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वि० ७. शिष्यअनुभववर्णन. १३९ त्रिपुटी या साक्ष्यके अभावते साक्षी धर्मका निषेध कीया हैं। स्वरूपसें चैतन्यका निषेध नहीं किया ॥१७॥
पुनः वही अपवाद कहै हैं:दोहा-शास्ता शास्त्र सु को नहीं नहिं भिक्षुकनहिं दान॥ देश न काल न वस्तु गुण, वादी वाद न हान ॥ १८॥ विधि निषेध नहिं थप अथप, नहिं प्रभु नहिं को दास ॥ केवल शुद्ध स्वरूप हों, पूरण स्वतह प्रकाश॥१९॥ सोरठा-ध्याता ध्यान न ध्येय मम,निज शुद्ध स्वरूपमें ॥ उपादेय नहिं हेय, सर्वरूप सबते परे॥२०॥
टीका:-अज्ञानके अभावते मुझपर शिक्षा करनेवाला औ शास्त्र नहीं औ जिज्ञासाके अभावते मैं भिक्षुभी नहीं औ उदारताके अभावते दानी नहीं औ ह.. दय कंठ नेत्ररूप देश, जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिरूप काल,