है, मैं निखयव हूं, याते कारण नहीं. औ घटादिकोंकी न्याई जो कार्य होवै सो अनित्य होवै है, मैं नित्य हूं याते कार्य नहीं. तथा सजातीय विजातीय स्वगत भेद ब्रह्मरूप आत्मामें नहीं, काहेते जैसे पटका पटमें भेद सो सजातिकृत भेद है, तैसे ब्रह्मके सदृश अन्य ब्रह्म होवै, तब सजातिकृत भेद ब्रह्ममें होवै, ब्रह्मके सदृश अन्य ब्रह्म नहीं, यात ब्रह्ममें सजातिकृत भेद नहीं। जैसे पटमें घटका भेद है सो विजातिकृत भेद है, तैसे ब्रह्मके सामान सत्तावाला कोऊ विजाति नहीं, याते ब्रह्ममें विजातिकृत भेद नहीं । यद्यपि जीव ईश्वर, ब्रह्मसे विजाति हैं; तिनोंका भेद ब्रह्ममें बने है, तथापि जीव ईश्वर मायिक होनेते मिथ्या है, यात तिनोंका भेद ब्रह्ममें नहीं। यह पंचदशीमें कहा है । औ जैसे पटमें तंतुका भेद है सो स्वगत भेद है । तैसे ब्रह्म सवियव नहीं, याते ब्रह्ममें स्वगत भेद नहीं ॥ १३॥
(८०) ननु ता अधिष्ठानका स्वरूप कहा चाहिये ? तहाँ सुनो-
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वि०:७०
शिष्यअनुभववर्णन.
१३७
?
दोहा - एकह कहत बने नहीं, दोइ कहाँ किहि भाय ॥ पूरणरूप विहायसी, घट बढ़ कह्यो न जाय ॥ १४ ॥
•
टीका :- एकत्व संख्यावाचक एकशब्दकीही नाम जाति गुण क्रियाके अभावतें ब्रह्ममें प्रवृत्ति बनै नहीं, तो द्वित्वसंख्यावाचक दो शब्दकी प्रवृत्ति कैसे बने ? काहे गुण क्रिया आदिकही शब्द प्रवृत्तिके निमित्त हैं, सो बमैं नहीं, याते जैसे होवे तैसे पूर्णरूपको त्यागकर अ धिक न्यून भाव ब्रह्ममें कह्या जावै नहीं ॥ १४ ॥
अब त्रिते शरीर औ अवस्थाके अभिमानी विश्वा दिकों का आत्मामें निषेध करे हैं:
दोहा - विश्व न तैजस प्राज्ञ कछु नहि तुरिया तामाहिं ॥ स्वस्वरूप निजज्ञानघन, मैं तू विव तहँ नाहिं ॥
१५ ॥
'टीका:- तुरीय नाम साक्षीका है । अन्य स्पष्ट १५ (८१) अब उक्त अर्थ में शंकाको कहे हैं:
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___ १३८ विचारमाला.. वि०७.
दोहा-जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिके, अभिमानी जे आहिं॥जो सबको अनुभव करै,शिवस्वरूप कहि ताहि ॥ १६॥ . ...
टीकाः ननु पूर्व साक्षीका निषेध किया सो बनै नहीं, काहेते जाग्रतका अभिमानी विश्व, स्वप्नका अभिमानी तैजस, सुषुप्तिका अभिमानी प्राज्ञ, आग्रतादि अवस्थाके सहित सर्वको जो प्रकाशे ताको शास्त्रोंमें शिवस्वरूप कहा है; याते ताका निषेध बने नहीं ॥ १६ ॥
(८२) अब वक्ष्यमाण दोहेवला को शंकाका समा- धान करे हैं- नहीं । यद्यपि ,
दोहा-साधन साध्य कछु भद ब्रह्मम बन र हु नहि कोय ॥ प्रमाण प्रमोती को कहै, अनाथ प्रमेय न होय ॥१७॥ टीकाः-जाकर साध्यकी सिद्धि होइ सो साधन औ साधनकर सिद्ध होयचे योग्य साध्य औ साधनकर साध्यकी प्राप्तिवाला सिद्ध औ प्रमाण प्रमाता प्रमेयरूप
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वि० ७. शिष्यअनुभववर्णन. १३९ त्रिपुटी या साक्ष्यके अभावते साक्षी धर्मका निषेध कीया हैं। स्वरूपसें चैतन्यका निषेध नहीं किया ॥१७॥
पुनः वही अपवाद कहै हैं:दोहा-शास्ता शास्त्र सु को नहीं नहिं भिक्षुकनहिं दान॥ देश न काल न वस्तु गुण, वादी वाद न हान ॥ १८॥ विधि निषेध नहिं थप अथप, नहिं प्रभु नहिं को दास ॥ केवल शुद्ध स्वरूप हों, पूरण स्वतह प्रकाश॥१९॥ सोरठा-ध्याता ध्यान न ध्येय मम,निज शुद्ध स्वरूपमें ॥ उपादेय नहिं हेय, सर्वरूप सबते परे॥२०॥
टीका:-अज्ञानके अभावते मुझपर शिक्षा करनेवाला औ शास्त्र नहीं औ जिज्ञासाके अभावते मैं भिक्षुभी नहीं औ उदारताके अभावते दानी नहीं औ ह.. दय कंठ नेत्ररूप देश, जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिरूप काल,
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१४० विचारमाला. वि०.७. स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर वस्तु, औ सत्वादि तीन रणभी मुझमें नहीं । वाद करनेवाला औ वितंडा जल्प अध्यात्मादि वाद औ ताकर होवै जो जय पराजय, सोभी नहीं ॥ १८ ॥ १९॥ २० ॥ (८३) दोहा-कह्यो शिष्य अनुभव सबै, रह्यो मौन गहि सोय॥ बोले दास अनाथ कहि, मुगुरु शिष्य तनजोय ॥२१॥
टीका:- स्वामी अनाथदासजी कहे हैं:-शिष्य गुरुद्वारा अनुभव करे समग्र अर्थको कहकर सो मौनको अंगीकार कर स्थित भया । तब गुरु, शिष्यकी ओर देखकर शिष्यकी परीक्षा अर्थ, वक्ष्यमाण रीतिसे बोलते भये ॥२१॥ दोहा-स्वतः शिष्य अनुभव भयो, इति अष्टम प्रति आख ॥ गुरु यामें शंकाकरे, उत्तर तिन प्रति भाष ॥२२॥ इति श्रीविचार शिष्यअनुभववर्णनं नाम सप्तमो विश्रामः समाप्तः ॥७॥
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त्रि० ८०
आत्मवान् स्थितिवर्णन.
अथ आत्मवान् स्थितिवर्णनं नाम अष्टमविश्रामप्रारंभः ॥ ८ ॥ .
[ ८४ ] अब अष्टम विश्राम में कथन करना जो अर्थ, ताकी सूचक ग्रंथकार की उक्ति आदिमे लिखे हैं:दोहा - अनुभव अमृत शिष्यके, उदय भयो चित चैन ॥ लैन परीक्षाको कहै गुरु करुणारस बैन ॥ १ ॥
१४१
टीका :- अद्वितीय निश्चयरूप अमृतके उदय भ येसे शिष्य के हृदयमें आनंदका आविर्भाव भया है वा नहीं, या संदेहकी निवृत्तिरूप परीक्षाके अर्थ गुरु, करुणारससे मिले वक्ष्यमाण वचन कहे हैं । ननु महावाक्यरूप प्रमाणजन्य ज्ञानके उदय भये आनंदका आविर्भाव अवश्य होवै है, तामें संदेह संभव नहीं ? तहां सुनोः - जैसे नवीन कंटकका आकार यथावत् प्रतीतभी हो है, तोभी कोमलतारूप प्रतिबंधके सहावतै ता कंटक से वेधनादिरूप कार्य होवे नहीं । तैसे
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१४२
विचारमाला. वि एकवार महावाक्यके श्रवणकर उदय भये तत्त्वज्ञानसे संशयादिरूप प्रतिबंधक सद्भावत आनंदाविर्भावरूप कार्यकी सिद्धि होवै नहीं । यातॆ तामें संदेह संभवे है:___ अब परीक्षाका प्रकार कहे हैं:दोहा-परीक्षा निज विज्ञानकी, लेत खंड व्यवहार ॥ इस्थिति आतमवानकी, उपदेशत निरधार ॥२॥
टीकाः-विद्वानकी प्रवृत्तिरूप व्यवहारके निषेधद्वारा गुरु शिष्यके ज्ञानकी परीक्षा करे हैं:-काहेते भिक्षा भोजन ।
औ कौपीन आच्छादनके ग्रहणते अधिक प्रवृत्ति विद्धानकी भोग्योंमें होवै नहीं; यह पक्ष बहुत ग्रंथोंमें लिख्या है। या पक्षको आश्रय करके गुरु, ज्ञानवान्की उदासी.. नतारूप स्थितिको अज्ञ औ मुमुक्षु औ बद्ध ज्ञानीते भिन्नकर उपदेश करें हैं ॥२॥ (८५) श्रीगुरु, वक्ष्यमाण वचन कहे हैं:
श्रीररुरुवाच। . 'दोहा-जो कहि करहिं कहा विषय, म- .
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वि०. ८.
आत्मवान् स्थितिवर्णन.
१४३
यो ज्ञान उद्योत ॥ विषय संग मति भंग : व्है, ज्ञान शिथिलता होत ॥ ३ ॥
टीका:- हे शिष्य ! जेकर तूं ऐसे कहे, एकवार महावाक्यके श्रवण ज्ञानके उदय भये पुनः विषयों में प्रवृत्तिसे मेरी क्या हानि है, यह तेरा कथन संभवे नहीं: काहेते विषयोंके संबंधसे तत्त्वविचारवती बुद्धि नष्ट है औ विचार के अभावते ज्ञातवस्तुमें संदेहरूप शि थिलता ज्ञानमें होवे है ॥ ३ ॥
अब योग्यता के अभावते विद्वानकी प्रवृत्तिका अभाव दिखावे हैं:
दोहा - जान्यो अविनाशी अजर, अद्यय रूप अपार ॥ जग आसक्ति न संभव, सुन शिष्य सत्य विचार ॥ ४ ॥
टीका:-- हे शिष्य ! महावाक्यके श्रवण कर नित्य नवीन औ नाशते रहित प्रत्यकू आत्माकं जब परिच्छेदते रहित अद्वय आनंदरूप जान्या, तब भोगरूप ज
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१४४ , विचारमाला.. वि०८ गतमें आसक्ति संभव नहीं । जैसे चक्रवर्ती राजाको ग्रामाध्यक्षके भोगकी इच्छा बनै नहीं तैसे । जो कहे चित्त निरालंब रहे नहीं, तो सत्य वस्तुके चिंतनरूप विचारको निरंतर कर ॥ ४॥ · . · अब व्यतिरेकमुखसे ज्ञानवान्की प्रवृत्तिका अभाव
दोहा-शुद्ध स्वरूप लयो नहीं, उद्यो न निर्मल ज्ञान ॥ मलिन विषय व्यवहार रति, तबलग होत अजान ॥५॥ टीका:-तबलगही अज्ञ पुरुषकी अविद्याके कार्य शब्दादि विषयोंमें औ कायिक वाचिक मानसिक क्रियामें प्रीति होवै है, जबलग संशय विपर्ययसे रहित तत्त्वज्ञानकर अपने आत्माको ब्रह्मरूप नहीं जाने है। जैसे खल खानेमें पुरुषकी रुचि तबलग होवे है, जबलग यथारुचि पायसादि उत्तम भोजनोंकी प्राप्ति नहीं होवै है" “ पुनः विधिमुखकर प्रवृत्तिका अभाव कहे हैं:-..
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वि०४० आत्मवान् स्थितिवर्णन. १४५ दोहा-जो पूरण आतम लह्यो, तौ क्यों रति व्यवहार॥ सोऽहं जान महोत क्यों, जग जन दीन प्रकार ॥६॥
टीका:-हे शिष्य ! जो तू ऐसे कहे, मैं आत्मा५ पूर्ण ब्रह्मरूप जान्या है, मुझपर विधि निषेध कहां है; तो प्रवृत्तिरूप व्यवहारमेंभी प्रीति बन नहीं, काहेते. जाके आनंदके लेशते सारा विश्व आनंदित है सो आनंदस्वरूप ब्रह्म मैं हूं ऐसे जिसने जान्या है सो महात्मा संसारी जीवोंकी न्याई दीन क्यों होवै है, अर्थात् नहीं होवै है ॥६॥
ऐसे ज्ञानके साधनोंपर ग्रंथोंका तात्पर्य कहकर, अब शिष्यके प्रति विषयोंते उपराम करे हैं:दोहा-मुक्ति विषय वैरागजो, बंधन विषय स्नेह ॥ यह सब ग्रंथनको मतो, मन मानै सु करेह ॥७॥ . टीका:-हे शिष्य ! विषयोंमें जो वैराग्य है सो
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... विचारमाला.... वि.८ मोक्षका साधन होनेते मोक्षही है औ. विषयोंमें जो स्नेह है सो बंधका हेतु होनेते बंधन है। सो कहा है ग्रंथांतर:- "बद्धों हि को यो विषयानुरागी को वा विमुक्तो विषये 'विरक्तः " "विषयोंमें अनुराग बंध : है औ विषयोंमें वैराग्य मोक्ष हैं." औ“रागो लिंगमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ":" चित्तके विचरनेकीयां भूमियां जो शब्दादिक विषय, तिनमें जो राग है सो अज्ञानका चिह्न है"। यातेभी ज्ञानवानकी प्रवृत्तिका ' अभावही निश्चय होवै है। सर्व ग्रंथोंका या अर्थमेंही. तात्पर्य है, इनमें से जामें तेरी रुचि होवै सो कर । यद्यपि पूर्वोक्त सर्व ग्रंथ, ज्ञानके मुख्य साधन वैराग्यकी प्रधानताके कहनेते मुमुक्षुपर हैं औ शिष्य अद्वैतनिष्ठाकू प्राप्त भया है, याते ताप्रति यह कथन संभव नहीं; तथापि वादी भद्रं न पश्यति' वादी पुरुष कल्याणको नहीं देखे हैं । या न्यायकर गुरुने शिष्यके सिद्धांतमें आशंका करी है, याते यह कथन संभवै है ॥ ७॥ .
अब गुरुकी दयालताको प्रकट करते हुए ग्रंथकार कह हैं:- . . . . . . . . . ....
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वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १४७ .. दोहा-कृपा करत शिषपर घनी, गुरु श
रणाईराइ ॥ इस्थिति आतमवानकी, कहि पुनिपुनि दरसाइ॥८॥
टीकाः-जाते गुरु शरणागतपालकोंमें मुख्य हैं, ताते शिष्यपरभी बहुतसी कृपा करते हुए ज्ञानवानकी उदासीनतारूप स्थितिको दृष्टांतोंसे वारंवार कहे हैं।।८॥ __अब अधिष्ठानते भिन्न जगतमें सत्य बुद्धिके अभावतेभी विद्वानकी प्रवृत्ति संभव नहीं, यह कहे हैं:- : दोहा-जैसे भूजे अन्नमें, उद्भवता भई
छीन ॥ तैसे आतमवानकी, भई जगत ‘मति लीन॥९॥ . टीका:-जैसे केवल वहिकर पक्क अन्नमें अंकुर उत्पन्न करनेका सामर्थ्य रहे नहीं, तैसे अधिष्ठानके ज्ञानकर ज्ञानवानकी जगतमें सत्यत्व बुद्धिके अभावते प्रवृत्ति संभव नहीं ॥ ९॥ .. ननु ज्ञानवानोंकी निष्ठा भिन्न होनेते काहूकी प्र
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१४८
विचारमाला. वि०८, वृत्तिमें निष्ठा होवै है, काहूकी निवृत्तिमें निष्ठा होवे है, याते केवल निवृत्ति कथन ज्ञानवानका संभव नहीं, यह कहै हैं:दोहाः-अनाथ मुज्ञानी कोटिको,निश्चय निजमत एक॥एक अज्ञानीके हिये,वरतत मते अनेक ॥ १०॥
टीका:-अनंत ज्ञानियोंका स्वरूपमें निष्ठारूप मत निश्चयकर एकही है, अरु जो कहो निष्ठारूप मत कौन है? तहां सुनोः-श्लोक "किं करोमि क गच्छामि किं गृह्णामि त्यजामि किम् ।। आत्मना पूरितं सर्वमहाकल्पांबुना यथा" "जैसे महाकल्पमें जलकर सर्व स्थान पूर्ण होवे हैं, तैसे मेरे आत्माकर सर्व पूर्ण हैं; ताते मैं क्या करों, कहां जावों, क्या ग्रहण करों, औ किसका त्याग करों " । सर्व विद्वानोका यही निश्चय है औ एक अज्ञानीके हृदयमें अनेक निश्चय होवै हैं सो कहे जावें नहीं, काहेते वसिष्ठजीने रामचंद्रके प्रति कहा है:-“हे राम ! मुझसे आदि लेके सर्व ज्ञानवानोंका
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वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १४९ अद्वितीय निश्चय है औ अज्ञानियोंके निश्चयको हम नहीं जानते" ॥१०॥
ननु स्वकृत ज्ञानवान्की प्रवृत्ति मत होवो, परंतु परकृत प्रवृत्ति संभव है ? यह आशंका कर उत्तर कहे हैं:दोहा-सेवा बहुत प्रकार पुन, अंग त्रास करे कोय॥ज्ञानी आपनपो लहै, तृप्त कुप्त नहिं होय ॥११॥
टीका:-ननु स्वकृत विद्वान्की प्रवृत्ति मत होवो, परंतु कोऊ श्रद्धालु पुरुष वस्त्र भोजनादिकोंकर विबान्के शरीरकी सेवा करे, पुनः कोऊ निर्दय पुरुष अपने स्वभावके वशते यष्टिकादिकोंके प्रहारते विद्वान्के शरीरमें पीडा करे, तिनके प्रति वर शापके अर्थ प्रवृत्ति संभवे है ? सो शंका बनै नहीं: काहेते जैसे पुरुषका हस्तरूप अवयव, मुखरूप अवयवकी पालना करे है, औ दंतरूप अवयव जिह्वारूप अवयवको काटे तब पुरुष सर्वको अपने अवयव जानके क्रोधादि करे
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१.५०
विचारमाला. :
वि०८+
नहीं | तैसे ज्ञानवान्भी सेवा करनेवालेको औ पीड़ा कर्त्ता को अपने अवयव जाने हैं; याते तृप्त कुपित होवे. नहीं । अथवा आपनपो लहै, याका यह अर्थ है:ज्ञानवान् सुख दुःख अपने पूर्वकृतका फल जाने है, . याते तृप्तः कुपित होवै नहीं । सो कहा है अध्यात्ममें:- अपने पूर्वले इकत्र करे कर्महीं सुख दुःखके कारण हैं ॥ ११ ॥
ननु अध्यात्मादि तीन तापको निवृत्ति अर्थ विद्वानकी प्रवृत्ति संभव है ? वहां सुनो:दोहा -शांतरूप तिनको जगत, जे उर शांत महंत ॥ त्रिविध ताप निजउर जरत, ते जग जरत लहंत ॥ १२ ॥
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टीका:-- अज्ञानके सद्भावते अध्यात्मादि तीन तापोंकर जिनके चित्त तपायमान हैं ते अज्ञ पुरुष सर्व जगतको तपायमान देखे हैं, तिनकी ही तापोंकी निवॄत्ति अर्थ प्रवृत्ति संभवे है, औ जो महानुभाव अज्ञानकी
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वि०.८ . आत्मवान् स्थितिवर्णन निवृत्तिद्वारा सर्व इच्छाओंकी निवृत्तिते शांतचित्त हैं तिन विद्वानोंको सर्वं जगत सुखरूप प्रतीत होवै है, याते तापोंकी निवृत्ति अर्थ विद्वान्की प्रवृत्ति संभव नहीं। सो तृप्तिदीपमें कहा है। जब यह विवान अपने आत्माको इस रीतिसे जानता है यह प्रत्यक् अभिन्न ब्रह्म मैं हूँ तब किसकी इच्छा करता हुआ औ किसकी काः मना अर्थ शरीरको आश्रय करके तपायमान होवै है"१२
ननु अंतरसुखकी उपलब्धिसे विद्वानको सर्व जगत् सुखरूप प्रतीत होवै, तो विषयी औ उपासककोभी सुखकी उपलब्धिसे सर्व जगत सुखरूप प्रतीत हुआ चाहिये? तहां सुनों:दोहा-विषयानंद संसार है, भजनानंद हरिदास ॥ ब्रह्मानंद जीवन्मुक्त, भई वा-;' सना नास ॥ १३॥
टीकाः-विषयी पुरुषोंको स्रक चंदन वनिता आदि विषयोंकी समीपतासे आनंद होवे है, याते क्षण
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१५२ विचारमाला. वि०८. एक है औ उपासक पुरुषको भी ध्ययोकार वृत्तिरूपमजनद्वारा आनंदका लाभ होवै, है, सोभी प्रयत्नसाध्य होनेते सदा रहे नहीं, याते तिन दोनोंको सुख अभाव कालमें जगत सुखरूप प्रतीत होवै नहीं औ जीवन्मुक्त विद्वानको सर्व वासनाके अभावते ब्रह्मानंद निरावरण प्रतीत होवै है, आनंदस्वरूप ब्रह्मको सर्व रूप होनेते विद्वानको सर्व जगत सुखरूप प्रतीत होवे है ॥ १३॥
पूर्व कहे अर्थको पुनः प्रपंचन करे हैं:: दोहा-मुक्त्यादिक इच्छा नहीं, निस्टह .
परम पुमान ॥ आत्मसुख नित तृप्त जे, तिन समान नहिं आन॥१४॥
टीका:-जे महात्मा मुक्तिकी इच्छाते रहित हैं, आदि शब्दकर ज्ञान औ ज्ञानके साधन श्रवणादिकों की इच्छाते रहित हैं, औ निस्पृह कहिये या लोक परलोकके भोगोंकी इच्छाते रहित हैं, जाते आत्मानंदकर नित्य तृप्त हैं; ते सर्वोत्कृष्ट पुरुष हैं। याते आन जे विषयी औ उपासक हैं ते तिनके तुल्य नहीं ॥१४॥
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वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णन
१५३ पूर्व कही जो विद्वान्की निस्पृहता,तामें हेतु कहे हैं:दोहा-दृष्ट पदारथको भयो, जिनके सह
जअभाव॥ कहा गहै त्यागे कहा, छूटयो 'चाव अचाव ॥ १५॥ • टीका:-जिन महात्माओंकी अधिष्ठानके ज्ञान कर दृश्य पदार्थोंके अभाव निश्चयते ग्रहण त्यागकी इच्छा निवृत्त भयी है, ते विद्वान किसका ग्रहण करें औ कि सका त्याग करें॥१५॥
ननु बाधितानुवृत्तिकर विद्वानको पदार्थोंकी प्रतीति न होवै, तो जीवन उपयोगी भिक्षा अशनादि व्यवहारकी सिद्धि होवै नहीं, बाधित पदार्थोकी प्रतीति स्वीकार होवै, तो प्रतीतिके विषय पदार्थोंमें इच्छा अवश्य होवैगी । ताका अभाव संभव नहीं ? या शंकाके उत्तरकाःदोहा-जैसे दिनगरके उदय,दीपक द्युति दुरि जात ॥ तैसे ब्रह्मानंदमें, आनंद सबै विलात ॥१६॥
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विचारमाला. . वि०८. टीकाः-जैसे आदित्यके उदय भये, कोटि दीपकोंका प्रकाश आदित्य प्रकाशके अवांतर व है। तैसे विषयानंदादि समग्र आनंद, विद्धानको ब्रह्मानंदके अवांतर प्रतीत होव हैं, या अभिप्रायते ब्रह्म भिन्न पदाथोंमें इच्छाका अभाव कहा है। बाधित अनुवृत्तिकर पदार्थोकी अप्रतीतिसे नहीं ॥१६॥
ननु परमत निश्चय करने अर्थ, न्यायादि शास्त्रों में विद्वान्की प्रवृत्ति संभव है ? तहां सुनोःदोहा-गरुड़-तहां वाहन सबै, रस सब' . अमी समीप। ज्ञानदिवाकरके उदय,सब मत ढ गये दीप ॥१७॥
टीका:-जाते गरुडका वेग अश्वादि सर्व वाहनोंसे अधिक है, ताते सर्व वाहन गरुडके अवांतर हैं औ चंद्रद्वारा अमृतके अंशकी प्राप्तिते ओषधियोंमें मधुरादि रस होवै हैं, याते सर्व रस अमृतके अंतर्भूत हैं, (आदित्य औ दीपकका दृष्टांत पूर्व खोल्या है) । तैसे
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वि० ८०.
आत्मवान् स्थितिवर्णन.
१५५
न्यायादि सर्व मतोका पर्यवसान अद्वैत निश्चयरूप ज्ञानसे इस रीति से विद्वानने निश्चय कीया है:- पूर्व मीमांसा यज्ञादि कर्मोंके उपदेशते अंतःकरणकी शुद्धिद्वारा ज्ञानका हेतु है औ सांख्यशास्त्र त्वंपदार्थके शोधनद्वारा ज्ञानमें उपयोगी है औ न्याय वैशेषिक बुद्धिकी सूक्ष्मता से मननद्वारा ज्ञानमें उपयोगी हैं औ चित्तकी एकाग्रता - द्वारा पातंजल शास्त्र ज्ञानका हेतु है औ उत्तर मीमांसा तत्त्वज्ञानकी उत्पत्ति में साक्षात हेतु है इस रीति से साक्षात वा परंपरासे सर्व मतोंका पर्यवसान तत्त्वज्ञान में विद्यानने सारग्राही दृष्टिसे निश्चय किया है; याते ताकी ज्ञानसे उत्तर कर्तव्यबुद्धिकर किसी शास्त्रमें प्रवृत्ति सं भवै नहीं ॥ १८ ॥
( ८६ ) अब प्रसंगको समाप्त करते हुए ग्रंथकार कहे हैं:
दोहा - हेतु परीक्षाके सुगुरु, खंड्यो जगव्यवहार ॥ कहत शिष्य आनंद युत, वश प्रारब्ध आधार ॥ १८ ॥
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विचारमाला. वि०८ टीका:-ग्रंथकार उक्तिः-सुष्ठु गुरुने शिष्यके निःसंदेह तत्त्वज्ञानकी परीक्षा अर्थ, विद्वानके भिक्षा आच्छादन ग्रहणते अधिक व्यवहारका निषेध किया तब प्रसन्न मनवाला हुआ शिष्य, वक्ष्यमाण वचनोंसे कहे है:प्रारब्धाधीन विद्वानके शरीरकी स्थिति औ भोग्य होवै है, याका यह अभिप्राय है-विद्वान्पर वेदकी आज्ञा तो है नहीं, जाते विद्वान्के व्यवहारका नियम होवैः किंतु प्रारब्धकर्मके अनुसार विद्वान्का व्यवहार होवै है ॥ सो प्रारब्ध अनेकविध है:-किसी विद्वान्का । अधिक प्रवृत्तिका हेतु प्रारब्ध है, यथा जनक आदि। कोंका, किसी विद्वान्का निवृत्तिका हेतु प्रारब्ध है, यथा वामदेव आदिकोंका, इस रीतिसे विद्वान्के व्यवहामें नियम नहीं ॥ १८॥
(८७) आसक्तिपूर्वक क्रिया बंधनका हेतु होवै है सो ज्ञानीके है नहीं याते ज्ञानवान्की प्रवृत्ति स्वाभाविक होनेते बंधनका हेतु नहीं, या अर्थको शिष्य
शिष्य उवाच ।
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वि०८. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १५७ दोहा-भगवन आतमवान जे, लीलावत करें भोग ॥ वस्तु बुद्धि कछुना गहैं, धीरजवान अरोग ॥ १९॥
टीकाः हे भगवन् ! जो ज्ञानवान् हैं सो पूर्वले अदृष्टजन्य स्वभावके वशते कर्तृत्व अभिमानते विना भोगोंमें प्रवृत्त होवे हैं औ चिद् जड ग्रंथिके अभावते सत्य बुद्धिकर प्रवृत्त हो नहीं; काहेते धैर्यादि गुण संयुक्त हैं औं अविद्यारूप रोगसे रहित हैं ॥ १९॥
ननु मिथ्या बुद्धिसे ज्ञानवान्की प्रवृत्तिभी अज्ञानीकी प्रवृत्तिकी न्याई बंधनका हेतु है, यह शंका होवे है; ताका उत्तर कहो ? तहां सुनोःदोहा-अज्ञानी आसक्त मति, करे सुबधन हेत॥ ज्ञानीके आसक्ति नहिं,तजै न कछु गहि लेत ॥२०॥
टीका:-अज्ञानी सर्व व्यवहार कर्तृत्व अभिमान___कर करे है, याते ताको बंधनका कारण है औ ज्ञानवा
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-१५८
विचारमाला.
वि० ८०
नको कर्तृत्व अभिमान है नहीं, याते स्वरूप दृष्टिसे न किसीका ग्रहण करे है औ न त्याग करे है, या - ते ताकी प्रवृत्तिही संभव नहीं तो बंधनकी शंका कैसे बने ? ॥ २० ॥
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(८८) ननु कर्तृत्व अभिमान ज्ञानीको काहेते नहीं ? या शंकाके होयां विद्वान की दृष्टिमें कर्ता भोक्ता जीव नहीं, या अर्थको दो दोहोंकर दिखावे हैं:दोहा :- हौं अबोध अनंत गति, परस्यो ? चित्त समीर ॥ बहु कलोल तामें उठें, ना ना रूप शरीरं ॥ २१ ॥ चित्त वात भयो शांत अब, जीव लहरि भइ लीन ॥ केवल रूप अनंद हौं, रह्यो शुभाशुभ हीन ॥ २२ ॥
टीका :- देशपरिच्छेदते रहित समुद्ररूप स्वमहि - मामें स्थित मेरे आत्मामें अघटन घटन पटीयसी मायाकर, चित्तरूप वायुके संबंधसे, देव तिर्यक मनुष्यादि
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वि०
आत्मवान्: स्थितिवर्णन.
१५९
शरीररूप बहुत लहरियां तामें उत्पन्न भयीं । याकां यह यह अभिप्राय है: - शरीरोंके अभिमानी चिदाभासरूप जीव उत्पन्न भये ! अब गुरुमुखात्, विचारित महावाक्यते तत्त्वज्ञानकर, चित्त रूप वातकी निवृत्तिते चिदाभास जीवरूप लहरियों की निवृत्ति कर, पूर्व उक्त देशपरिच्छेदरहितं शुद्धात्मा स्वमहिमांमें स्थित हूं। इस रीति से कर्त्ता भोक्ता अभावते ज्ञानवानकीं शुभाशुभ में प्रवृत्ति होवै नहीं ॥ २१ ॥ २२ ॥
( ८९ ) औ जो कहीं विद्वानकी दृष्टिमें कर्त्ता भोक्ता - का अभाव काहते है ? तहां सुनोः -
दोहा - इंद्रादिक इच्छा करे, निश्चल पद सु अगाध ॥ तहां ज्ञानिकी स्थिति सदा, मैं तू यह वह बाध ॥ २३ ॥ टीका:--जा अक्रिय औ अगाध पदकी प्राप्तिकी इंद्रादिक देवताभी इच्छा करे हैं औ जामें मैं गुरु हाँ, तू शिष्य है, यह तुझको कर्तव्य है, यह, याका फल है,
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१६०
विचारमाला. वि०४ इत्यादि प्रत्ययोंकाभी बाध है; तहां ज्ञानवानकी निरंतर स्थिति होनेते, विज्ञानको कर्ता कर्म क्रियारूप त्रिपुटी प्रतीत होवै नहीं ॥ २३ ॥
पुनः ता चिद्वस्तुकेही विशेषण कहे हैं:दोहा-जाग्रत स्वप्न तहां नहीं, जहां सुषुप्तिमनलीन॥मैं तूतहां नसंभवै,आतम निश्चय कीन ॥२४॥
टीकाः-जा पूर्व उक्त चिदवस्तुमें जाग्रत स्वप्न , अवस्थाका अभाव है औ जो सुषुप्ति अवस्थामें मनका विलय होवे है ताकाभी अभाव है औ जामें मैं तु यह भावनाभी होवै नहीं उसी चिवस्तुको विद्वानने अपना आत्मा निश्चय किया है ।। २४ ॥
(९०) ननु ज्ञानवान् अनेक तरीके व्यवहारकर्ते प्रतीत होवै है,याते तिनके फसकरभी बंधायमान होवेगा? तहां सुनोःदोहा-ज्ञानि करे अनेक कर्म, विधिवत
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वि०८. आत्मवान् स्थितिवर्णन जग व्यवहार ॥ लिपै नधूमाकाश ज्यों, जान्यो जगत असार ॥२५॥ 'टीका:-ज्ञानवान् यद्यपि देह इंद्रिय मनके धर्म जानकर विधिपूर्वक अनेक यज्ञादि कर्म करे है, औ खान पान लेन देनादिक लौकिक व्यवहार करे है, तथापि जैसे धूमादिकोंकर आकाश मलिन होवै नहीं, तैसे ज्ञानवान् कोंके फलकर बंधायमान होवै नहीं, काहेते जाते सर्व जगतको मिथ्या जान्या हैं ॥२५॥
(९१) अब योगी ज्ञानकी निष्ठा कहे हैं:- . दोहा-जाग्रतमांहि सुषुप्तिसी, मतवारेकी केल॥करे चेष्टा बालज्यो,आत्मसुख रह्यो झेल ॥ २६॥
टीका:-अष्टांग योगके अभ्यासकर उपरतिकी दृढताते विद्वानका जाग्रत व्यवहारमे इष्टानिष्टकी विस्मृति सुषुप्तिके तुल्य होवै है। जो कहो इष्टानिष्टके ज्ञान विना विद्वानका व्यवहार कैसे सिद्ध होवे है ? तहां सुलो:-.
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१६२ विचारमाला. वि०८ जैसे उन्मत्त पुरुष क्रीडा करे है औ वालक जैसे इष्टानिष्टके ज्ञान विना चेष्टा करे है, तद्वत विद्वानभी प्रवते हैं । उन्मत्त औ बालकते विद्वान्का भेद कहे हैं:-विद्धान विरावरण आत्मानंदका अनुभव करे है॥ २६ ॥
(९२) अब विद्वानको इष्टानिष्ट पदार्थकी प्राप्तिसे हर्षशोकका अभाव कहे हैं:
सोरठा-स्वप्न राव भयो रंक,प्राणा तजै तहँ क्षुधा वस ॥ जागै वही प्रयंक, कह विस्मय कह हर्ष पुनि ॥२७॥
टीका:-जैसे कोउ राजा,सेजामें शयन करे तहां निद्रामें ऐमा स्वप्न देखे, मैं कंगाल हो, अन्नके अलाभते क्षुधाकर मेरे प्राण जावे हैं तब अदृष्ट बलते जागक देखे मैं राजा हों, सेजापर पड्या हों, तब सो राजा जैसे राज औ कंगालताके लाभते हर्षशोकळू नहीं भजे है; तदत विद्धानबी जान लेना ॥ २७ ॥ - (९३) अब प्रकरणकी समाप्ति करते हुए ग्रंथकार, शिष्यका सिद्धांत कहे हैं:
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वि०८, आत्मवान् स्थितिवर्णन. १६३ दोहा-आस्तिक नास्तिक नहिं कछ, नहीं तहँ एक न दोय ॥ लघु दीरघ नहिं अगुन गुन, चित्स्वरूप मम सोय ॥२८॥ टीकाः-अर्थ स्पष्ट ॥ २०॥ दोहा-अगह अगोचर एकरस, निरवचनी निरवान ॥ अनाथ नहीं को भूमिका, जापर कथिये ज्ञान ॥ २९ ॥
टीका:-ग्रंथकार उक्ति शिष्य कहे हैं। मेरा स्वरूप कर्म इंद्रियोंकर ग्रहण होवै नहीं, तथा ज्ञान इंद्रियोंका विषय नहीं, इसीते एकरस है औ किसी वचनका विषय नहीं औ जामें सर्व दुखोंका अभाव है ऐसा है।
औ किसी भूमिकाका क्रम होवै तिसमें तो कथन भी संभवै, ज्ञानकी सप्तभूमिकाकी कल्पना तामें नहीं, याते तहां प्रश्न उत्तररूप कथत संभव नहीं ॥ २९॥ _ (९४ अब शिष्यके सिद्धांतको श्रवण करके गुरु शिष्यकी प्रशंसा करे हैं:- श्रीगुरुरुवाच ।
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१६४ . विचारमाला.. वि०४० दोहा-धन धन शिष्य उदार मति, पायो मतो अनूप ॥ सुगुरु खोज लीनो भले,भयो सुशुद्ध स्वरूप॥३०॥
टीका:-ग्रंथकार उक्तिः- सुष्टु गुरुने शिष्यके सिद्धांतमें शंका करके भली प्रकार निश्चय किया जो शिष्यकी ब्रह्मरूपसे स्थिति भई है, तब गुरु कहे हैं:हे शिष्य ! जाते तैने अनूप ब्रह्ममें स्थिति पाई है, ताते तू धन्य कहिये कृतकृत्य है, याहीते उदारबुद्धि है।। ३० ॥
(९५) अब समग्र ग्रंथकर, कहे समग्र अर्थको संग्रह कर दो दोहोंसे कहे हैं:दोहाः-सुनि विचार बहराइ हो, बिसर वाक्य थकि जाय॥ अनाथ विवेकीजानि है,गायब बाजी पाय॥३१॥
टीका:-ग्रंथकार उक्तिः- विवेकी कहिये चतुष्टयसाधनसंपन्न, अधिकारी, जब श्रवण करे औ मनन करे औ श्रवण करे. अर्थमें वृत्तिकी स्थितिरूप निदि
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वि०८.
आत्मवान् स्थितिवर्णन.
१,६५
ध्यासन करे औ विसर वाक्य थकि जाय कहिये निदिध्यासनकी परिपाक अवस्थारूप समाधि करे; तब बाजी पाय कहिये जैसे बाजीगर अपनी मायाकर छिपन हो वे है, तैसे गायब कहिये सविलास अज्ञानकर आच्छादित चैतन्यकूं जाने है ॥ ३१ ॥
(९६) दोहा-यह विचार मालहू सरस, बहुविध रच्यो विचार ॥ साधन सिद्ध प्रगट किये, अनाथ भले प्रकार ॥ ३२ ॥
टीका :- यह तत्त्वका विचार, मालाके सदृश मुमुक्षुकरि निरंतर करणीय है । अर्थ यह है: - जैसे जपकर्ता पुरुष निरंतर माला फेरता है, तैसे मुमुक्षुने निरंतर तत्त्वका विचार करणा । याहीते सो विचार नानायुक्तियोंसे कहा है । जो कहो, सो विचार कह्या चाहिये ? तहां सुनोः - साधन कहिये विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति, मुमुक्षुता, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, तत्त्वंपदार्थोंका शोधन, औ श्रोत्रसंबंधी महावाक्य अरु सिद्ध कहिये
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१६६ . विचारमोला. वि.. तिनोंका फल ब्रह्मात्माका अभेद निश्चयरूप विचार, सो या ग्रंथमें हमने भली प्रकार कह्या है ॥३२॥
(९७) अब ग्रंथका असाधारण अधिकारी कहे हैं:दोहा-बँध्यो मान चाहत छुट्यो, यह निश्चय मनमाहिं ॥ विचारमाल तापर रची, अज्ञतज्ञ पर नाहिं ॥३३॥
टीकाः यद्यपि अधिकारी पूर्व कहा है, इहां कहनेका कछु प्रयोजन नहीं, तथापि सो भाषा औ शारीरकादि संस्कृत वेदांतग्रंथोंका साधारण कहा है औ इहां। वक्ष्यमाण अभिप्रायसे या भाषा ग्रंथका असाधारण अधिकारीके कथन अभिप्रायसे पुनः कहा है । सो अभिप्राय यह हैः-मैं अविद्या तत्कार्यकर बंधायमान हूं यातें किसी प्रकारसे छूटें, यह निश्चय जाके अंतःकरणमें है औ शारीरादि संस्कृत ग्रंथोंके विचारनेमें सामर्थ्य नहीं, ऐसा जो मंदबुद्धिवाला मुमुक्षु है, तापर यह विचारमाला ग्रंथ है । अज्ञ जो विषयी औ पामर हैं औ तज्ञ जो ज्ञातज्ञेय विद्वान हैं तिनपर नहीं ॥ ३३ ॥
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वि०८,
आत्मवान् स्थितिवर्णन १६७ (९८) अब मुमुक्षुकी प्रवृत्ति अर्थ, तीन दोहोंकर या ग्रंथकी प्रशंसा करे हैं:दोहा-और माल रतनादि जे, घात होत तिन हेत ॥ अद्भुत मालविचार यह तस्कर वश करि लेत ॥ ३४ ॥ षट्दर्शनकी माल जे, अपनो पक्ष लिये जु॥ दैतरहित रुचि माल यह, शोभत सबन हिये जु॥३५॥ राव रंग मन भावती, वरणाश्रम सुख दैन ॥ रुचि विचारमाला रची, चितवत अति चित चैन ॥ ३६॥
टीकाः-योगी जंगम सेवड़े विप्र संन्यासी औ दरवेश ये षट् दर्शन हैं, अन्य स्पष्ट ॥३४॥३५॥३६॥
(९९) अब तत्त्वविचारका महास्य कहे हैं:दोहा-अनाथ श्रवण बहुते किये, कह्यो
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१६८
विचारमाला.
वि०.८ बहुत परकार ॥ अब सुविचार विचार पुनि, करण न परै विचार ॥ ३७॥
टीकाः-स्वामी अनाथदासजी कहे हैं:-बहुते ग्रंथोंका श्रवण किया औ बहुत प्रकारसे कथन किया, तथापि कृतकृत्यता न भई; अब सुष्ठु तत्त्वविचार; विचारिक बहुत विचार करना परे नहीं ॥३७॥ . (१०० ) अब अपनी नम्रता सूचन करते हुए ग्रंथकार, दो दोहोंकर कवियोंसे प्रार्थना करे हैं,दोहा-क्षमा करो शिष जानके, हे कवि महाप्रबुद्ध ॥ लेहु सुधार विचारके, अक्षरशुद्ध अशुद्ध ॥३८॥ हौं अनाथ केतिक सुमति, वरणो माल विचार ॥ राम मया सत्गुरु दया, साधुसंग निरधार ॥ ३९॥ टीकाः-अर्थ स्पष्ट ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
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वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णेन. १६९
( १०१ ) अत्र ग्रंथके रचनेमें हेतु कहे हैं:दोहा-पुरी नरोत्तम मित्र वर,खरो अतिथि भगवान ॥ वरणी माल विचारमें,तिहि आज्ञा परमान ॥४०॥
टीका:-अब परंपरासे श्रुतकथा लिखे हैं:-अनाथदासजी औ नरोत्तमपुरी जो परस्पर स्नेहके वशते विरक्त हुए साथ विचरते भए, कछु काल पीछे अदृष्ट वशते वियुक्त हुए, अनाथदासजी काश्मीरमें प्राप्त भए औ नरोत्तमपुरीजी विचरते हुए गुजरात देशमैं बड़ोदे नाम नगरमें प्रारब्धवशते राज्योंकर पूज्य होते भए, तब नरोत्तमपुरीजीने विचार किया,हमारे मित्र अनाथदासजी यद्यपि विरक्त हुए काश्मीरमें विचरे हैं, तथापि पूर्व संप्रदाय उक्त भेदवादके संस्कारते अद्वैतनिष्ठाते च्युत भए हैं वा अद्वैतमें निष्ठावान हैं, या परीक्षाके अर्थ पत्रिका लिखके ताके समीप पहुँचाई । ता पत्रिकामें यह लिखा परमेश्वर चिंतन अर्थ बहुत मोलवाली एक माला हमारे समीप भेजो। ताको पढ़के औ ताके अभिप्रायको
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१७०
वि०८
१७० विचारमाला जानके अनाथदासजीने यह विचारमाला रची। सो कहे हैं: नरोत्तमपुरी जो हमारे श्रेष्ठ मित्र हैं, पुनः कैसे हैं ? एक परमेश्वरही अतिथिवत् भली प्रकार जिनका पूज्य है, ताकी आज्ञाका स्वीकार करके हमने यह विचारमाला नाम ग्रंथ रचा है ॥ ४० ॥ ..
(१०२) अब या ग्रंथका माहात्म्य कहे हैं:दोहा-लिखै पढे अति प्रीति युत, अरु पुनि करे विचार ॥ छिन छिन ज्ञानप्रकाश तिहिं, होय सुरविहिप्रकार ॥४१॥
टीकाः जो पुरुष या ग्रंथको लिखे औ प्रीतिपूर्वक गुरुमुखात श्रवण करे तथा एकांतमें स्थित होयके विचारै, ता पुरुषको प्रतिक्षण प्रकाशरूप. ब्रह्मनिष्ठा दृढ होवै। जैसे उदयसे लेके मध्याह्नपर्यंत प्रतिक्षण सूर्यका- . प्रकाश वृद्ध होवै है तैसे ॥ ११॥ . . ... .. ...(१०३) अब जिन ग्रंथोंका अर्थ संग्रह कर या ग्रंथ: में लिख्या है, तिनके नाम कहे हैं।
दोहा-गीता भरथरिको मतो, एकादशः .
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वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १७१
की युक्ति ॥ अष्टावक्र वसिष्ठ मुनि, कछुक आपनी उक्ति ॥४२॥ 'टीका:- कबहूं न मन थिस्ता गही" औ "निह संशय मन है चपल” इत्यादि वाक्योंकर गीताउक्त अर्थ कहा। औं "नदि आशा” इत्यादि वाक्योंकर भरथरीका मत कहा । औ “अति कृपाल नहि द्रोह चित" इत्यादि वाक्योंकर एकादशकी युक्ति कही । औ "विषवत विषय बिसार " इत्यादि वचनोंकर अष्टावक्र उक्त अर्थ कहा । औसप्तभूमिका औ प्रपंचका अपवाद प्रतिपादक वचनोंकर वसिष्ठ उक्त अर्थ कहा। इन वचनोंकासंबंध प्रतिपादक कछु इक अपनी उक्ति है ॥ ४२ ॥ (१०४) सोरठा-सत्रहसै छब्बीस, संवत माधव मास शुभ।मो मति जितिक हुतीस, तेतिक बरणी प्रकट करि॥४३॥
टीकाकारकी उक्ति:(१०५ ) दोहा-बालबोधिनी नाम
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१७२ विचारमाला... वि०४०
यहि,करो सारथिक शोच॥ मूल सिंधुमों बिंदुसम, लिख्यो अरथ संकोच ॥१॥ कह्यो जुकिंचित अरथमें,सो वेदांतको । सार॥मले विचारे याह जो, संसृति नसें अपार ॥२॥ संवतशशि गुण ग्रह शंशी,गतीअंक लिख वाम॥ज्येष्ठमास पख कृष्ण शुभ,तीज सोम सुखधाम॥३॥
कवित. मायिक प्रपंचमाहिं सिंधु नाम देश आहि तामें साधुबेला नाम ॥साधु जन गावहीं।तासमें निवासा करें ब्रह्मानंदमाहिं चरें पालक प्रसाद हरि संत मन भावहीं॥ संत जे.समीप बसें तप कर तनु कसैं इंद्रिय मन रोक ध्यान ब्रह्ममै लगावहीं॥ . अष्टम विश्राम जोइ इति भयो तामें
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वि०८.
आत्मवान् स्थितिवर्णन.
१७३
सोई लिख्यो आया रामदास गोविंद सुनावहीं ॥ ४ ॥
श्लोक.
गोविंददासरचिता, शुद्धा पीताम्बरेण या ॥ सा बालबोधिनी टीका. सदा ध्येया मनीषिभिः ॥ १ ॥
इति श्रीविचारमालायां आत्मवानू की स्थिति वर्णनं नाम विश्रामः समाप्तः ॥ ८ ॥
इति श्रीसटीका विचारमाला समाप्ता.
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(१) श्रीगणेशाय नमः ॥॥ श्रीगुरुरामाय नमः ॥ अथ ज्ञानकटारी लिख्यते ॥ दोहा ।। वृत्तिव्याप्ति एकाग्रचित॥ यहीहमारोध्यान ॥ ब्रह्मरूपगुरुरामको ॥ नमस्कारसोइमान ॥ १॥ परमगुरूश्रीरामके ॥ चरणेराखूध्यान ॥ प्रस्तावीमॅकहतहों ॥ ग्रंथकटारीनाम ॥२॥ इंदवछंद ॥ लोहकटारिसबैकोउबांधत ॥ ज्ञानकटारिसुदुर्लभभाई ॥
लोहकटारिजुखाइमरजंत । सोअवतारधरेभवमाई ॥ ज्ञा। नकटारिकोखावतहँसंतब्रह्मस्वरूपअखंडहोजाई ॥ फेरक
बूजनमेंनमरेहरिसंगसंतापकनरहाई॥ ३ ॥ मनोहरछंद । ज्ञानकोप्रकाशसोतोहीरामणिरत्नजेसो ॥ ताकोअंधकारकेतपामरठेराइके ॥ ऐसोहीअन्यायकरे ॥ ताहिसेंचोरासिफिरें ॥ बेरबेरकहाकहोंतोहिंसमुजाइके ॥धिकतेरोजीवन मिथ्यानरदेहधरि । मरेक्योंनमुढतूकटारीपेटखाइके ।। हूंतोहरिसंगसुखदुःखहुतेन्यारो खाइ ॥ ज्ञानकोकटारीसतररुगमपाइके ॥ १॥ हीरामणिरत्नसोतोजडहिप्रकाशआपु ॥आपकोनजानेतासुजानोएकदेसीहै। ज्ञानतोस्वयंप्रकाशआपकोबिजानेपनि ।। चिद्धनएकरस
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(२) शुद्धसर्वदेशीहे॥जानतुस्वरूपतेरोअस्तिभातिप्रियऐसो॥ दुःखरूपमानिरह्योतेरीमतिकेसीहे ॥ केतहरिसंगमिथ्यादेहकोतूमानेमूढा। मेरोकयोमानेतोकटारीखाइजेसीहे॥५॥ भक्तिसोनजानेप्रभुन्यारोकरिमानेतासे ॥ होतहैहरिकोद्रोहीफेरचितचाइके । भक्तिअरज्ञानइकभिन्नहिनजानोकोउ ॥ एकताहैभक्तिकृष्णकहिगीतागाइके ॥ लोकहुरिजावेराधाकृष्णकोविहारगावे ॥ निंदामेंअस्तुतिमानेमनमेंसराइके ॥ केतहरिसंगमिथ्यादेहमेंअध्यासकरि ॥ मरेक्योंनमूढतुकटारीपेटखाइके ॥६॥ अजअविनाशीएकअखंडअपारप्रभु ॥ ताकोतोकहतउठहाथकोबनाइके ॥ जगतकेमाततातताकितोउगारीबात ।। केतेहोतूनाचेकृष्णगोपीबनिआइके ॥ अजन्माकोजन्मजानेवेदकीनबातमाने ॥ तातेजातकालहिकेमुखमैचवाइके ॥ केतहरिसंग० ॥ ७ ॥ आपहोइजीवपापीव्यभिचारीभक्तिकरे ॥ केतप्रभुपाऊंगोमेंवैकुंठहुनाइके ॥ कोउतो कहतमोक्षमोक्षहुशिलाकेमाहि ॥ कोउतोकहतगोलोकमहुधाइके ॥ देशकालवस्तुपरिच्छेदसेरहितप्रभु . ॥
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(३)
ताकोकहेएकदेशीमनमेंफुलाइके ॥ केतहस्सिंग० ॥८॥ करिसतसंगसुधारसक्योंनपीवेतूतो ॥ होतराजीबहुतवि षयलपटाइके ॥ बांधेटेदीपागपैरेधोतीसोकिनारीदार ॥ अंगपरओढिलेतदुपेटोरंगाइके ॥ बोलेमीठीबातकहेब-. हुतसिहानोंसतसंगमेंनआवै कभीलोकसेलजाइके । केतहरिसंग० ॥९॥ ज्ञानकीकटारीकसि बांधतेरीकमरसें ।। जाइसतगुरुपासलीजियेसजाइके ॥ शुद्धहिविचारक स्मिारकामक्रोधहिको ॥ म्यानसेंनिकासिलेतुहाथमेंहलाइके ॥ करयाकीचोटआरपारहिनिकासितेरोजान-. तूस्वरूपजीवभावकोमिटाइके ॥ केतहरिसंग० ।। १० ।। दुर्लभतेदेहधरिकहातेकमाइकरि ॥ भूल्योनिजानं दहरिदेहबुधिलाइके ॥ जंत्रमंत्रसाधेभूतप्रेतहिकोबांधता- . सेंकायाक्रमबांधेदेहभावदेजलाइके । बेरबेरनाहिनरदेहतोकोआवेऐसो ॥ मुक्तिकोदुहारदेतचलिममिलाइके । केतहरिसंग० ॥ ११ ॥ जपरेअजपाजापसोइहैतृआपैआप॥निश्चयकरिमानध्यानबैठजालगाइके॥देहबुधिटारिरूपआपकोसंभारिकामक्रोधलोभमोहयाको दीजियेभ
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(४)
जाइके ॥शुद्धतूस्वयंप्रकाशछोड़देविरानीआस॥होतक्युहेरानमूढमिथ्यामेंगंठाइके। केतहरिसंग० ॥१२॥ शुद्धहिविचारसोपोलादकीकटारिकरि ॥ गुरुजुल्हारपासलीजिये गडाइके॥ गडिभलेघाटयाकोअमिमांहितातिकरि ।। प्रेमरूपीपानिवाकोदीजियचढाइके ॥ नामरूपरहितकटारिसुदुरसकरिशुद्धबुद्धिम्यानतामेराखियेद्रढाइक।। केतहरिसंग०॥१३॥ करिचारोधामसवैतीरथमेंगुम्योअरुभयोहैपवित्रगंगागोमतीनहाइक।कीनोहठजोगतासेंजायगोक्यों रोगमूढइच्छेस्वर्गादिकभोगबैठोक्याकमाइके॥तासेंतेरोजनममरननहिछूटेतूतोजाननिजानंदघनउलटसमाइके। केतहरिसंग०॥ १४ ॥ खीरनीरएकजानिदूधसोतेंडारिदीनु।। कियोनविचारवैठोपानिकोजमाइके ॥ तासेतोतूसारक्या निकासेगोमथनकरि ॥ आपभूलि औरकोभुलावेभरमाइके ॥ मुखसेकहतएकआतमासकलमाहिं ॥ देखिपरदोपचित्तरेतचरमाइके ॥ केतहरिसंग० ॥ १५ ॥ आपजोकहतवातज्ञानकीबनाइकरि ॥ मनमरहतराजि लोकमेंपुजाइके ॥ औरकहेनातकोऊज्ञानकीकिसीको
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तंब ॥ जानेमेरोमानगयोमरेयोमुंजाइके ॥ जानेएकमैंहिहोतोदैतभावटिजाय ॥ अंतरकिआगतेरीबैठतूबुजाइके ॥ केतहरिसंग० ॥ १६ ॥ देहअभिमानीक्याविलोवेबैठोपानीवातकाहुकीनमानीतूतोबोलतचगाइके । आपकोअधिकजानिऔरकीतोहांसिकरे ॥ काहेकोमरत सोतेसांपकोजगाइके ॥ बहुतकमायोधनपेटमेनखायो परतियोलोभायोतोकूलेवैगीबुगाइके ॥ केतहरिसंग० ॥ १७ ॥ बजावैमृदंगतालख्यालखासेगावेआपरहेआठोयामरंगरागभिजाइके ॥ आपकीसरावेबातऔरकी । नभावेदेखी ॥ आपकोअधिकमानिमूछमरडाइके ॥ह रिकेनगावेगुणविषैवातभावेमुख ॥ ज्ञानकीतोबातसुनि ऊठतखिजाइके ॥ केतहरिसंग० ॥१८॥ हंससेकहावेअरुलच्छनतोकाकहिके।बोलतगुमानभरीमुखमुसकाइके।। हंससोतोमोतीचुगेमंसकोपवैयाकाक ॥ बैठेछांददेशपरफिरहिषिराइके ॥ ऐसेखललोकहँसोसारहिकोत्यागकरि ॥ वस्तुजोअसारताकोराखतग्रहाइके ॥ केतहरिसंग०॥ १९॥ कहावेकपुरदेनहींगकीतोवासनाहि ॥ ना
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( ६ )
3
मधनपालघरे भीषमांगेखाइके || पढ्यो हैवेदांत कछु बोलवेकोसीख्योतव || वादहिविवादकरेयुगतिलगाइके ॥ . पोपटज्यों बोले- हदेग्रंथि सोनखोलेसारासारहिनतोलेता सेंरह्यो ठगाइके ॥ केतहरिसंग ० ॥ २० ॥ बनजकोआयो कहा हांसिलकमायोधनगांठकोगमायो भयो भिषारीलुटाइके ॥ सीयोचारोवेदता को भेदजोनजानेतो तू फिरत हो योंहीखालीबोजकोउठाइके || घनहिअखूटतेरेहाथसोंग माइकरि || आपषूटिऔरकोतू देतहो खुटाइके ॥ केतह. सिंग० ॥ २१ ॥ सतगुरुदेवब्रह्मवेत्ता केशरणजाइ चोरासीकोफंदतोको देवेंगेलडाइके | कौन हूंमें कांसे आयोकरिलेविचारऐसे || देहरूपहोइरह्योदे हमें जुडाइके ॥ देहको प्रकासीतीनकालमैनहोइदेह काहेकोतबंध फिरछूटनातुड्राइके || केतहरिसंग || २२ || बाहिरसेवृत्तितेरीखेंचि करभीतरको | सोहं सोहंजापसदारह्यो हैजपाइके | आंबकोउखेड़िपेड़ बबुलकोबीज़बोवे ॥ ताकीतूकरतवाडचंदनकपाइके || हीरा सोतो मुठिभरिफेकिदेतद्वारबार ।। जूतीकोजतनकरिराखतचुपाइके || केतहरिसंग० ॥ २३ ॥
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(७) तूतोचिदानंदघनआतमाअखंडताको जीवजानिदेतभवसिंधुमडवाइके ॥ नाहितीनदेहते रेस्थूलअरुसूक्षमजुकारनकोसाक्षीहोइदीजियेउड़ाइके । काजनअकाजकछुकियोनविचारगरवास्तजिजाइबैठोमुंडहुमुंडाइके ॥ केतहरिसंग० ॥ २४ ॥ जातिकुलबरनकोतज्योअभिमानमाततातहिकोनामसोतोदीनुहैभुलाइके ॥ औरहि चबायोरंगबाढ़योअभिमानदेखो ॥ काढिकेबिलाड़ीवेठोऊउहिरसाइके ॥ लोकमेंपुजावेआपररुहिकहावेमनबहुत फुलावेदेखोपंचमेंपुछाइके ॥ केतहरिसंग० ॥ २५ ॥ सवैया ॥ दुर्लभदेहधरीसोखरीकवहींसतसंगतैनाहिकियो ॥ विषेभोगकोभावकरीकपटीभवसागरपूरमैनातवंयो ॥ तूतोपुत्रपशूधनधामदारासबमेरोमेरोकरिमोहिरह्यो । हरिसंगकेशुद्धविचारविनाऐसोमूढकोमालिकहोइरह्यो ॥ २६ ॥ सुखीहोयसदादुखदूरतेरोसतसंगमेंजामेरोमानकह्यो ॥ ततोभूलिगयोइकमीतसवैब्रह्मज्ञानपदारथक्योंनग्रहो ॥ तुच्छभोगनिकाजउपावअनेककरीशउसंगतिआयुजह्यो ॥ हरिसंगकेशुद्धविचारविनाऐसोमू
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ढकोमालिकहोइरह्यो ॥ २७ ॥ मनोहरछंद ॥ करतरामा - न एकदेहअभिमानऐसो आपमाहिंआपै आपफूल्योही फिरत है || नाहिवपुतीन तेरेचेतन स्वरूप शुद्धगीतागुरुवेदवाक्यसा षजो भरत है ॥ साररूअसारहिकौकरिलेविचार आपदेहको हुंमानि मुढकाहेको मरत है || जानोहरिसंगस तगुरुगम भयो तब चौरासी के फंदडुमें कबून परतहै ॥ २८ ॥ दोहा || हर्षशोकमनकोगयो || शांतभयो है चित्त ॥ सद्गुरु रामप्रसादतें || जान्यो नित्यानित्य ॥ २९ ॥ नित्यानि - त्यविवेकसे || भईअविद्यानाश || हर्षशोकतेरहितजो ॥ सोहं ब्रह्मप्रकाश ॥ ३० ॥ आपप्रकाशअखंडहों ॥ सतचिदआनंदरूप || हरीसंगमनतेपरे || सोत्रा अनूप ॥ ३१ ॥ ज्ञानकटारीग्रंथयह || सूक्षमकह्योजुभाइ ॥ शुद्धमुमुक्षूपरसदा अज्ञतज्ञपरनाइ ॥ ३२ ॥ उन्नीससेछेमेवरष ॥ भयो सुपुरणजान ॥ मृगसिरमासरुशुक्कतिथि ॥ नवमीअरुभृगुमान ॥ ३३ ॥ इति श्रीरामगुरुशिष्यहरिसंगकृतज्ञानकटारीग्रंथ संपूर्ण ||
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मन्त्रराज प्रभाकर दोनों भाग.
इसमें श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराणादि प्रमाण तथा महात्माओंके वचन और शास्त्रानुकूल युक्तियोंसे ऐहलौकिक पारलौकिक सुखविधायक धर्मनिरूपणपूर्वक तारक राममंत्र का महत्त्व प्रदर्शित किया गया है; अतएव यह पुस्तक सर्व साधारणको कहाँतक उपयोगी है यह कहनेकी आवश्यकता नहीं, सबके सुभीतके लिये मूल्य भी बहुतही थोड़ा अर्थात् केवल सं० १ रक्खा है. डा. म. ३ आ. ब्रह्मसूत्र - ( वेदान्तदर्शन ).
शारीरकभाष्यानुसार सूत्रभावार्थप्रकाशिकाभापाटीका, अधिकरणसूत्र, तथा उनका प्रसंग प्रदर्शित करनेवाली सूची और अकारादिवर्णक्रमानुसार सूत्रावलोकन प्रकारसहित इसमें सूत्र और शांकर भाष्यके गहन विषयोंका विवेचन सरल रीति से किया गया है; जिससे यह पुस्तक सर्व साधारण के संग्रह योग्य होगई है. ऐसी सरल और गूढ़ वेदान्तके सिद्धान्तोंको सुगमता से समझानेवाली यह टीका अपने ढंगकी एकही है, क्योंकि भामती, आनन्दगिरि आदि सव' टीकाओंके सहारे से लिखी गई है, रु० १ ० १२ डा०म० ०-४
पुस्तक मिलनेका ठिकाना - हरिप्रसाद भगीरथजी,
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कालकादेवीरोड रामवाडी - मुंबई.
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अटोपनिषद्धाषा-फका. ४ (अर्थात् आठ उपनिपदोंका सुस्पष्ट शांकरभाष्यानुसार अर्थ है o और मनउपदेशक शब्द, अन्तर्मुखी रामायण, आत्म
. स्तोत्राष्टक, जगविलास आदिका वर्णन.) ५. आजकल पेदांतके जितने ग्रंथ छपे और विना छपे नजर आते हैं उन हु सबका मुखियाआधारस्तंभ वेदका उपनिपझाग है. सो वे चारों वेदोंके ।
उपनिषद् एकसौ आठ १० ८ हैं, उनमेंसे ईश, केन, कठ, मुण्ड,माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दश ही उपनिषद् ५. मुख्य होनेसे इनपर श्रीमत्स्वामी शंकराचार्यजीने संस्कृतमें बोकेर लिये भोप्य किया है. परंतु वह भाष्य संस्कृतमें होनेके कारण सं*स्कृतसे अनजान लोगोंकी समझमें अच्छी तरह नहीं आता. और सभी ॐ वेदान्तग्रन्थों में सब जगह उपनिषद् मंत्रोंकाही उपयोग किया गया है,
यह विचारकर शंकराचार्यजीने जो उपनिषद्-मंत्रोंका, पक्षपातको ५ र छोड़कर कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड विषे भाष्यरूप । • यथासंभव अर्थ किया है उसका आशय लेकर श्रीमत्परमहंस स्वामी हरिमकाशजीने ईश, कठ, केन, प्रश्न, मुण्ड, माण्डूक्य, तैत्तिरीय और
ग्य-न-आठौं उपनिषदोंकी यथार्थ भाषा फका संक्षेपसे की है. वही "अटोपनिषदभाषा-फा" हमने सर्व साधारणके उपयोगके। ५ अर्थ अच्छे सुचिकण ग्लेज कागजपर छापी है और छोटे बड़े सबके । सुभीतके लिये कीमत भी बहुतही कम अर्थात् १ ॥) रुपया रक्खी
है. डाक महसूल ४ आना. LOOOOOOCIEDOCOCOOOOOOOOOOOOOO
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अवधूत-गीता.
भाषाटीकासहिता. ए यह गीता अवधूतमुकुटमणि भगवदवतार श्रीमान सा भगवानने स्वयम् श्रीमुखसे कही है, इससे बढ़कर इसी बाजार नकताके विषयमें प्रवल प्रमाण क्या होसकता है ? यह " अवधूतगीता " संसारानलदग्ध, किंकर्तव्यविमूढ आत्मजिज्ञासुजनोंकी। पथदर्शिका है. इसमें अवधूतनायक श्रीगुरु दत्त भगवानने में अपनी अवधूतावस्थामें अनुभव किये हुए वेदान्तरहरटका ये गर्मस्पर्शी शब्दोंसे निरूपण किया है कि जिन ( ..
सुननेसे तत्काल शुद्ध बोध और सुदृढ वैराग्य उत्पन्न होजाता ह... है ऐसे अलभ्य पुस्तकको बड़े परिश्रमसे ढूंढकर सर्व साधारणके बोधार्थ ।
भाषाटोकासहित सुन्दर कागजपर सुवाच्य अक्षरोंमें छाएकर प्रा : शित किया है. आशा है कि सज्जन महाशय इसका रांगन का हमारे ६ अपार परिश्रमको सफल करेंगे, की० ६ आना, डा. ख, १ आ.!
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पुस्तक मिलनेका ठिकाना--- हरिप्रसाद भगीरथजी,
कालकादेवी रोड, रामवाड़ी-मुंबई.
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